मैं साढ़े तीन बजे अंदर घुसी, खाना बीच में ही
छोड़ वो हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं. मैंने इशारा किया कि मैं इंतज़ार कर सकती हूं
लेकिन तब तक वो हाथ पोंछकर काग़ज़-कलम उठा चुकी थीं. मेरे कुर्ते का नाप लेने के
बाद पर्ची पर मेरा नाम लिखने में उनकी कलम हिचकिचाई, मैंने अपने नाम की स्पेलिंग दो
बार दोहराई, उन्होंने तीसरी बार भी मेरी तरफ देखा.
‘आप गुरुमुखी में ही लिख दें’, मैं उनसे हंस कर
कहती हूं.
‘आपको समझ आती है?’ वो वापस मुस्कुराने लगती हैं.
‘क्या फर्क पड़ता है, आप तो समझ लेंगी. और जो
पर्ची मेरे पास है वो मेरे नाम की होगी इतना तो मुझे पता ही है’.
इस बार वो हंसने लगती हैं. मैं उनके हाथ से गलत
स्पेलिंग वाली अपनी पर्ची लेकर पर्स में रख लेती हूं.
इस बड़े से मॉल में टेलरिंग की उनकी छोटी सी
दुकान अब ठीक-ठाक जम गई है. कई साल पहले बीमार पति की कम होती आमदनी के बीच
उन्होंने इसी माल में कपड़े की दुकान पर थान काटने की नौकरी से शुरुआत की थी. एक
बार उनके साथ उस दुकान पर मैं फैब्रिक पसंद करने जा चुकी हूं.
“वो रहा मेरा काउन्टर, पांच साल हर रोज़ बारह-बारह घंटे खड़े
रहकर काम किया है यहां मैंने”, उन्होंने अंदर के कमरे में तीसरे काउन्टर की ओर
इशारा कर धीमी आवाज़ में मुझसे कहा भी था.
थान से सीधी रेखा में कपड़े काटने से शुरुआत कर
टेलरिंग का काम सीख अपनी बुटीक खोलने की हिम्मत ला पाने में लंबा वक्त लगा. अब भी
घबराहट हैं, कई बार गलतियां होती हैं. साथ काम करने वाले मास्टर अक्सर चालाकी कर
जाते हैं, उनके काम में हुई गलती का खामियाज़ा ये हमारी डांट की शक्ल में भुगतती
हैं. कितनी बार सही फिटिंग के इंतज़ार में चक्कर लगाए इनकी दुकान के. समय से कपड़े
तैयार नहीं मिले तो भी गुस्से में पैर पटकती निकल गई. फिर देर शाम, दुकान बंद होने
के बाद, तैयार कपड़ा लेकर इनके पति घर पहुंचाते हैं. दुबले-पतले सरदारजी दरवाज़े
के अंदर नहीं आते, दिन में हुई परेशानी पर खेद जताते हुए पैसे लेकर चुपचाप चले
जाते हैं.
इसके पहली बार इतना परेशान हुई कि कभी वापस नहीं
आने का एलान करके निकल गई. लेकिन माफी मांगती इनकी निश्छल हंसी हर बार निरस्त्र कर
देती है. बाकी दुकानों से पैसे भी कम नहीं लेतीं ये, सहेलियों ने इसको लेकर
बार-बार आगाह भी किया है, ‘जेब काटती है ये, तुम यूं ही ठगी जाती हो’. इतनी नई बुटीक
खुली हैं, उनको चलाने वाली चुस्त-दुरुस्त, फैशन स्कूल से पढ़ी हुई प्रोफेशलन लड़कियों के
नाम और नंबर कई बार दिए गए हैं मुझे. एकाध के पास गई भी हूं, लेकिन हर बार इनके
पास वापसी हुई है. चेहरा देखते ये उसी उत्साह से उठ खड़ी होती हैं, मुस्कुराती हुई,
‘इस बार
देखना आपको शिकायत का मौका नहीं देंगे’.
मैं विश्वास करने का नाटक करती हूं, नाप लेते
वक्त ये बेटी की नई नौकरी की कहानी सुनाती हैं, या पोलियोग्रस्त बेटे की चिंता अब
कम है, बेटा साथ में दुकान पर बैठने लगा है, काफी कुछ संभाल भी लेता है.
मैं नज़र उठाकर मास्टर की कुर्सी पर बैठे नए
चेहरे को देखती हूं,
‘पहले वाले से अच्छा है’, ये मेरी नज़र परख मुझे आश्वस्त करती हैं.
मैं उनके चेहरे को देखती हूं, विश्वास से दीप्त
है. आंखों में जुगनु चमक रहे हैं. छोटी-छोटी लड़ाइयां लंबा फासला तय करा देती हैं.
इस तय किए रास्ते के सदके, मैं यहां आना कभी बंद नहीं पाउंगी. ये बात हम दोनों को
पता चल गई है शायद, ज़ाहिर कोई नहीं करता.
‘इस बार कुछ गड़बड़ हुई तो’....मैं निकलते वक्त फिर से एलान करती हूं
‘नहीं होगी जी’....उनकी हंसी बाहर तक तैर आती है.
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