23-24 की उम्र, स्टेट बैंक में पीओ की नौकरी और पहले
प्यार से शादी पर परिवार की स्वीकृति. एक परिकथा सी पृष्ठभूमि, कायदे से कहानी को
शुरु होने से पहले ही ख़त्म हो जाना चाहिए था. चाशनी में सराबोर कहानियां यूं भी कहां
पढ़ी जाती हैं नकारात्मकता के अतिरेक में ऊब-डूब रहे इस दौर में. फिर भी इस कहानी
का कहा जाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि संघर्ष की कहानियां उन औरतों की ही नहीं होतीं
जिन्हें पतियों ने छोड़ दिया, ससुराल वालों ने प्रताड़ित किया या फिर बदकिस्मती ने
सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया.
उन औरतों का क्या जिन्हें समाज अपने मानकों के
हिसाब से सुखी-सम्पन्न होने के तमगे दे डालता है और उनसे उस सुख के लबालब छलकते
प्याले को ताउम्र संभालकर रखने की उम्मीद की जाती है? फिर मान लिया जाता है कि उनके पास अपने
लिए कोई और सपना हो ही नहीं सकता. सामाजिक स्वीकार्यता के धागे से बंधी उन लाल
पारिवारिक क़िताबों में जाने कितने सपने हर रोज़ सहमकर दम तोड़ देते हैं.
यूं भी हर समय की बेहतरीन कहानियां वहां शुरु
होती हैं जहां उन्हें सुखांत में ख़त्म हो जाना चाहिए.
क्योंकि शादी होती है तो परिवार बनता है,परिवार
पूरा करने लिए बच्चे ज़रूरी होते हैं और नौकरी, पति, घर और बच्चे को साथ-साथ
संभालती औरत को गढ़ पाना तो कहानियों में भी मुश्किल होता है. छह महीने की बेटी को
छोड़ नौकरी पर दोबारा जाना प्यार का सबसे बड़ा इम्तहान था. प्यार जीता, करियर ने
घुटने टेक दिए. पीओ की डिग्री हमेशा के लिए शून्य में तब्दील हो गई. जबतक दूसरी
बेटी आई और स्कूल जाने लायक हुई, सरकारी नौकरियों की उम्र निकल चुकी थी. क़ायदे से
अब उसे गृहस्थी की संकरी पगडंडी पर चलते जाना चाहिए था, एक छोटे, सुखी, सम्पन्न
परिवार के सुख-दुख का ख्याल रखते हुए, पति के करियर और तरक्की में अपनी खुशी
ढूंढते हुए, बहुत हुआ तो छोटी-मोटी नौकरी करते हुए. लेकिन क़िस्मत ने सरल रास्ता
उसके लिए चुना ही कहां था. बिना किसी योजना के गर्भ में इस बार किसी और के आने की
आहट हुई. पता चला एक नहीं दो जोड़ी क़दमों की आमद थी.
अब?
पोस्टरों वाले सुखी परिवार के पोट्रेट का क्या?
“वो अपनी जगह, कुछ फैसले ईश्वर लेता है हमारे लिए. जो
बाहर आ गए वो जान से ज़्यादा अज़ीज और जो गर्भनाल से जुड़े हैं उनका....? माएं तो हर बच्चे
के लिए एक सा सोचती हैं. ये बच्चे नहीं चाहिए ऐसा ख्याल भी मन में नहीं आया.” इस बार बहन अपने
साथ भाई भी ले आई.
घर दोनों की किलकारियों से गूंजता कि क़िस्मत ने
एक ओर की झोली ख़ाली कर दी. छोटी सी बीमारी आनन-फानन में पिता को ले गई, जिन्होंने
ख़ुद पर विश्वास करना सिखाया था उनके जाने पर विश्वास कर पाने में महीनों कम पड़
गए. कुछ ऐसे कि बच्चों पर भी ध्यान नहीं रह पाता. गहरे अवसाद से बचने के लिए पढ़ाई
शुरु करने की सलाह दी गई. एमबीए की तैयारी शुरु की. वो भी इस तरह कि कई बार कोचिंग
क्लास छोड़कर घर दौड़ना पड़ा क्योंकि बच्चे रोने लग पड़े या फिर बर्तन धोने वाली
नहीं आई. साल भर के भीतर उसने वो कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी, शायद
उसे भी नहीं. 99 प्रतिशतक अंक लेकर कैट की परीक्षा पास कर ली. आईआईएम में एडमिशन
लिया और ख़ुद से 12-14 साल छोटे लड़के-लड़कियों के साथ दो साल की दुरुह पढ़ाई के
लिए तैयार हो गई. पढ़ाई दूसरे शहर में होनी थी. पति का प्रोत्साहन तो था ही इस बार
बच्चों की ज़िम्मेदारी भी मां ने ले ली थी, उन्हें अपने अकस्मात अकेलेपन को भरने
के मासूम बहाने मिल गए थे. लेकिन उसकी चुनौतियां बदस्तूर थीं. मां होना जितना कठिन
है, माओं को जज करना उतना ही आसान.
