Saturday, February 10, 2018

सफरकथा: कुछ दिनों की बात


फ्रेम की हुई तस्वीर से हंसते मुस्कुराते चेहरों वाले परिवार ने घुसते ही ट्रेन के कूपे के हर कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली. मैंने अपने इकलौते सूटकेस को परे सरकाते हुए, फैले हुए पैर भी समेट लिए. आवाज़ की ठसक और माथे की चमक से अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं कि उम्रदराज़ सहयात्री लड़के की मां हैं. उनका प्रभुत्व बोगी को दीप्त किए है. तर्जनी के इशारे से वो सामान इधर-उधर रखवा रही हैं दो बेटे उनकी आज्ञापालन को तत्पर., उसमें खाना है, थैली सामने रखो, बड़ा सूटकेस उस ओर, संभाल कर, मेरा सूटकेस चप्पलों को ना छू जाए, उसमें साफ कपड़े हैं. अरे, उस बैग में तो गौरी की मूर्ति है, उसे उपर के बर्थ पर डालो, दुल्हिन साथ में रखकर सो जाएगी. मैंने कनखियों से दुल्हिन पर नज़र डाली, चटक लाल कुर्ता, गले में दुपट्टा और पैरों में बिछुए, आंखों पर वोग का चौकोर फ्रेम वाला चश्मा और लाख की चूड़ियों से भरी कलाई से झांकती राडो की घड़ी, पहनावे में काफी कुछ बेमेल. साइड बर्थ पर पैर सिकोड़े वो मूक दर्शक बनी बैठी रही, बीच-बीच में फोन पर नज़रें जमा लेती. चहुं ओर से निश्चिंत हो माताश्री की कृपा दृष्टि मुझपर पड़ी,

अकेली हो,’ सरीखे प्रश्न में उनकी भृकुटि तनी. मैंने सिर हिलाकर हामी भरी.

माताश्री का एकालाप जारी है. सूरज बड़जात्या की फिल्म सरीखे उनके वक्तव्य यूं मुझको सीधे संबोधित नहीं है लेकिन कुछ इस तरह उवाचे जा रहे हैं जिससे मेरा पात्र परिचय बिना किसी भ्रांति के सम्पन्न हो जाए. तो प्रवासी उत्तर प्रदेशी परिवार की मुंबई में पली और दिल्ली में नौकरी कर रही कायस्थ बाला का दिल अपने सहकर्मी पर आ गया जो बिहार के प्रतिष्ठित कान्यकुब्ज ब्राह्मण का बड़ा चिराग है. बेटे के हठ के सामने झुककर माताश्री ने उसकी शादी को लेकर अपने तमाम अरमानों को होम कर दिया और खानदान की इज़्जत को परे सरकाकर, पिता समेत पूरे परिवार को मना पाने का गुरुतर बोझ भी अपने उपर ले लिया.

समझना आसान था कि मां के इस एक त्याग के सामने जीवन भर की गुलामी का पट्टा लगाकर बेटा नतमस्तक हुआ पड़ा है. ये भी कि, ममता के जिस कर्ज से वो दबा पड़ा है उसका भुगतान चक्रवृद्धि ब्याज़ समेत पत्नी को करना है. तीन महीने पहले हुई शादी के बाद रिश्ते के देवर की शादी के बहाने नई बहु की ये पहली ससुराल यात्रा है जिस दौरान उसे अपने चरित्र, स्वाभाव, व्यवहार सबकी उत्कृष्टता का सर्टिफिकेट दूर-पास के हर रिश्तेदार से लेना है. बहु का आगमन त्रुटिविहीन हो इसे सुनिश्चित करने के लिए माताश्री ने स्वंय दिल्ली आकर सबको लिवा लाने की एक और ज़िम्मेदारी संभाल ली.

