मामूली परिचय के
आधार पर उनके यहां पहली बार जाना हुआ था। लिविंग रूम के एक कोने में बेहद कलात्मक
से उस शेल्फ पर अंग्रेज़ी की तत्कालीन बेस्ट सेलर किताबें सलीके से रखी थीं।
किताबें मुझे त्वरित मुखर बनाती हैं, औपचारिकता की कई सीढ़ियां एक साथ फर्लांग मैं
चिहुंकने लगी।
“कोईलो की ‘द विनर स्टैंड्स अलोन’ इतनी डिप्रेसिंग है, मुझे
तो कोई खास पसंद नहीं आई। कोईलो की लिखी मेरी पसंदीदा किताब वैसे भी ‘वेरोनिका डिसाइड्स टू डाई’ है, ‘ऐल्केमिस्ट’ नहीं।“
“ख़ालिद हुसैनी की ‘अ थाऊज़ैंड स्प्लेनंडिड
सन्स’ के बाद ये दूसरी किताब थोड़ी रिपीडेट सी है, आपका क्या ख्याल है?”
“लोलैंड वास्तव में झुम्पा लाहिड़ी की पहले की
किताबों के मुकाबले काफी मैच्योर लेखन है।“
“ये चेतन भगत किताबें लिखता ही क्यूं है, सीधे
फिल्मों की पटकथा ही लिखे ना, क्यों?”
गृहस्वामिनी ने घबरा
कर गेंद पति के पाले में फेंकी, ‘मैं नहीं ये पढ़ते हैं।‘
मित्र सचमुच सज्जन
थे, ताबड़तोड़ इन्क्वायरी के आगे तुरंत हाथ खड़े कर दिए, बड़ी विनम्रता से
मुस्कुराते हुए कहने लगे “ज्यादा सीरियसली नहीं पढ़ता, ट्रैवेल के दौरान कुछ ‘बेस्ट सेलर्स’ उठा लाता हूं, समय मिला तो
एकाध पन्ना पलट लिया।“
मैंने किताबों की ओर
ध्यान से देखा, पन्ने वाकई पलटे हुए नहीं लग रहे थे। बाद में ऐसे कई और घरों में
जाना हुआ जहां ऐसी सजी-संवरी किताबों को देखकर अपनी मुखरता और उत्साह को काबू में
रख लिया। इन परिचयों ने अंग्रेज़ी साहित्य के अर्थशास्त्र के एक और पहलू से रूबरू
कराया, बहुत सारे घरों में अंग्रेज़ी की बेस्टसेलिंग किताबें, शेल्फ पर सजे महंगे
क्रिस्टल्स और बार में लटके बेल्जियन कट ग्लासेज़ का पूरक भी होती हैं। गृहस्वामियों
के इंटेलेक्चुअल स्पेस को भरती हुई, उनके लिटरेरी टेस्ट का डंका बजाती हुई। ये वो
स्पेस है जहां लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ सद्भाव से रहती दिख सकती हैं। बेस्टसेलिंग
किताबों के अर्थशास्त्र में इन सजावटी प्रतियों का योगदान कितना है ये आंकड़ा तो
उपलब्ध नहीं, लेकिन ज्यादातर भाषाई किताबों को ये गौरव हासिल नहीं ये तय है।
मॉल के बाहर उसकी
स्टॉल लगी थी। किताबें बेच ही नहीं रहा था बंदा, उनकी अच्छी जानकारी भी रखता था। ‘वर्जीनिया वुल्फ’ और ‘आयन रैंड’ को माई फेवरिट, माई फेवरिट
कहकर बेचता वो लंबे वालों वाला 24-25 साल का लड़का बेहद भावुक हो गया जब उससे
हिंदी की किताबों के बारे में पूछा।
“हिंदी की, कौन सी? प्रेमचंद और शरतचंद की? जो बोलोगे ला दूंगा।“
इससे मिलती-जुलती
बात पहले भी एक और परिचित ने भी पूछी थी, “आपको नॉवेल्स पढ़ने का शौक है ना।“
“जी उपन्यास भी”, मैंने मज़ाक किया।
“उपन्यास मतलब प्रेमचंद की किताबें?”
मैं निरुत्तर रह गई।
नोएडा के सबसे पॉश
बाज़ार, सेक्टर 18 और आस-पास पिछले दो-तीन सालों में किताबों की गिनी-चुनी अच्छी
दुकानें अब गहनों की लकदक स्टोर्स में तब्दील हो चुकी हैं।
ऐसे में उम्मीद के
आखिरी ठौर ‘ओम बुक शॉप’ के सेल्समैन ने बड़े आश्चर्य से देखा जब मैंने उससे बच्चों के लिए हिंदी की
किताब मांगी।
‘जेरेनिमो स्टिलटन’, ‘रोअल्ड डाल’ और ‘डेविड विलियम्स’ की सैकड़ों प्रतियों के बीच उसने असहायता से कोने में सकुचाई
हिंदी सेक्शन की ओर इशारा किया।
‘ये तो बड़ों की किताबे हैं, बच्चों के लिए क्या?’
‘जो हैं बस यहीं है मैडम, नहीं तो प्रेमचंद की
किताबें ले लीजिए, बच्चे भी पढ़ लेंगे उनको।‘
हम्म।
जी अभी भी प्रासंगिक
हैं प्रेमचंद की कहानियां और किरदार, आगे भी रहेंगे, लेकिन नए साहित्य की ज़रूरत
इससे खत्म नहीं हो जाती। लिखा नहीं गया ये भी पूर्ण सच नहीं। लिखा हुआ कितना पढ़ा
गया ये प्रश्न है। लिखा हुआ कहां-कहां पहुंचाया गया ये ज़्यादा बड़ा प्रश्न है।
लेखकों की शिकायत है
पाठक नहीं हैं और पाठकों को अच्छा लिखा नहीं मिल रहा। गूढ़ अर्थशास्त्र में इसे ‘सर्च एंड मैचिंग थ्योरी’ कहते हैं। इस विषय पर हुए
शोध को नोबल पुरस्कार से भी नवाज़ा गया है। वैसे हिंदी साहित्य में ‘अर्थ’ और ‘बाज़ार’ जैसे शब्दों को अच्छी नज़र
से देखा नहीं जाता...फिर भी।
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