Saturday, January 27, 2018

टीनएज शादी के फलसफे



पहला डिस्क्लेमर तो ये कि यहां बात टीनएज में हुई शादी की नहीं विवाहोपरांत उस दौर की हो रही है जब शादी-शुदा ज़िंदगी अपने टीनएज में प्रवेश करती है. वैसे भी गुणी जन कह गए हैं कि जहां का अनुभव हो उसी ज़मीन पर अपनी कलम घिसें. और बात दरअसल ये है कि देश की 80 फीसदी शादियों की तरह हमारी शादी भी एक सोची-समझी साज़िश के तहत हुई थी. मने 600 निमंत्रण कार्ड छपवा के और 800 मेहमानों को जिमा के. हां कुंडली खोल गुण नहीं मिलाए गए थे, शायद इस उम्मीद में कि बाकी की पूरी ज़िंदगी इसी का गुणा-भाग करने में ही तो बितानी है.

यूं शादी नाम का सफर कभी इस मुकाम पर नहीं पहुंचता जब इंसान सामान सलीके से जमा कर टांगे पसार, पलके मूंदने का फैसला ले पाए. कन्फर्ट ज़ोन केवल एक मामले में मिल पाता है, युद्ध के लिए अलग से मुद्दे जुटाने नहीं पड़ते, मूड होने पर या मूड नहीं होने पर, किसी भी स्थिति में, महज़ दस सेकेंड की तैयारी में यल्गार किया जा सकता है. इस समय तक आपसी सहमति से सारे अस्त्र-शस्त्र साझा शास्त्रागार में जमा हो चुके हैं, ऐसे में ब्रह्मास्त्र उसे प्राप्त होता है जो उसकी ओर पहले हाथ बढा दे. अगले ने ज़रा सी देरी की, दांव हाथ से निकल बहीखाते में एक हार दर्ज करवा चुका होता है.

लेकिन सालों का अनुभव इतना धीरज भी सिखा देता है कि विषम परिस्थिति में भी व्याकुलता हावी नहीं होने पाती. नर हो ना निराश करो मन को, कौन सा स्कूल का इम्तिहान है जो अगले साल ही दोहराया जाएगा. इतने लंबे साथ में एक दूसरे को इस कदर आत्मसात कर चुके होते हैं कि याद ही नहीं रहता इकोसिस्टम में कौन सा अवगुण कौन लेकर आया. अवगुणों के उद्गम को लेकर ही कई लड़ाइयां यूं ही लड़ ली जाती हैं.

अब शादी कोई लोकतंत्र तो है नहीं जिसका तंबू केवल चार बंबुओं के सहारे खड़ा रह सके. इसे टिकाए रखने के लिए दोनों पक्षों के मां-बाप, भाई-भतीजे, बहन-बहनोई, मित्र-मित्राणी जैसे तमाम खूंटे खुद के ज़मींदोज़ करने की तत्परता में खड़े रहते हैं. ज़्यादातर मामलों में खूंटे ज़रूरत से इतने ज़्यादा होते हैं कि अतिरिक्त खिंचाव के मारे तंबू का फटना ही तय हो जाता है. तिस पर भी पड़ोस वाली मुंह बोली बहन या चाची के रिश्ते का वो हैंडसम भाई नुमा कोई प्रकट हो, अपना अलग बंबू खुसेड़ मुश्किल से टिके-टिकाए तंबू की ऐसी की तैसी कर सकता है.

वैसे भी स्वस्थ, सुंदर और सर्वमान्य शादियों पर ना बाज़ार का कोई सिद्धांत काम करता है ना विज्ञान का. लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न्स का यहां कोई काम नहीं. बहुत संभव है कि जब बाज़ार में उछाल हो तो आप अपनी जेब कटी पाएं और मंदी के दिनों में कोई विंड फॉल गेन हो जाए. आईंस्टाइन के सिद्धांत भी यहां फेल हो जाते हैं क्योंकि किसी मासूम से एक्शन का रिएक्शन समानुपात से दस गुना ज़्यादा भी हो सकता है. ये तो ऐसा मैथमैटिकल इक्वेशन है जिसके हेंस प्रूव्ड स्टेज पर भी कोई नया वेरिएबल आकर आपके सारे ज्ञान के ऐसी की तैसी कर सकता है और उसके बाद जाने के लिए एक ही रास्ता बचता है, बैक टू स्टेप वन विथ एडिशनल बैगेज.

और हमने तो हमारी शादी के बचपन में ही फ़ार्चून 500 कंपनियों में से एक की मल्लिका इंद्रा नूई का एक इंटरव्यू पढ़ लिया था जिसमें उन्होंने ये कहकर हमारे ज्ञान चक्षु खोल दिए कि जब तक एक औरत की शादी टीनएज में प्रवेश करती हैं तब तक उसका इकलौता अदद पति भी टीनएजर बनने का फैसला ले चुका होता है. तब से पति नामक इंसान के अंदर से किसी क्षण एक ज़िद्दी, सिरचढ़े बच्चे के बाहर कूद पड़ने की दुश्चिंता में काफी समय व्यतीत होता रहा.

अनुभव ने ज्ञानकोश में एक इज़ाफा ये भी किया कि इतिहास की तरह जोक्स भी जीतने वाला पक्ष ही लिखवाता है. हर सुबह इनबॉक्स में ठेले जाते पत्नी पीड़ित पतियों की दुखद गाथा सुनाते चुटकुलों ने इस बात पर विश्वास और पुख्ता कर दिया है.

यूं दिल छोटा करने की कोई ज़रूरत नहीं, इस देश में क्रिकेट के बाद शादी ही एक ऐसा मुद्दा है जिसके ज्ञान से लबलबाता अक्षय पात्र हर पात्र-कुपात्र के पास होता है. सो किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में नुस्खों, नसीहतों, टोटकों और दांव पेंचों का पिटारा दसो दिशाओं से प्राप्त होने लगता है.

वैसे ध्यान रहे, शादियां होमियोपैथी की गोलियों की तरह होती हैं, केवल उपर से ही एक सी दिखती हैं. अंदर का फॉर्म्यूला सबका अलग. सो सबसे ज़्यादा भरोसा अपने खुद के नुस्खे पर करें. शादी के टीनएज का सबसे बड़ा हासिल ये एक ज्ञान.    

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