कुछ साल पहले एक पढ़ी लिखी लड़की की कहानी सुनी
थी. प्यार और आत्मविश्वास से पली, मां-बाप ने धूम-धड़ाके से शादी की. कुछ ही
महीनों में पति ने बिना किसी वजह के छोड़ दिया. मान-मनौवल, बीच-बचाव की सारी
कोशिशें नाकाम हुईं. पड़ोस और समाज की सारी संवेदनाएं भी ‘बिचारी’ लड़की के साथ थीं जो अब मायके में रहकर
अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही थी. कुछ सालों के इंतज़ार के बाद लड़की
का धैर्य जवाब दे गया, माता-पिता की सहमति से उसने अदालत में तलाक की अर्ज़ी दे
दी. पत्नी की ओर से भेजा गया कानूनी नोटिस लड़के वालों के नाग के फन से फुंफकारते
अहम पर ठेस था. उन्होंने उसका जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझा. साल भर बात लड़की
को इसी बिना पर तलाक मिल गया. परिवार ने खुशी-खुशी उसकी पसंद के लड़के से उसका घर दोबारा
बसाने की तैयारियां शुरु कर दी.
क्या इसे सुखांत समझा जाए?
परिवार के एक साहसिक कदम ने लड़की को लेकर समाज
का रुख नकारात्मक बना दिया. कल तक जो लोग उसकी बेचारगी पर सहानुभूति के फूल चढ़ाते
थे आज वही “ये तो
पहले से ऐसी थी, तभी इसके साथ ऐसा हुआ होगा” कहकर सारी संवेदनाएं ‘बेचारे पहले पति’ पर उड़ेलने लग गए.
पुराने ससुराल वालों ने भी अपनी तरफ से चरित्र हनन में कोई कसर नहीं छोड़ी. उसने
बताया कि कैसे चरित्र के छीछालेदर के वे दिन उसके लिए पति से परित्यक्त रहने के सालों
से ज़्यादा यातनाप्रद बन गए थे.
दरअसल, हमारे समाज की संवेदनाएं इसी
मिस्प्लेसमेंट के ताने-बाने के इर्द-गिर्द बुनी गई है. औरतों के दामन में दाग़ गिनने
के अभ्यस्त लोगों के लिए परित्यक्तता शब्द का दाग शायद आज़ादी की इच्छा से कम गहरा
है. इसलिए हम पति द्वारा छोड़ी गई औरत की बेचारगी का समर्थन करते हैं लेकिन अपनी
बेबसी को ताक पर रख अपनी आज़ादी और अपना आत्मविश्वास ढूंढ पाने का हौसला रखने वाली
औरतों के साहस से घबरा जाते हैं.
आज सामाजिक न्याय की उसी चौखट पर कोलकाता की इशरत
जहां खड़ी है. इशरत उन पांच मुस्लिम औरतों में एक हैं जिन्होंने तीन तलाक के विरोध
में अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था. इशरत ने आज राज्य सरकार से अपनी सुरक्षा की
गुहार लगाई है. उसका ससुराल, उसके पड़ोसी सब उसकी ख़ून के प्यासे हुए पड़े हैं. सामाजिक
लड़ाई में एक मर्द को हरा पाने जैसे अपराध का खामियाज़ा वो अपने चरित्र हनन की
कीमत पर अदा कर रही है.
तीन तलाक आज की हेडलाइन नहीं है. इस मुद्दे पर
दो-एक रोज़ ठहरकर सामाजिक विमर्श आगे निकल चुका है. इस दौरान औरतों को 1400 सालों
की गुलामी से मिली आज़ादी पर बधाईयां बांटी गई, इस ऐतिहासिक फैसले के क्रेडिट की
बंदर-बांट की गई और सच्चा लोकतंत्र होने के मद में खुद की पीठ भी थपथपा ली गई.
लेकिन इस लड़ाई की सूत्रधार इशरत एक बार फिर अपनी लड़ाई में वैसी ही अकेली है जैसी
वो तब थी जब उसने फोन पर मिले तलाक के खिलाफ अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था.
समाज हमेशा से इंसान की जीत के साथ ऐसा ही अन्याय
करता आया है. व्यक्तिगत इकाई के लिए समाज केवल ताने देने या तालियां बजाने का
ज़रिया नहीं होता. समाज की असल भूमिका अदालती फैसले के बाद शुरु होती है. उस फैसले
को अपनी सहज सहमति देने की, उससे उपजे बदलाव का खुले दिल से स्वागत करने की.
कोई भी समाज दो पढ़े-लिखे व्यस्कों को उनकी
मर्ज़ी के बिना शादी के रिश्ते में बंधे रहने को बाध्य नहीं कर सकता. पति-पत्नी के
अधिकार और ज़िम्मेदारियां जितनी ही संतुलित होंगी, उनके बीच असहमतियों के बीज उतनी
ही आसानी से उगेंगे. विकसित देशों में तलाक की दर इसलिए भी ज़्यादा है. लेकिन वहां
तलाक औरतों के लिए असगंति से उपजा एक फैसला है, बेचारगी का सबब नहीं.
हमारे समाज की परिपक्वता इस बात से जज की जाएगी कि
आज या आज के कई दशक बाद भी पति से अलग हुई औरत की आत्मनिर्भरता को कितनी सहजता से स्वीकार करता है,. तब
तक सर्वोच्च अदालत के फैसले को सही मायने में अमली जामा पहनने का इंतज़ार करना
होगा.
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