फिर यमराज, सत्यवान के अंगुष्ठ मात्र प्राण को
लेकर दक्षिण दिशा को बढ़ चले, सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी. उनसे धर्मयुक्त
वचन कहती जाती और बदले में एक-एक वरदान के रूप में अपने श्वसुरकुल और पितृकुल के
सभी कष्ट दूर करती जाती. आखिरी वरदान उसने सौ पुत्रों की मां बनने का मांगा,
तथास्तु कहते ही यमराज को सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े. वट सावित्री की कथा
सावित्री और सत्यवान के दीर्घकाल तक राज्य और संतान सुख भोगने के साथ समाप्त होती
है. काश ज़िंदगियों में भी कथा-कहानियों सी सरलता हुआ करती. कथा के बाहर की
सावित्रियों को यमराज ना इतना मान देते हैं ना इतनी मोहलत.
यूं भी इस कहानी का पहला अध्याय इसके बहुत पहले एक
दूसरे शहर में शुरु हुआ था, सदी भी दूसरी ही थी.
18-19 की उम्र कैसी होती है? स्कूल पूरा कर
बंदिशों के पीछे छूट जाने की, कॉलेज के बेफिक्र सालों के इंतज़ार के महीनों में
यूं ही खेल-खेल में बेकरी का एक छोटा कोर्स पूरा कर लेने की. उसके अगले कुछ सालों
को बादलों के पंख लग जाते हैं जैसे. किताबें हज़ार-हज़ार बाहें फैलाएं हर वक्त
अपने आगोश में क़ैद किए रहती हैं. शेक्सपीयर के जटिल पात्रों की एक-एक परत को उघाड़
कर हर बार कुछ नया ढूंढ पाने की, कीट्स के ओड और वर्ड्सवर्थ के बलाड में
डूब जाने की चाहत के आगे दिल कुछ और सोचना भी नहीं चाहता. किताबें सीने से लगाए
चांद के डूबने तक भी पलकें भी नहीं झपकाने के साल इतने ख़ूबसूरत होते हैं कि वक्त
की कदमताल बदल जाने की भनक भी नहीं लगती. बादलों की सवारी में बड़े धोखे हैं क्योंकि
हक़कीत की पथरीली ज़मीन पर मां की वो असाध्य बीमारी छह महीने की मोहलत में ही सब
कुछ ख़त्म कर डालती है. फिर सारी बेफिक्री फुटमैट के नीचे बुहार देनी होती हैं,
साहित्य तब भी मज़बूती से हाथ थामे रहता है. घर की तमाम ज़िम्मेदारियों की संभाल
के बीच भी क़िताबें अपने इश्क का हक़ अदा कर जाती हैं. अंग्रेज़ी साहित्य में एमए
का रिज़ल्ट जब आता है तो यूनिवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में नाम सबसे उपर नज़र आता
है.
फिर एक घर को सहेजते-सहेजते बारी आ जाती है दूसरे
घर को संवारने की. वो घर जहां प्रवेश करते वक्त चावल से भरे पात्र को पैर के
स्पर्श से अंदर की ओर गिराती, संकोच की लाल गठरी बनी लड़की से अपेक्षा होती है
अपनी पीठ पीछे का सब भुलाकर अंदर आने की. नए घर के रिवाज़ अलग-ज़िम्मेदारियां नईं.
इस बार क़िताबें और डिग्रियां संदूक की तलहटी में छुपी अपने वक्त का इंतज़ार करते
हैं. उनके उपर की धूल कई साल बाद झाड़ी जाती है, स्कूली बच्चों को पढ़ाने की नौकरी
के वक्त. विषय पर पकड़ और बच्चों के बीच लोकप्रियता इतनी कि जल्दी ही देश के सबसे
बड़े स्कूलों में एक से बुलावा आता है, तीन गुनी तनख्वाह पर. गृहस्थी तिनका-तिनका
जोड़ी जा रही है, हर ओर खुशियां बिखरी हैं. इतना सुख कि इस बार लबालब प्याला छलकता
नहीं, दरक जाता है. ताप से झुलसी उंगलियां दरार रोकने को तड़पने लग जाती हैं वापस
से.
जिस बीमारी ने एक बार दंश दिया था उसने कलेवर बदल
लिया है. शराब को कभी हाथ नहीं लगाने वाले पति को लीवर सिरोसिस डायग्नोज़ हुआ,
जिसने कभी बिना मोहलत मां को छीन लिया था. इस बार कितनी मोहलत है पता नहीं. दिन और
रात का अंतर फिर मिट गया. दिन अस्पतालों और डॉक्टरों की अनवरत भागदौड़ में बीतते
और रातें आशंकाओं के बीच.
