Sunday, September 24, 2017

बेटियों, ख़ुद बचो, ख़ुद पढ़ो और ख़ुद के लिए लड़ो



उसने मेरे साथ छेड़खानी की.’
तुम उस वक्त वहां कर क्या रही थी?’
वो मुझे गंदी नज़रों से देख रहा था.
तो तुम्हारी नज़रें उसकी आखों की तरफ देख ही क्यों रही थी?’
वो मुझे भद्दे इशारे कर रहा था.
उसे देखने के लिए तुम वहां खड़ी क्यों थीं, सामने से हट क्यों नहीं गई?’
ये हमारी सुरक्षा का सवाल है.
हम भी उसी की बात कर रहे हैं, दुनिया के सारे ताले तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही तो बनाए गए हैं. तुम्हें उनके पीछे जाने में एतराज़ भला क्यों है?’
लड़की हो तो तुम्हारे हर बयान पर सवाल दागे ही जाएंगे, उनके जवाब देने की आदत डाल लो. तब तक,  जब तक कि सवाल खत्म ना हो जाएं, क्योंकि सवाल पूछने वाले का मकसद जवाब सुनना तो है ही नहीं, वो तो तुम्हारे चुप हो जाने का इंतज़ार कर रहा है ताकि खुद को विजेता घोषित कर सके.


जिस समाज में बलात्कार लड़कों से आवेश में हो जाने वाली मामूली ग़लती भर समझा जाता है, वहां छेड़छाड़ के विरोध में आंदोलन खड़ा करना समाज के फर्माबर्दारों को हैरत में ज़रूर डाल देगा. उन्हें इसके पीछे कोई ना कोई साज़िश ज़रूर नज़र आएगी. जिन सड़कों को वो आजतक अपनी बपौती समझ रहे थे जहां खुले सांड़ की तरह घूमकर वो लड़कियों की सुरक्षा का तथाकथित गुरुभार संभालने का दंभ भर सकें, उन सड़कों पर आत्मविश्वास के साथ घूम पाने का लड़िकयों का हौसला उनको दुराग्रह ही लगेगा. सड़कों पर आत्मविश्वास से घूमती लड़कियां उन्हें बेचैन करती हैं, क्योंकि उनके हिसाब से ये उनके अधिकार क्षेत्र में घुसने की लड़कियों की अनधिकृत चेष्टा है.

हम उस समाज में खड़े हैं जहां लड़कियों के लिए मौके का हर दरवाज़ा एहसान के साथ खोला जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वो सिर झुकाकर इस एहसान को स्वीकार करें. आज उनसे चीखकर ये कहे जाने की ज़रूरत है कि आप पहले हमारा रास्ता छोड़िए, हम अपने दरवाज़े खुद से खोलेगें, ना खुलें तो उखाड़ फेकेंगे. लेकिन अब वो कोशिश भी हमारी होगी और फैसला भी हमारा. हम आज  भी उस समाज में हैं जहां लड़कियां तभी सुरक्षित हैं जब या तो वो मर्दों की अगुवाई में रहें या फिर खुद को मर्दाना बना लें. स्त्रीत्व और आज़ादी को साथ-साथ देख पाने में अभी भी आंखें चुंधियाती हैं. समस्या लड़कियों की हो तो मसला उनकी इज़्जत से ज़्यादा परिवार, परिवेश और समाज की इज़्जत का हो जाता है, जैसे बीएचयू प्रशासन को इस समय संस्थान की गरिमा की चिंता ज़्यादा सता रही है. लड़कों से गलती हो जाती है वाली मानसिकता किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं, पीढ़ियों की कंडीशनिंग से उपजी लिजलिजी सोच है जिसका कीचड़ हर उस दिमाग में सड़ांध मार रहा है जिसे लगता है कि लड़कियों की सुरक्षा पर बहस और फैसला मर्दों की बपौती है.

बेटियों के साथ सेल्फी की अवधारणा मन को लुभाने के लिए बहुत अच्छी है, क्योंकि सेल्फियों में केवल मुस्कुराहटें नज़र आती हैं जबकि सुरक्षा और आज़ादी से जीने के लिए हंसी से ज़्यादा ज़रूरत आत्मविश्वास की होती है. आज प्रधानमंत्री का रास्ता बदला गया, कल उसी रास्ते से प्रधानमंत्री खुद वहां पहुंचेंगे. आज वीसी के कानों तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच रही एक दिन यही शोर ऐसे हज़ारो कानों को बहरा कर देगा जिन्हें आज ये सब एक राजनीतिक साज़िश लग रही है. जो प्रशासन उन पर लाठियां बरसा रहा है वो कल उनके सामने घुटने टेकेगा.


समाज कानूनों से नहीं चलता, उसे धकेल कर सही रास्ते पर ले जाना होता है. ये आंदोलन समाज के लिए ज़रूरी उन सैकड़ों धक्कों में से एक है. इसकी परिणति मंज़िल से दूर भी रह जाए तो भी ये आने वाले तमाम ऐसे विरोधों के लिए ज़मीन ज़रूर पुख्ता कर रही है. क्योंकि हर ऐसा विरोध इन सामतों के अचंभे और अस्वीकार को कम करेगा और एक दिन वो इसे अपनी समस्त इंद्रियों से इसे स्वीकारने पर मजबूर हो जाएंगे. बचपन से ये सिखाया गया कि औरतों की कोई जात नहीं होती, पानी की तरह उन्हें जिस रंग में ढाला जाए, ढल जाने की समझदारी दिखानी होती है. इसलिए ये लड़ाई दलित-सवर्ण, वामपंथ-दक्षिणपंथ, अगड़ों-पिछड़ों से बहुत उपर की है. ये हर लड़की की लड़ाई है. वक्ती ज़रूरत इसे बस उन मौकापरस्तों से बचाने की है जो किसी भी मुद्दे को अपने पाले में घसीट, उसे अपने फायदे के रंग में रंग देने की कला में पारंगत हैं. ज़रूरी है कि आरोपों-प्रत्यारोपों की पुनरावृति में असल मसले को दफन नहीं होने दिया जाए.  

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