Wednesday, February 14, 2018

अर्धनारीश्वर शिव हैं सच्चे प्रेम के प्रतीक


सुंदर संयोग है कि प्रेम के दो दिन साथ-साथ मनाए जाएंगे. वैलेंटाइन डे, प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन है तो शिवरात्रि, प्रेम की परिणति का. अनादि, अनंत शिव का कैसा जन्मदिवस? उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन तो उनके विवाह का उत्सव है. शिवरात्रि दिन कुंवारी लड़कियों के लिए शिव सा पति मांगने का है तो शादी-शुदा औरतों के लिए पार्वती सा अखंड अहिबात मांगने का. समय चाहे कितना भी बदल जाए, पति या प्रेमी के तौर पर शिव की प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं होगी. चूंकि शिव सच्चे अर्थों में आधुनिक, मेट्रोसेक्सुअल पुरुषत्व के प्रतीक हैं, इसलिए हर युग में स्त्रियों के लिए काम्य रहे हैं.
शिव का प्रेम सरल है, सहज है, उसमें समर्पण के साथ सम्मान भी है. शिव प्रथम पुरुष हैं, फिर भी उनके किसी स्वरुप में पुरुषोचित अहंकार यानि मेल ईगो नहीं झलकता. सती के पिता यक्ष से अपमानित होने के बाद भी उनका मेल ईगो उनके दाम्पत्य में कड़वाहट नहीं जगाता. अपने लिए न्यौता नहीं आने पर भी सती के मायके जाने की ज़िद का शिव ने सहजता से सम्मान किया. आज के समय में भी कितने ऐसे मर्द हैं जो पत्नी के घरवालों के हाथों अपमानित होने के बाद उसका उनके पास वापस जाना सहन कर पाएंगे? शिव का पत्नी के लिए प्यार किसी तीसरे के सोचने-समझने की परवाह नहीं करता. लेकिन जब पत्नी को कोई चोट पहुंचती है तब उनके क्रोध में सृष्टि को खत्म कर देने का ताप आ जाता है.
हिंदु मान्यताएं कहती हैं कि, बेटा राम सा हो, प्रेमी कृष्ण सा लेकिन पति शिव सा होना चाहिए. पार्वती के अहिबात सा दूसरा कोई सुख नहीं विवाहिता के लिए. क्यों? क्योंकि शिव सा पति पाने के लिए केवल पार्वती ने ही तप नहीं किया, शिव ने भी शक्ति को हासिल करने लिए खुद को उतना ही तपाया.  
शक्ति के प्रति अपने प्रेम में शिव खुद को खाली कर देते हैं. कहते हैं, पार्वती का हाथ मांगने शिव, उनके पिता हिमालय के दरबार में सुनट नर्तक का रुप धर कर पहुंच गए थे. हाथों में डमरू लिए, अपने नृत्य से हिमालय को प्रसन्न कर जब शिव को कुछ मांगने को कहा गया तब उन्होंने पार्वती का हाथ उनसे मांगा.
शिव ना अपने प्रेम का हर्ष छिपाना जानते हैं, ना अपने विरह का शोक. उनका प्रेम निर्बाध और नि:संकोच है, वह मर्यादा और अमर्यादा की सामयिक और सामाजिक परिभाषा की कोई परवाह नहीं करता. अपने ही विवाह भोज में जब शिव को खाना परोसा गया तो श्वसुर हिमालय का सारा भंडार खाली करवा देने के बाद भी उनका पेट नहीं भरा. आखिरकार उनकी क्षुधा शांत करने पार्वती को ही संकोच त्याग उन्हें अपने हाथों से खिलाने बाहर आना पड़ता है. फिर पार्वती के हाथों से तीन कौर खाने के बाद ही शिव को संतुष्टि मिल गई.