इसी बीच स्कूल में हफ्ते भर के लिए बेकरी की
क्लास लेने की ज़िम्मेदारी औचक मिल गई और यूं मिली कि सालों पहले किए छोटे से
कोर्स ने संभावनाओं की सभी सीमाएं तोड़ डालीं. दिल को यकीन नहीं हुआ कि हाथों ने
उस हुनर को अब तक साध रखा है. ये काम साहित्य पढ़ाने से थोड़ा कम वक्त लेता, बचा
वक्त अस्पतालों को दिया जा सकता था.
इधर समय के साथ ज़िंदगी की रेस जारी थी. लीवर
ट्रांस्प्लांट के लिए डोनर ढूंढने में निकला हर दिन आंशकाओं को प्रबल करता जाता. कभी
आधी रात की बेचैनी रसोई की ओर मोड़ देती तो कभी एक नए रिपोर्ट में बदतर होती स्थिति
का दर्द उंगलियों से रिसता और स्वाद बनकर पिघल जाता केक, पेस्ट्री, कप केकों के
अलग-अलग फ्लेवरों में. दर्द बढ़ता गया, हाथ सधता गया. घर में जो कुछ बनता
दोस्तों-पड़ोसियों में बांट दिया जाता, घरवालों की जीभ पर डॉक्टरी हिदायत की सख्त
पहरेदारी थी. ज़्यादा वक्त नहीं लगा, कई जगहों से ऑर्डर आने लगे. जो एक बार चखता
बड़ी दुकानों से ऑर्डर देना भूल जाता. बढ़ते काम को संभालने वाला कोई नहीं था,
डॉक्टरों के पास भागमभाग बढ़ती जा रही थी. कई बार ख़ुद के हाथ पीछे खींचने पड़
जाते.
कई बार डोनर मिलता, लाखों ख़र्च कर टेस्ट कराए
जाते और आख़िरी वक्त में कोई कमी निकल आती. एक समय वक्त ने घुटने टेकने पर लगभग मजबूर कर
दिया था. पति ने हाथ थाम कर कह दिया, “सब छोड़ देते हैं, जितना वक्त है उसी में जीने की
कोशिश करते हैं.” वो रात
शायद सबसे भारी थी, सुबह तकिया हर बार से ज़्यादा गीला. आत्मा की पुकार दूर तक गई
होगी क्योंकि जवाब सात समन्दर पार से आया और डोनर हफ्ते भर बाद की फ्लाइट से. सारे
टेस्ट पॉज़िटिव निकले. ऑपरेशन की तारीख तय की गई.
सावित्री को तो पति के जीवन के साथ उसका राज-पाट
भी वापस मिल गया था लेकिन मेडिकल साइंस जब किसी सत्यवान को यमराज के पाश से मुक्त कराता
है तो उसके एवज़ में तिजोरियां तो क्या सालों से पैसा-पैसा जोड़ी गईं गुल्लकें भी
खाली करा डालता है. बैंक-बैलेंस, इंश्योरेंस, गहनों के साथ क्राउड फंडिंग का सहारा
भी मिला. ज़रूरत अपने और पराए का फर्क मिटा देती है. वक्त ने सारी दुनिया में फैले
दोस्तों को पास ला दिया, कई देशों में पैसे इकट्ठा करने की कोशिशें हुई. साल का
पहला हफ्ता खुशखबरी लाया. ऑपरेशन सफल हुआ और सफल हुई कई-कई सालों की तपस्या. चढ़ाई
खत्म हुई लेकिन ढलान पर भी फिसलन कम नहीं. लाखों का खर्च और महीनों की तीमारदारी
अब भी बाक़ी है. लेकिन रातों की बेचैनियां अब उतनी तीक्ष्ण नहीं रहीं, नींद में
सपनों की वापसी भी होने लग गई है.
मैंने दर्द में डूबे दिनों के हाथों का स्वाद कई
बार चखा है. गुड़गांव आने के बाद शायद ही कहीं और से केक ख़रीदा हो. सर्जरी के बाद
के महीनों में बेसब्री से उनके मैसेज के आने का इंतज़ार किया है और बेकिंग शुरु
होते ही पहला ऑर्डर भी दिया है. इस बार की मिठास ज़बान से कभी नहीं उतरेगी. अब
जितनी बार उनकी रसोई में केक के अलग-अलग फ्लेवर तैरेंगे नए सपने पूरा करने की एक और
ईंट रखी जाएगी. अपना घर बनाने का सपना, बेटे के सुरक्षित भविष्य का सपना,
सालों-साल तक के साथ का सपना.
उसके पहले एक वेबसाइट बनेगा, ऑर्डर बिना किसी
अड़चन के लिए जाएंगे.
“मैं मार्केटिंग में बिल्कुल भी अच्छी नहीं”, वो हंसने लगती हैं
“आपके हुनर को उसकी ज़्यादा ज़रूरत भी नहीं”, मैं उन्हें
आश्वस्त करती हूं.
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