छोटी सी थी, पांच-छह साल की. दादी के साथ सटी
रहती. वो बहुत कम बोलतीं लेकिन प्यार करते करते एक सवाल बार-बार पूछतीं, "जियोगी,
मरोगी या हुकुर-हुकुर करोगी." मैं सोच में पड़ जाती. मरने का सवाल तो खैर था ही
नहीं, लेकिन जीने का मतलब रोज़-रोज़ स्कूल जाना, वापस आकर होमवर्क करना. बहुत
सोच-विचारकर भी मैं हर बार लगभग एक ही जवाब देती, हुकुर-हुकुर करब. वो हंस पड़तीं,
धुर बतहिया कहकर प्यार करने लग पड़तीं. उस उम्र तक ये नहीं पता था कि हर सुबह उठकर
जीने का फैसला हमें खुद ही लेना पड़ता है वरना जब तक जिंदगी के हक में होता है वो
हमें हुकुर-हुकुर करते रहने का ही विकल्प देती है.
मौत कोई नहीं चुनता इसलिए चुनने के अधिकार मौत ने
अपने पास रख लिए हैं. मरण सागर के पार किसी को नज़र नहीं आता इसलिए हर कोई उस
दृश्य को अपने हिसाब से गढ़ लेता है.
दादाजी, रिटायर होकर गांव चले गए, अपने ढेर सारे हमउम्र
सगे-चचेरे भाइयों के बीच. हर साल सर्दियों में बिस्तर पकड़े बड़े भाइयों से ठिठोली
करते, “बस किसी
तरह ये माघ-पूस निकाल लीजिए, वर्ना आप तो चले जाएंगे घाट की आग पर अपनी हड्डियां
सेंकने बाल मुंड़वा कर मैं पूरी सर्दी सिर पर ठंढ झेलता रहूंगा.” अपने परम मित्र से
तो खैर दिन-रात उनकी शर्त लगा ही करती कि कौन किसके श्राद्ध का भोज खाएगा. टोकने
पर वो हंसने लगते, “अभी
तुम्हारी समझ में नहीं आएगा बुढ़ापे में मौत को लेकर हंसी मज़ाक करते रहना चाहिए,
डर कम हो जाता है.” मैं
उनका चेहरा देखने लग जाती. क्या सचमुच उम्र के आस-पास भटकती मौत साथ आने का
निर्देश देने से पहले आंखों में आंखे डालने की हिम्मत दे देती है?
नानी ने अपनी ज़िंदगी के आखिरी महीने मां के साथ
रहकर बिताए. मां अपना सारा काम छोड़ उनका हाथ पकड़कर बैठी रहती, उनसे बातें करती
रहती. उन दिनों नानी ने कई बार मां से पूछा, “अगर तुम्हारे घर पर मेरे प्राण निकले तो
तुम्हें डर तो नहीं लगेगा.” फिर एक रोज़ उन्होनें अपने घर जाना चाहा. दो
रातें अपने घर में बिताकर दूसरी सुबह अपने कमरे में, अपने पलंग पर उन्होंने आखिरी
सांस ली. कैसे जाहिर करती होगी मौत अपनी इच्छा? मौत क्या केवल आदेश देती है या बहलाना
फुसलाना भी जानती है? क्या
मौत भी किसी की आखिरी इच्छा जानने का धैर्य रखती होगी?
जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी आता है जब समय का
पहिया दोगुने वेग से घूमने लग पड़ता है. दादा-दादी, नाना-नानी जब तक होते हैं अपने
मां-बाप का बचपन भी किसी ना किसी रुप में हमारे सामने होता है. उनको विदा देना
अपने माता-पिता को भी उम्र के हवाले कर देने जैसा होता है. वर्ना बचपन तो हमारा
इसी गुमान में बीतता जाता है कि हमारे मां-बाप कभी बूढ़े नहीं हो सकते.
नानी के जाने के बाद हम उनसे ज़्यादा इस बात के
लिए रोए कि उनके बिना मां कैसे रहेगी. मां ने खुद को समझा लिया, मां किसी की कभीं
नहीं जाती, हमेशा आस-पास ही रहती है. यादें, मौत की पसीजी मुट्ठियों से निकल पड़ी
नेमतें हैं या शायद मौत का छोड़ा वो मासूम सा डंक जिसकी टीस कभी नहीं जाती. जाने
वाला कुछ भी लेकर नहीं जाता फिर भी रहने वाला अपने ही सोच कर रोता है.
श्मशान में क्रिया-क्रम करवाने वाले महापात्र
ब्राह्मण के घर का चूल्हा चिताओं की आग़ से जलता है. श्राद्ध के समय विचलित
परिजनों को मृतक के नाम पर भावुक कर अपनी पोटली भरना उनकी सिद्धहस्ता है. मां
बताती है, पहले जब
भी महापात्र ब्राह्मण की पत्नी डोली में बैठकर गांव के अंदर आया करती, सुहागिनों
में उसकी मांग काजल से भरने की होड़ मच जाती. वो ख़ुद को घूंघट में छुपाती जाती और
अपनी मांग की लाली बचाए रखने को बेचैन सुहागिनें अपने हिस्से के अपशकुन उसके हवाले
करती जातीं. मृत्यु अपने आमंत्रण को इस तरह एक पाले से दूसरे में ढकेले जाने का भी
भरपूर आनंद लेती होगी, चुनाव का अधिकार तो वैसे भी अंतत: उसके पास ही होता है.
बचपन से सुना, सच में जीना उन्हें ही आता है जो
हर रोज़ मौत की आंखों में आखें डालने की हिम्मत रखते हैं. कोई कुछ भी कह ले मौत से
ज़्यादा हिम्मती और कोई नहीं. जाने कैसे मासूम बच्चों की आंखों में देखकर भी
उन्हें साथ ले जाने की हिम्मत कर पाती है.
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