Monday, October 16, 2017

सौ बेटों के बराबर बेटियां कैसी होती हैं?



पिछले दिनों सुना डॉटर्स डे देश में आकर बिना ज़्यादा शोर मचाए निकल लिया, काम की अधिकता थी सो ज़्यादा ध्यान नहीं दे पाई.  चूंकि देश अभी तक बेटियों को बचाने और पढ़ाने में ही जूझ रहा है, इन मौकों पर आमतौर पर गर्माया रहने वाला बाज़ार भी बेटियों को तोहफे देने की अपील में सुस्त ही रहा. 

हां, बेटियों की तारीफ में काफी कुछ लिखा-पढ़ा ज़रूर गया. इनमें सबसे ज़्यादा दोहराई गई पंक्ति रही, हमारी बेटी सौ या दस बेटों के बराबर है. और बेटियों के बारे में यही एक पंक्ति मुझे हमेशा से सबसे ज़्यादा विस्मित करती आई है.

आप किसी बात की चिंता करते ही क्यों हैं, आपकी तो एक-एक बेटी दस बेटों के बराबर है.


बस बेटियों वाले परिवार में पलने का एक साइड एफेक्ट ये भी था कि इस तरह के डायलॉग हमें अक्सर सुनने पड़ जाते थे. वो ये समझने की उम्र तो थी नहीं कि सुधिजन ऐसा सांत्वना देने में कह रहे हैं या मनोबल बढ़ाने के लिए. लेकिन मैं सोच में पड़ जाया करती, चार बेटियों की जगह अगर चालीस बेटे होते तो मेरे बिचारे मां-बाप पर क्या कहर बरपता? हम तो गर्मी की छुट्टी में रिश्ते के एकाध भाइयों के घर आ जाने से मची तबाही से ही त्रस्त रहा करते. फिर दिमाग दूसरी ओर चलने लगता, दस बेटे मिलकर ऐसा क्या कर देते हैं जो उनके बराबर होने के लिए मुझे करना पड़ेगा? धृतराष्ट्र के तो सौ बेटे भी उसके लिए युद्ध जीतकर नहीं ला पाए थे.

हमारे पड़ोस में पांच जवान बेटों की मां रहा करती थी, धूप निकलने पर दो बाल्टी भर कपड़े बाहर चबूतरे पर निकाल साफ करना शुरु करतीं. सामने पड़ने पर मम्मी से हंसकर कहती, एक बेटी होती तो अकेले इतना काम नहीं करना पड़ता. फिर एक-एक कर बेटों की शादियां होती गईं. नई बहु अपने पति के कपड़े अलग से धोना शुरु करती, आंटी की बाल्टी हल्की होती गई, आखिरी बहु के आने तक किसी को घर में उनकी ज़रूरत ही नहीं बची.

एक और परिचित ने कई साल पहले अपने बेटे की मेडिकल की पढ़ाई के लिए जितने पैसे डोनेशन में दिए उतने में मय दहेज तीन लड़कियों की शादी हो जाती. नहीं जानती उनसे कोई कहने गया भी या नहीं कि उनका एक बेटा तो तीन बेटियों के बराबर का निकला. लेकिन बेटियों को बेटे के बराबर मानने का दंभ चालू है, इस बात से बेखबर कि ये डायलॉग हमारी मेंटल कंडीशनिंग की एक और जड़ परत उघाड़कर हमारे पूर्वाग्रह ग्रसित, संकुचित मानसिकता की कलई खोले जा रहा है.

जितनी बार हम बेटियों के बेटे के बराबर होने का दंभ भरते हैं दरअसल, उन्हें उनके कमतर होने का एहसास भी कराते जाते हैं. मानो हम उनसे ये कहना चाहते हैं कि सपने तो हमने बेटे के लिए संजोए थे लेकिन अब मजबूरी में तुम्हें उसका उत्तराधिकार सौंप रहे हैं. सफलता और समृद्धि का जो परचम लोगों के लिए उनके बेटे फहराते हैं समानता मिलने के बाद अब वो ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी. अच्छा होना क्या बेटों की बराबरी भर कर लेना ही होता है? और बराबरी कोई एक लकीर पर चलते रहने से ही हो जाती है? इस तरह की बातें बोल-बोलकर तो हम बेटों और बेटियों को लेकर घिसे-पिटे मानकों से पीछा छुड़ाने के बजाए उन्हें और पुख्ता किए जा रहे हैं.

बेटियों की अच्छी परवरिश का मतलब अगर उन्हें बेटा बनाकर पालना है तो ये समाज के लिए बहुत घातक चलन होने वाला है. मेरा हमेशा से ये मानना है कि बेटियों को बेटे के जैसी परवरिश देना दरअसल उनकी परवरिश में कमी करना है. एक लड़की कभी भी घर से बाहर अकेले क़दम नहीं निकालती, बाहर की दुनिया जीतती लड़कियां हमेशा अपने घर, अपने परिवार को साथ-साथ लेकर चलती हैं. इसलिए बेटियों को पालने के लिए ज़्यादा संवेदनशीलता की ज़रूरत होती है.
और सबसे अहम बात मेड टू आर्डर ना बेटा डिलीवर होता है ना बेटी, और ना ही इंसान की फितरत और चरित्र उसके लिंग से निर्धारित होता है.. इसलिए बेटे या बेटी को जन्म देना गर्व या लज्जा का नहीं जैविक प्रोबाबिलिटी का मसला है. ना उससे कुछ ज़्यादा, ना उससे कुछ कम. नवजात लड़का भी उतना ही अबोध और असहाय होता है जितना कि बेटी. आगे की बातें उनकी परवरिश के तरीके और नज़रिए से तय होती हैं.


और सौ बात की एक बात, बेटियों पर गुमान करना है तो पहले उनके बेटी होने पर गुमान करना सीखिए. 

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