Thursday, June 28, 2018

स्वयंसिद्धा- 4



हम आठ साल बाद मिले हैं, मुझे देखकर वो मुस्कुराते हुए कहती है, आ गइला नैहरा. मैं हँसने लगती हूं, अब यही मेरा स्थाई मायका है. पापा की ट्रांसफर वाली नौकरी में हर दो-तीन साल में बदलते घरों के बाद हम सबके लिए ठहराव का वक्त आया है. उसके सांवले चेहरे का पानी अब भी वैसा ही है, बस गाल खूब भर गए हैं. पेट आगे को निकल गया है, वो आँचल से उसे ढकते हुए फिर मुस्कुराती है, एतना साल में घर के काम करई के आदत छूट गेल रहो, फल के ठेला लगावत रहलियो, ईंटा के भट्टी पर काम करलियो, तेही से (इतने सालों में घर में काम करने की आदत छूट गई है, फल का ठेला लगाया, ईंट की भट्टी पर काम किया, इसलिए). इतना तो देखकर भी पता लगता है, अब घर के कामों में उसके हाथों में पहले सी चपलता नहीं है, पोंछा करते हुए हांफने लगती है, बस खाना मन लगाकर बनाती है. फिर भी इस घर से आए बुलावे को टाला नहीं जा सकता. इसलिए जब इतने सालों बाद मां-पापा की गाड़ी एकदम से उसके सामने रुकी तो बिना किसी सवाल के उनके साथ बैठकर चली आई. वो जानती है इस शहर में अपना घर बनाते वक्त मां को कहीं ये तसल्ली भी थी कि घर वो ही संभाल लिया करेगी. यूं भी शहर में जब से वापस आना हुआ, उसे ढूंढने की कोशिश लगातार की जाती रही. पता चला अपने पति का घर वो कई साल पहले छोड़कर जा चुकी है.

कपड़े उतार कर तालाब में नहाने की उम्र में ब्याह हुआ था, 14 साल की होकर ससुराल आई तो उसकी मां ने इकलौती लाडली बेटी से वादा किया था कि जिस रोज़ एक शाम भी भूखे रहने की नौबत आई, उसे अपने पास बुला लेगी. फिर उसने कई बरस तक एक-एक शाम का खाना खाकर निकाल लिया, मां को कभी भनक नहीं लगने दी. शाम के वक्त पाव भर चावल में पांच लोगों के पेट का जुगाड़ ढूंढती, उसमें जो बच रहता उससे अपना पेट भरती. जब बच्चों के लिए भी खाना कम पड़ने लगा तो लोगों के घर काम ढूंढना शुरु किया. एक मुश्किल सुबह मेरी मां को ये ऐसे ही घर के बाहर मिली, उसी दिन से दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया. जिस दिन मां-पापा ने शहर छोड़ा, पुराने बर्तनों, कपड़ों और फर्नीचर से उसका घर भर दिया. दोनों के पास यही एक तसल्ली थी. लेकिन यकायक सम्पन्न हो गई अपनी गृहस्थी को भी उसने एक दिन अचानक छोड़ दिया. उसे पति की बेकारी और बेजारी तो भी कुबूल थी लेकिन नशा करने के बाद उसकी बदतमीज़ी के साथ गुज़ारा करना एक दिन के लिए भी मंज़ूर नहीं था.

मायके में चार भाइयों को बहन का घर से बाहर काम करना पसंद नहीं आया, उसे घर बिठाकर खिलाना चाहते थे. इसने लेकिन सबको बरज दिया, तोहर भात साथे तोहर बात के सुनतौ, कालि के तोहर कनियो बात सुनेतो, हम अप्पन घरवाला के नई सुनलियौ त तोहर कईसे सुनबो(तुम्हारे भात के साथ तुम्हारी बात कौन सुनेगा, कल को तुम्हारी बीवी भी बात सुनाएगी, मैंने अपने घरवाले की नहीं सुनी तो तुम्हारी कैसे सुनूंगी). बच्चों को स्कूल में डालकर वो निकल पड़ी, जिस रोज़ जो काम मिल गया कर लेती, तिनका-तिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी जमाई, मायके के गांव में ज़मीन ख़रीदा, उस में अपना घर बनवाया. मां का नया घर देखने से पहले उसने पहले उन्हें अपना नया घर दिखाया था, एक कमरे का, रसोई और आंगन वाला, आगे-पीछे खुली ज़मीन वाला. इसके बगल में एक और नया घर बनाने की कवायद भी शुरु है. टायलेट भी बन रहा है. बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी, मकैनिक की ट्रेनिंग पूरी कर चुका है, इतने दिनों में इसने उसका बिज़नेस शुरु करने लायक पैसे भी जुटा लिए हैं. बेटी स्कूल जाती है.

उसके छोटे संसार में हर ओर खुशी है. और अब तो उसकी माय (मां) समान मालकिन भी आ गई है. जिसके लिए वो शहर के दूसरे छोर पर अपने मायके वाले गांव से एक ओर एक घंटे का सफर तय करके भी रोज़ आ सकती है.  वो मां को उनकी लापरवाही के लिए डांट भी सकती है, उन लोगों पर आंखें भी तरेर सकती है जिन पर उसे मां-पापा को ठगने का अंदेशा है. उसे पता है ये वो घर है जहां भूख लगने पर वो सबसे पहले परोस कर खाना खा सकती है, बैठकर पोंछा लगाने में दिक्कत हो तो उसके लिए पोंछे की नई मशीन खरीदी जा सकती है.

उसकी आंखें पहले से ज़्यादा चमकदार हैं. बात-बात पर हँसती है, कहानियाँ सुनाने का उसका अंदाज़ निराला है, उसके साथ हम भी हँसते हैं.
आदमी कहां है अब तुम्हारा?’
जिंदे छियउ, खायी छियउ, पियई छियउ, पड़ल रहई छियउ, घरि के याद पड़ई छियउ त आबि जाई छियउ (ज़िंदा है, खा-पीकर पड़ा रहता है, घर की याद आती है तो आ जाता है)
अब क्यों आता है तुम्हारे पास?’
भूख लगते त कुकुर और कहां जतई(भूख लगने पर कुत्ता और कहां जाएगा)', वो ठठा कर हँसती है
उसे छोड़कर दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती तुम
छोड़ि त देबे करले छियई, शादी कर के की होतई, दू गो बच्चा होई गेलई, आब मरद के हमे की करबई( छोड़ तो दिया ही है, लेकिन शादी करके क्या होगा, दो बच्चे हो गए, अब मैं मर्द का क्या करूंगी), उसे ये बोलने से पहले सोचने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी.

ठेस खायी औरत को मर्द की ज़रूरत नहीं होती, औरत जिस रोज़ खुद से प्यार करना सीख लेती है, अपने लिए भरपूर मर्द भी खुद ही बन जाती है.

मेरे वापस आने का दिन आ गया है, वो गांव से मेरे लिए ताज़ा कटहल उठा लाई है. मां के हाथ की कटहल की सब्ज़ी और बड़े मेरी कमज़ोरी है ये उसे याद है. अब हम हर साल मिलेंगे, मुझे राहत है कि अब मां को लेकर हमारी चिंता थोड़ी कम होगी.

उसे लेकिन बस एक बात परेशान करती है बार-बार. जब कभी पीकर उसका पति उसके नए घर पहुंचकर हंगामा खड़ा करता है तो उसके भाइयों के हाथों खूब पिटकर जाता है. हमें पूरी संजीदगी से ये बात बताते-बताते वो फिर से ठठाकर हंसने लगती है. उसके साथ-साथ हम भी.

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