यूं व्यावहारिकता के मानकों पर देखा जाए तो शिव के पास ऐसा कुछ भी नहीं जिसे देख-सुनकर ब्याह पक्का कराने वाले मां-बाप अपने बेटी के लिए ढूंढते हैं. औघड़, फक्कड़, शिव, कैलाश पर पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए एक घर तक नहीं बनवा पाए,. तप के लिए परिवार छोड़ वर्षों दूर रहने वाले शिव.  साथ के जो सेवक वो भी मित्रवत, जिनके भरण की सारी ज़िम्मेदारी माता पार्वती पर. पार्वती के पास अपनी भाभी, लक्ष्मी, की तरह एश्वर्य और समृद्धि का भी कोई अंश नहीं.
फिर भी शिव के संसर्ग में पार्वती के पास कुछ ऐसा है जिसे हासिल कर पाना आधुनिक समाज की औरतों के लिए आज भी बड़ी चुनौती है. पार्वती के पास अपने फैसले स्वयं लेने की आज़ादी है. वो अधिकार जिसके सामने दुनिया की तमाम दौलत फीकी पड़ जाए. पार्वती के हर निर्णय में शिव उनके साथ है.  पुत्र के रुप में गणेश के सृजन का फैसला पार्वती के अकेले का था, वो भी तब, जब शिव तपस्या में लीन थे. लेकिन घर लौटने पर गणेश को स्वीकार कर पाना शिव के लिए उतना ही सहज रहा, बिना कोई प्रश्न किए, बिना किसी संदेह के. पार्वती का हर निश्चय शिव को मान्य है.
शिव, अपनी पत्नी के संरक्षक नहीं, पूरक हैं. वह अपना स्वरुप पत्नी की तत्कालिक ज़रूरतों के हिसाब से निर्धारित करते हैं. पार्वती के मातृत्व रुप को शिव के पौरुष का संरक्षण है तो रौद्र रुप धर विनाश के पथ पर चली काली के चरणों तले लेट जाने में भी शिव को कोई संकोच नहीं. शिव के पौरुष में अहंकार की ज्वाला नहीं, क्षमा की शीतलता है. किसी पर विजय पाने के लिए शिव ने कभी अपने पौरुष को हथियार नहीं बनाया, कभी किसी के स्त्रीत्व का फायदा उठाकर उसका शोषण नहीं किया. शिव ने छल से कोई जीत हासिल नहीं की. शिव का जो भी निर्णय है, प्रत्यक्ष है.
वहीं दूसरी ओर शक्ति अपने आप में संपूर्ण है, अपने साथ पूरे संसार की सुरक्षा कर सकने में सक्षम. उन्हें पति का साथ अपने सम्मान और रक्षा के लिए नहीं चाहिए, प्रेम और साहचर्य के लिए चाहिए. इसलिए शिव और शक्ति का साथ बराबरी का है. पार्वती, शिव की अनुगामिनी नहीं, अर्धांगिनी हैं.  
कथाओं की मानें तो चौसर खेलने की शुरुआत शिव और पार्वती ने ही की. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि गृहस्थ जीवन में केवल कर्तव्य ही नहीं होते, स्वस्थ रिश्ते के लिए साथ बैठकर मनोरंजन और आराम के पल बिताना भी उतना ही ज़रूरी है. शिव और पार्वती का साथ सुखद गृहस्थ जीवन का अप्रतिम उदाहरण है.
अलग-अलग लोक कथाओं में शिव और शक्ति कई बार एक दूसरे से दूर हुए, लेकिन हर बार उन्होने एक दूसरे को ढूंढ कर अपनी संपूर्णता को पा लिया. इसलिए शिव और पार्वती का प्रेम हमेशा सामयिक रहेगा, स्थापित मान्यताओं को चुनौती देता हुआ. क्योंकि, शिव होने का मतलब प्रेम में बंधकर भी निर्मोही हो जाना है, शिव होने का मतलब प्रेम में आधा बंटकर भी संपूर्ण हो जाना है.





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