Monday, October 2, 2017

भूगोल बदल रहा है








अष्टमी वाली सुबह ही यात्रा से लौटना हुआ, घर पहुंचते ही किसी तरह देवी पाठ निबटा यूनिवर्सिटी की भागमभाग. पिछली रात की अधूरी नींद भी पलकों की सवारी कसे अपना बकाया मांग रही थी. अष्टमी का दुर्गा दर्शन किसी तरह टाला नहीं जा सकता, सो बस रस्म निभाकर वापस लौटना हुआ. नीचे पार्क में गरबा नाइट का आयोजन तेज़ धुनों के साथ आमंत्रण दे रहा था लेकिन किसी तरह भी वहां जाना नहीं हो पाया. बाल्कनी से झांक कर दिल को वैसे भी ज़्यादा लोग कहां हैं वाली तसल्ली दे ली. इन दिनों यूं भी हर मौके पर एक से मौसमी गीतों का शोर कुछ यूं  होता है कि पता ही नहीं लगे, शादी वाला डीजे बज रहा है, कांवड़ियों की सवारी निकली है, गणपति का विसर्जन है या नवरात्रि गरबा. कनफोड़ू संगीत ने वैसे ही आधी रात तक जगाए रखा.



वीकएंड पर व्हाट्स एप के फैमिली ग्रुप में अमेरिका से गरबा के वीडियो अनवरत आते रहे. न्यू-जर्सी के गरबा आयोजन में विशुद्ध गुजराती धुनों पर थिरकते सैकड़ों भारतीय. रंग-बिरंगे लहंगों और साड़ियों का विहंगम दृश्य. वुडब्रिज में तीन साल पहले शुरु हुआ गणेश उत्सव हर साल आकार और प्रसिद्धि में बड़ा होता जा रहा है. उसकी संभाल में अब स्थानीय प्रशासन को भी चौकस रहना होता है. इस तरह के आयोजन उस देश में यूं भी गंभीरता से लिए जाते हैं.

इस बार अमेरिका से लौटकर मां ने हंसते हुए कहा,"तुम्हारी बिल्डिंग से ज़्यादा साड़ियां पहने लड़कियां तो अमेरिका में दिख जाती हैं." बिना उलाहने की कही गई सीधी-सादी पंक्ति. बॉस्टन में बहन के पड़ोस में ज़्यादातर भारतीय हैं. हिन्दुस्तान से किसी के माता-पिता आएं, अड़ोस-पड़ोस वालों का मिलना-जुलना, उन्हें अपने घर खाने पर आमंत्रण देना अनवरत चलता है. कोई भी गेट टुगेदर हो, इंडिया से लाए देसी परिधानों की नुमाइश होती है. यहां मेरे घर के सामने वाले फ्लैट में कुछ कोरियाई लड़के रहते हैं, उनसे सामने पड़ने पर रस्मी हलो से ज़्यादा का वास्ता नहीं. पिछले कई हफ्तों से नज़र नहीं आ रहे, तय कर पाना मुश्किल है कि अभी भी रहते हैं या घर खाली कर गए. पड़ोस की आंटी ज़्यादातर बेटों के पास अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं. जब मिलता होता है, या तो वहां से आई होती हैं या जाने की तैयारियों में व्यस्त. ना लगातार यहां रह पाना संभव, ना वहां बस पाना मुमकिन. वैसे भी हम अपनी लाइफ को लाइफस्टाइल में तब्दील करने की कवायद में सिद्धहस्त होते जा रहे हैं. 

हाल के सालों में मां-पापा की अमेरिका यात्रा की पोटलियां हल्की होती जा रही हैं, हल्दीराम की मिठाइयों और नमकीन से अब सूटकेस नहीं भरे जाते, बस ले जाने की रस्म निभाई जाती है. पूरे प्रवास के दौरान खर्च होने वाले सरसों तेल की ढुवाई भी अब बंद है. कुछ पूछने पर वहां अब सब मिलता है वाली कैफियत अब आम है. लौटते वक्त भी डब्बा भर मिठाई की जगह पैकेट भर चॉकलेट ले लेते हैं. क्या लेकर वापस जाना, इधर भी तो अब उधर का सब मिलता है.

इस बात का अफसोस कई साल पहले वॉशिंगटन की एक सहकर्मी ने जताया था, जब रिश्तेदारों के लिए लाए गए उपहार उन्हें दो दिन बाद भी ड्राइंगरूम में ही रखे दिखे थे. जब सब्र जवाब दे गया तो उन्हें बोलना पड़ा, कम से कम उठाकर अंदर तो रख दो, इतनी दूर से लेकर आई हूं. बहुत पैसे हैं वहां अब सबके पास, किसी को कुछ नहीं चाहिए, हम इस मोह में बंधे वापस जाते हैं कि वहां सब पहले सा होगा छोड़कर जाने वाले को वापस लौटने पर सब कुछ वैसा ही पाने की उम्मीद रहती है. पता नहीं बस पुरानी यादों की खातिर या छोड़कर जाने के अपने फैसले के प्रति एक बार फिर आश्वस्ति के लिए. लेकिन कुछ भी कभी भी एक सा नहीं रहता.

कई बरस हुए अब एडमिशन के बाद अमेरिका के फलां शहर में यूनिवर्सिटी के पास किसी जानने वाले का पता पूछते अभिभावकों के घबराए फोन कॉल्स भी नहीं आते. तकनीक है, सुविधाएं हैं, लोकल दुकानों में भी देसी सामान की आमद बढ़ती जा रही है. पहचान बढ़ाने का अब क्या फायदा? ज़्यादा वक्त नहीं हुआ, दस-बारह बरस पहले हम फीनिक्स में घर से पैंतीस मील दूर इस्कॉन मंदिर तक ड्राइव कर बस प्रसाद का पूड़ी, पनीर, आलू खाने के लोभ में चले जाया करते. दूसरा सुकून होता, एक साथ ढेर सारे भारतीय चेहरों के दिखने का, जान-पहचान बढ़ाने के मौके मिलने का.

बदलाव की ललक और लहर इस ओर कहीं ज़्यादा है, सब कुछ पीछे छोड़ आगे निकल आने की होड़ भी. वहां पहुंचने पर रुक जाना शायद आसान होता हो. ठहर कर सोच पाने, चारों ओर देखते हुए मुस्कुराने की विलासिता सुखद लगती हो.

आप क्यों लौटकर आ गईं?” मुझसे ये सवाल बीसियों बार पूछा जा चुका है. पिछले हफ्ते की यात्रा के दौरान भी पूछा गया. अब ज़्यादातर मुस्कुरा कर रह जाना होता है. शुरुआती सालों में अक्सर एक ही जवाब दिया करती, मॉल में चाहे कितनी ही रोशनी हो, रात तो घर लौटकर ही बिताई जा सकती है

लेकिन घर जो इतनी तेज़ी से आत्मीयता खोता जा रहा है?


पुनश्च: जब से ये लिखना शुरु किया, मोबाइल पर 'बर्कले इंडियन एन्सेम्बल' की आवाज़ में रहमान के गाने लूप में बज रहे हैं. अमेरिकी, अफ्रीकी, एशियाई आवाज़ों की सामूहिक मिठास तनाव भरी शिराओं में अजब सा सुकून भर रही है. 

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