Wednesday, February 24, 2016

क्या ये अंतर नहीं?


पिता बीमार हैं, बेटी को लग रहा है कि उनकी देखभाल ठीक तरह से नहीं हो रही, उन्हें अपने घर लाना चाहती है, लेकिन डरती है, उसके घर अगर कोई ऊंच-नीच हो गई तो भाई क्या कहेंगे। होने को तो कुछ वहां भी हो सकता है लेकिन वो तो उनके घर का मामला होगा ना।

पढ़े-लिखे आधुनिक ख्यालातों वाले परिवार में पली उस लड़की को सपने देखने से किसी ने नहीं रोका। उसे हर वो सुख-सुविधा दी गई जो उसके भाई को मिली, पढ़ने की, खेलने-कूदने की, अपना करियर चुनने की, अपना जीवनसाथी चुनने की। मां-बाप ने ये भी पहले ही जता दिया है कि उनकी संपत्ति का आधा हिस्सा बेटी का होगा। बच्चों को पालने का ये आदर्श तरीका है जिसे पूरे समाज के लिए अनुकरणीय माना जाना चाहिए।


मां-बाप अब वृद्ध हैं, देखभाल की ज़रूरत हैं, इसलिए बेटे के साथ रहते हैं। बीमार पड़ते हैं तो सारी भाग-दौड़ की ज़िम्मेदारी बेटे की होती है, खर्चे उसके हिस्से आते हैं। सूचना पाकर बेटी भी भागी आती है, लेकिन उसका आना उसकी मर्ज़ी है, ज़िम्मेदारी नहीं। वो अपने मां-बाप के लिए कुछ खर्च करना चाहे तो उन्हे मंज़ूर नहीं, उसके घर जाकर ज़्यादा दिन रहना भी उन्हें गंवारा नहीं।

बचपन में अपनी चॉकलेटों और किताबों समेत हर सुख-दुख बहन के साथ बांटने वाला बेटा अब अपनी ज़िम्मेदारियां बहन के साथ नहीं बांट सकता, क्योंकि मां-बाप को ये अपने घर का मामला लगता है और वो अपनी गृहस्थी और परिवार के झमेलों में फंसी बेटी को और परेशान नहीं करना चाहते। वो कहीं और व्यस्त हो तो भी मां-बाप को समय नहीं दे पाने को लेकर अपराधबोध से भर जाता है। सिर्फ महंगी शिक्षा को संस्कार मान लिया जाए तो उसमें पली कई बेटियां इसे भी अपना अधिकार मानकर ठाठ से दोनों हाथों के लड्डू खाती हैं। लेकिन जिन बेटियों को सच में अच्छे संस्कार दिए गए हैं वो मां-बाप के इस रवैये से ज़रूर क्षुब्ध हो जाती हैं।
मां-बाप हमारे घर आकर रहना नहीं चाहते, रहते भी हैं तो मेहमानों की तरह, क्या हम संतान नहीं उनकी?
ऐसा लगता है शादी करके एकदम से पराया कर दिया हमें, यही करना था तो ऊंची शिक्षा क्यूं दी, कम से कम इतना सोचते तो नहीं इस बारे में।

बचपन में सुना था अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। बड़े होने पर भी पढ़ा, सौ साल पहले फ्रेंच माइनिंग इंजीनियर हेनरी फेयोल ने जो प्रबंधन के सिद्धांत (Principals Of Management) की चौदह सूक्तियां लिखीं, जो आज भी मैनेजमेंट का बाइबल है, इसमें भी अधिकार और ज़िम्मेदारी ‘Authority and Responsibility’ को एक साथ रखा गया है। इसलिए जब तक ज़िम्मेदारी नहीं दी, जब तक अधिकारों का कोई महत्व नहीं। कर्तव्य नहीं तो बराबरी का अधिकार भी आधा-अधूरा सा है, और आधे-अधूरे सिक्के खोटे होते हैं।

मां-बाप समझकर खुश हैं कि ऐसी शिक्षा और संस्कार देकर वो दोनों धर्म निभा रहे हैं, आधुनिक भी और पारंपरिक भी। लेकिन नहीं जानते कि जिन बेटियों को अपने फैसले खुद लेना सिखाया उनके साथ गलत कर रहे हैं। ये भी नहीं समझते कि ये अन्याय उस खुद्दार, आत्मनिर्भर बेटी के साथ भी है जो ऐसे ही स्वतंत्र माहौल से आकर उनके घर की बहू बनी है और उनका ये रवैया उसे पूरे हक से अपने मां-बाप की सेवा करने से रोक रहा है।


क्या बेटियों से ये बात कहने का समय नहीं आ गया कि बराबरी का ज़माना है इसलिए हमारा सबकुछ तुम्हारा और इसके साथ हमारी ज़िम्मेदारियां भी तुम्हारी। अगर ऐसा समय नहीं आया तो हम समय से बहुत पीछे चल रहे हैं। उस समय तक समय से पीछे चलते रहेंगे जबतक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर लड़कियां भी इस बात पर भी गर्व करती रहेंगी कि मायके से कोई भी आ जाए तो भी हमारे पति कुछ नहीं कहते।

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