बेटे मां के अलग-बगल हैं और बहु मेरे बगल में. थोड़े समय बाद माताजी को बाथरुम जाना था. चप्पल शायद सामान के पीछे थी. छोटे बेटे ने खींचकर पैरों के पास रख दी. ये छोटा बड़ा आज्ञाकारी है, मुझसे पूछे बिना कभी कुछ नहीं करता, माताश्री ने गर्वोन्नत हुंकार भरी और बड़े बेटे-बहु की ओर तिर्यक दृष्टि डालकर चलती बनीं.

माताश्री के दूरभाषिक वार्तालाप ने किताब के पीछे छिपे मेरे कानों को सूचित किया कि कुछ रिश्तेदार एसी थ्री की बोगी में हैं और जल्द ही मिलने आने वाले हैं. अब हर कोई एसी टू में तो सफर नहीं कर सकता, माताश्री ने चच् वाली बेचारगी दिखाई. फिर तुरंत दुल्हिन को सिर ढंकने का आदेश हुआ, वो और सिकुड़ गई. आधे घंटे के बहु परीक्षण, नाश्ते-पानी और हो हल्ले के बाद शांति बहाल हुई. रिश्तेदारों के सामने दुपट्टा सरकने के माताश्री उलाहने के परिणामस्वरुप दुल्हिन को पति की झिड़की मिली और बेटे की इस कर्तव्यपरायणता से गद्गद माताश्री से कुछ दिनों की बात वाले जुमले की सौगात. जो प्यार कभी बराबरी का रहा होगा अब रिश्तों के तराज़ू की बंदरबांट में उपर-नीचे का हो गया.

कुछ समय बाद माताजी का मन रिश्तेदारों वाली बोगी के विज़िट का हुआ. छोटे श्रवणकुमार को लिए वो उधर निकलीं तो बड़े बेटे के चेहरे से जैसे एक नकली परत खिसकी. पहले अंडे वाले को रोककर उसने दो उबले अंडे खरीद पत्नी संग खाया. कुछ मिनट पहले माताश्री इसी फेरीवाले को अंडे की बदबू फैलाने के लिए फटकार लगा चुकी थीं. 17-18 साल का वो बालक लेकिन पक्का बिजनेसमैन था, चेहरे पर बिना कोई भाव लाए पैसे लेकर चलता बना. मैंने किताब को चेहरे से थोड़ा नीचे सरकाकर चोर दृष्टि से सामने वाले बर्थ पर देखा, मनुहार वाली मुद्रा में पतिदेव ने नई-नवेली के ईयरफोन का एक सिरा अपने कान में लगा रखा था, दोनों का हाथ परस्पर बंधे हुए.

भरोसे के इन्हीं पलों की रेज़गारी लिए उसे अगले कई दिन काटने हैं. समय कम था, मन किया ड्राइवर बाबू से कहकर एसीथ्री की उस बोगी को बाकी की ट्रेन से अलग ही करा दूं. लेकिन एसीथ्री की बदहाली पर नाक-भौं सिकोड़तीं माताश्री सशरीर उपस्थित हो ही गईं. 

अगली सुबह उनकी यात्रा मुझसे चंद घंटे पहले सम्पन्न हुई.  सबके पीछे उतरती दुल्हिन को फिर से देखने के लिए मेरी चादर चेहरे से नीचे सरकी. मन किया उसका हाथ पकड़कर बोल ही दूं, सुनो ये कुछ दिनों की बात नहीं है. ऐसा धोखा है जिसकी तुम्हें धीरे-धीरे आदत डाल दी जाएगी अच्छा हुआ नहीं बोल पाई, कुछ भ्रम देरी से टूटें तो ही अच्छा है. 

मैंने बगल में रखी खालिद हुसैनी की तीसरी किताब पर नज़र डाली,  कल शाम से अब तक दो-चार पन्ने ही आगे बढ़ पाई थी. घिसी-पिटी ही सही, जीती-जागती कहानी जब साथ हो तो बेस्टसेलर को भी नज़रअंदाज़ करने में कोई पाप नहीं. 


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