‘बनाने वाले से बेचने वाला ज़्यादा बड़ा होता है’, ये आज के दौर का
सबसे गूढ़ सत्य है अतएव इस पंक्ति को इक्कीसवीं सदी का वेदवाक्य माना जाए. जिसने
इसका मर्म और इससे जुड़े कर्म, दोनों सीख लिए उसने अरमानों और आकांक्षाओं से भरी
सांसारिक वैतरणी पार करने का अचूक उपाय पा लिया समझो.
बड़े होते समय एक फिल्म देखी थी जिसे देखना हमारी
पीढ़ी में बड़ा होने के लिए ज़रूरी समझा गया था. रिचर्ड गियर और जूलिया रॉबर्ट्स
की ‘प्रीटि
वुमन’. फिल्म
में रिचर्ड का किरदार एडवर्ड बिज़नेस टायकून होता है. वो घाटे में चल रही कंपनियों को कम क़ीमत
पर ख़रीदकर, उन्हें टुकड़ों में बांट ऊंची क़ीमत पर बेचता और मुनाफा कमाता है. जूलिया
पेशे से कॉलगर्ल है कुछ दिनों के लिए एडवर्ड की गर्लफ्रेंड बनने का नाटक कर रही है
ताकि उसके साथ बिजनेस मीटिंग्स में जा सके. एक दृश्य में वो रिचर्ड से उसके
बिज़नेस के बारे में जानना चाहती है और जवाब सुनकर आश्चर्य से पूछती है, “मतलब तुम बस बेचते
हो, कुछ बनाते नहीं?” वो
फिल्म थी इसलिए वो सवाल रिचर्ड की ज़िंदगी बदलने वाला साबित होता है और आखिर में
वो ख़ुद को बेचने से बनाने वाले में तब्दील कर लेता है. लेकिन असल ज़िंदगी में जिसने
बेचने की कला सीख ली उसके लिए बेचने का लोभ छोड़ पाना इतना आसान नहीं होता.
मेरे जैसे यथार्थपरक लोग इसलिए मंटो में ज़्यादा
यकीन रखते हैं. मंटो की एक कहानी (नाम याद नहीं) में विभाजन के बाद चार नाई एक
ख़ाली पड़े सैलून में अपना धंधा शुरु करते हैं. एक बेघर इंसान उनसे दुकान के पीछे
रहने की इजाज़त मांगता है. बदले में उनका बहीखाता संभालने की ज़िम्मेदारी ले लेता
है. कुछ महीनों में वो उन सबका मैनेजर और चारों नाई उसके वेतनभोगी मुलाजिम बन जाते
हैं.
बेचने वालों का प्रभामंडल है ही ऐसा, रास्ता
दिखाने के नाम पर आंखें ऐसी चुंधिया देता है कि बनाने वाले बिचारे उसी के दिए
अंधेपन के निकलने के लिए उसी के हाथों का सहारा लेने को मजबूर हो जाते हैं. बनाने
वाले की त्रासदी ये है कि वो बनाने की नैसर्गिक क्रिया में ही इतना सुख पा लेता
हैं कि उससे उपर उठकर कभी सोच ही नहीं पाता. तिसपर बेचने वाला उसे सतत् आश्वासन
देता रहता है कि वो अपनी कला पर ध्यान लगाए, ये सारी निकृष्ट सांसारिक
ज़िम्मेदारियां उसके लिए छोड़ दे. ये निकृष्ट सांसारिक ज़िम्मेदारी दरअसल वो शेषनाग
है जिसकी फुंफकार बनाने वाले पर पड़ती है और सेज बेचने वाले के लिए तैयार रहती है.
चूंकि समय कभी एक सा नहीं रहता समय के साथ समझदार
होते जाना पीढ़ियों का क्रमविकास (evolution) पूरी तरह वैज्ञानिक है इसलिए अब हर कोई बस
बेचना सीखना चाहता है. चारदीवारी के भीतर जिनके हिस्से भविष्य को बनाने
की जिम्मेदारी थी वो अब उस कमरे की सीटें बेचने का काम कर रहे हैं. चौथा खंभा तो
कब से अपनी दुकान के बाहर “हम विज्ञापनों के व्यापार में हैं” का बोर्ड लगाकर
बैठा है. लोकतंत्र जितना खुद से बिक सकता था बिका, अब उससे आगे के लिए स्पेशलिस्ट
काम पर लगा दिए गए हैं.
आम जनता बेचने के चातुर्दिक चमत्कार को साष्टांग
होकर स्वीकार कर चुकी है. इसलिए बेचने का कारोबार सिखाने वाली दुकाने गली-गली खुल
चुकी हैं. जिसे देखो सदी की इस महानतम कला को आत्मसात करने में लगा हुआ है. आधे
कलात्मक और आधे सांसारिक इन इंसानों ने डार्विन के सिद्धांत को उस चोटी पर पहुंचा
दिया है जहां से केवल उतार ही उतार बचता है.
बेचने और बिकने के बीच कोई विभाजक रेखा बची ही
नहीं. एक ही समय पर हर कोई बेचने और बिकने दोनों क्रियाओं के लिए बाज़ार में खड़ा
है. इस हद तक कि ये समझ पाना मुश्किल कि कौन किसको बेच रहा है.
एक दिन इस दुनिया में केवल बेचने वाले रह जाएंगे,
बनाने वाला कोई नहीं बचेगा देख लेना.
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