Saturday, February 24, 2018

उजाले अपनी यादों के...



रोनाल्ड रेगन अमेरिका के सबसे ताकतवर और लोकप्रिय राष्ट्रपतियों में रहे. टैक्स और महंगाई की दर में कमी के लिए,उनके फैसलों को आज भी रेगैनोमिक्सके नाम से जाना जाता है. राष्ट्रपति बनने से पहले वे हॉलीवुड अभिनेता और एक्टर यूनियन के अध्यक्ष भी थे. लेकिन व्हाइट हाउस छोड़ने के कुछ ही साल बाद रेगन में अल्ज़ाइमर्स के लक्षण दिखाई दिए. जब रोग उनके उपर हावी होने लगा तो उनकी पत्नी उन्हें लेकर एक तरह से हाउस अरेस्ट हो गईं. डॉक्टरों, परिवार के लोगों और कुछ करीबी दोस्तों के अलावा किसी और को अपने चेहते राजनेता मिलने की इजाज़त नहीं थी. अपने जीवन के आखिरी दस साल रेगन को पूरी तरह सार्वजनिक जीवन से दूर रखा गया. अमेरिकी जनता को साल 2004 के जून  महीने में सीधा उनकी मौत की सूचना ही मिली. उनके देहांत के बाद पूर्व फर्स्ट लेडी नैंसी रेगन ने एक बयान में कहा कि वो नहीं चाहती थीं कि पूरा देश अपने चहेते नेता को असहाय और बीमार के तौर पर याद रखे. शायद रेगन भी अपने लिए ऐसा नहीं चाहते.

लोकप्रियता का वही शिखर स्थान भारत में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को मिला है. स्ट्रोक ने उन्हें भी लगभग एक दशक से सार्वजनिक जीवन से दूर रखा है. जिनके शब्द और शब्दों के बीच की लंबी, सोची-समझी चुप्पी भी करोड़ों तालियां बटोर लाती थीं आज वो आवाज़ लंबे समय से खामोश है. गिने-चुने लोगों को ही उनसे मिलने की अनुमति है. दो साल पहले जब उन्हें भारत रत्न दिया गया तो समारोह से मीडिया को पूरी तरह दूर रखा गया. सरकार ने जो आधिकारिक तस्वीर जारी की उसमें भी कैमरे का एंगल कुछ यूं रखा गया कि ट्रे के पीछे से लोग अपने चहेते नेता का आधा चेहरा ही देख पाएं.

इन दिनों मशहूर शायर बशीर बद्र का वीडियो सोशल मीडिया पर बड़ी तादाद में देखा जा रहा है. बशीर साहब ने हाल ही में 83 साल पूरे किए. जो आवाज़ रात-रात भर चलने वाले मुशायरों में कभी खत्म नहीं होने वाली तालियों की गड़गड़ाहट का सबब बनती थी आज वो लड़खड़ा गई है. व्हील चेयर पर बैठे वो अपनी की पंक्तियां याद करने की कोशिश करते हैं फिर नाकाम हो बच्चों सी मासूमियत से हंस पड़ते हैं. इन्द्रियां शिथिल हो रही हैं, फिर भी उनके मुंह में माइक ठूंस उनसे बुलवाने की लगातार कोशिश ने मन को जुगुप्सा से भर दिया. लाख कोशिश करें, अब उनका दिल तोड़ने वाला यही रूप याद रह जाएगा. उनकी नज़्में, उनकी दमदार आवाज़ और आवाज़ की वो कशिश सब पर बेचारगी सी हावी हो गई है. अपने कलाकारों को कभी भरपूर इज़्ज़त नहीं देने वाले हम उनकी एक अच्छी याद भी सहेज कर नहीं रख सकते? 

बुढ़ापे और बीमारियों का इंसान के साथ अपना अलग बहीखाता चलता है. क्रियाशीलता के दिनों की उसकी उपलब्धियां और रुतबा उनपर कोई प्रभाव नहीं डाल पातीं. उन्हें नहीं जानना कौन, कहां, कितनी शोहरत और दौलत छोड़ आया है. उन्हें बस उसके जीतेजी अपना हिसाब पूरा करना है.

अक्सर हम अपने अधिनायकों से कुछ इस कदर जुड़ जाते हैं कि उनसे जुड़ी हर जानकारी को हासिल करना अपना अधिकार समझने लगते हैं. उस वक्त ये भी भूल जाते हैं कि ज़िंदगी की विद्रूपताओं में उनका हिस्सा भी है जो उन्हें ही उनके जीवन के हर प्रकोष्ठ में झांकने की धृष्टता भी उनका अपमान करना ही है.  बेहद अंतरंग और निजी क्षण, अच्छे या बुरे, केवल उनके हैं. उनकी पब्लिक इमेज से इतर, अक्सर विरोधाभासी भी. प्रशंसक या फॉलोवर होने की अपनी सीमाएं हैं, उसे लांघने की चेष्टा मनुष्य के तौर पर हमें कमतर ही बनाती है.

हम अपने आप को जिनके मुरीद बताते हैं, क्या उन्हें ये तय करने का हक भी नहीं दे सकते कि वो खुद को किस रूप में याद रखना चाहेंगे? कि उनके चले जाने के बहुत बाद भी जब भी अपनी आंखें बंद करें, गौरव और आत्मविश्वास से लबरेज़ उनका वही चेहरा हमारी आंखों के सामने आए जो हताशा के क्षणों में हमारा पाथेय बनता आया है?


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