उसने ख़ुद को दो अदालतों के कठघरे में खड़ा पाया.
बेटे के लिए तीन बेटियों को जन्म देने वाली मां परिष्कृत समाज की दृष्टि में हेय
थी और चार छोटे बच्चों को छोड़, दोबारा पढ़ाई और करियर की बात करने वाली मां के
लिए पारंपरिक समाज के पास केवल तिरस्कार था. शुक्र है कैंपस में मिले युवा साथियों
ने उसे कभी जज नहीं किया, टीम प्रोजेक्ट हो या कोई प्रेज़ेन्टेशन, ऊर्जा से भरे वो
लड़के-लड़कियां हर मोड़ पर हाथ पकड़कर साथ लिए चलते. उसे लगा इतने साल जो गृहस्थी
को दिए उन छूटे सालों को भी कैंपस में आकर जी लिया उसने.
उसने ख़ुद को खांचो में बांटकर रहना सीख लिया, पढ़ते
वक्त मां को उतारकर आलमारी में बंद कर देती. फिर हर महीने स्पेशल पर्मीशन लेकर घर
भागती, चारों बच्चों को समेट कर दो-एक रात उनके साथ बिताने. उसके लिए केवल कपड़े
पैक होते, महत्वाकांक्षा हॉस्टल के कमरे में छोड़ दी जाती. फिर सुबह-सुबह की फ्लाइट पकड़कर कैंपस वापस आना
होता. कभी बड़ी बेटी दीवार पर ‘ममा प्लीज़ कम होम’ लिखकर इंतज़ार करती तो कभी बेटा मां को
उतारे गाउन को छाती से लगा सीढ़ियों पर बैठा रहता.
‘कैसे कर पाई तुम ये सब, आधी नींद सोना, आधी रात
जगना, हर रोज़ नई आईडेंटिटी के साथ जीना?’
‘बेटियों के लिए. कल को ये तीनों ये सोचकर ना बड़ी
हों कि मांओं का काम घर में रहना होता है या फिर पढ़ी-लिखी होकर भी औरतों के लिए
नौकरी छोड़ना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए.’
जब प्लेसमेंट का समय आया तो उसने जी कड़ा कर
लिया, वो बातें दोहराई जानी थीं जो उसे दो साल पहले सुनाई गईं. ख़ुद को बेहद
मॉडर्न कहने वाला मल्टीनेशनल कॉर्पोरेट कल्चर भी दरअसल अंदर से उतना ही खोखला है.
उसने एक बार नहीं, कई बार सुना, फैमिली के लिए एक बार अगर आप नौकरी छोड़ चुके हैं
और चार-चार बच्चों की ज़िम्मेदारी अभी भी आप पर है तो नौकरी के ग्राफ में आपकी
स्थिति हाशिए पर एक डॉट के समान होती है. “ज़्यादातर कंपनियों के इंटरव्यू में बैठने नहीं
दिया गया. कुछ मौके हालात ने छीन लिए. जिस रोज़ जेपी मॉर्गन कैंपस प्लेसमेंट के
लिए आई थी मैं बेटे को लेकर हॉस्पीटल में थी. कैंपस में मैं आख़िरी थी जिसे
प्लेसमेंट मिली.”
बहुत सारा संघर्ष और कुछ दे ना दे, अपने अस्तित्व
से रूहानी प्यार करना ज़रूर सिखा देता है.
“मैंने मंज़िल से नहीं उस दूरी को अहमियत देना
शुरु कर दिया है जो मैंने इतने सालों में नापी. कुछ बड़े ऑफरों को ठुकराकर अपने
शहर वाली नौकरी चुनी. इन दिनों ज़िंदगी के सबसे ख़ूबसूरत दिन बिता रही हूं, अपने
बच्चों और अपनी कामयाबी दोनों के साथ”
समाज कमज़ोर याद्दाश्त वाले बहरे और चीखते लोगों
का हुज़ूम है, अभी किसी और मां को नाप-तौलकर नंबर देने में लगा होगा, लेकिन मुझे उसके
उन सपनों की परवाह है जिन्होंने एक रोज़ साकार होने की उम्मीद में अपनी सांसें बचा
रखी होंगी. कुछ और तो नहीं बाक़ी पूरा करने को?
उसकी
दमदार आवाज़ में खनकती हंसी की घंटियां गूंज गई हैं, “कुछ छोटे सपने अभी भी बाक़ी हैं, अपनी
पेंटिंग्स की प्रदर्शनी, अपने अनुभवों पर एक क़िताब. कौन जाने, कर ही डालूं कभी”
तो मेरा
यहीं रुक जाना बनता है, इस इंतज़ार में कि किसी रोज़ उसकी कहानी विस्तार से उसकी
कलम ख़ुद कह डालेगी.
किसी
रोज़.....आमीन.
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