Saturday, January 13, 2018

कन्यादान कब तक?



कलर्स चैनल के कार्यक्रम शनि देव में प्रसंग शनि की गंधर्व कन्या धामिनी से विवाह का था. कन्यादान की रस्म को कार्यक्रम के नायक शनि ने ये कहकर रोक दिया कि उनकी होने वाली पत्नी कोई वस्तु नहीं जिसे दान में दिया जा सके. पौराणिक कथाओं या पटकथाओं को आधुनिक दर्शकों के लिए लिखते समय उसमें सम-सामयिक विषयों और विवादों का छौंक नज़र आ जाना कोई नई बात नहीं. चर्चित कथाकार अमिष त्रिपाठी ने अपनी राम कथा के पहले भाग में दिल्ली के निर्भया गैंग रेप का सब प्लॉट शामिल किया था. सॉयन्स ऑफ इक्ष्वाकु में मंथरा की बेटी के सामूहिक बलात्कार और हत्या का प्रसंग विस्तृत तौर पर आता है. बीते कुछ सालों में बेटियों को पढ़ाने और बचाने को लेकर जनमानस की बढ़ती मुखरता के बीच स्टार प्लस ने भी अपने सीरियल सिया के राम में रामायण की कहानी को सीता के दृष्टिकोण से दिखाने की कोशिश की थी. पर्दे पर अवतृत हुए रामायण के तमाम संस्करणों में ये पहली बार था जब राम की कहानी के साथ उनकी बहन शांता की कहानी भी कही गई थी. शायद ये वजह भी हो कि अब तक दिखाई गई शनि की कहानियों में न्याय और वक्र दृष्टि के पहलुओं से थोड़ा इतर,  इस बार के कथानक में उनके वैवाहिक और गृहस्थ जीवन को रखा जाना तय किया गया हो. ऐसे में इस कथा में कन्यादान जैसी पुरातन और अनिवार्य रस्म पर प्रश्न उठा, उसे अस्वीकार करने का शनि का फैसला उनके न्यायप्रिय होने की अवधारणा को और मज़बूत करता नज़र आ रहा है.

स्त्री विमर्श से जुड़े तमाम पहलू जितने व्यापक स्तर पर मुख्यधारा के विषय बनते जाएंगे उन तमाम रीति-रिवाजों को नए सिरे से परिभाषित किया जाना भी ज़रूरी हो जाएगा जो अब तक केवल पुरातन होने के कारण पावन और पुनीत माने जाते थे. हिंदु धर्म ने परित्याग को हमेशा ही पुण्य की सर्वोच्च श्रेणी में रखा है. स्वाभाविक है भौतिक वस्तुओं से इतर, जीती जागती, जतन से पाली गई कन्या पर से अपने सारे अधिकार भूल उसका दान कर पाना, पुण्य के उत्कृष्टतम शिखर पर ही विराजमान होगा. यूं भी जो त्याग किसी से करवा लेना सहज-सरल ना हो, उसे पारलौकिक प्रलोभनों के बिना करवा पाना किसी तरह संभव नहीं. सो दान की इस विधा के तहत, अपने जीवन भर की सुरक्षा और भरण पोषण के एवज़ में कन्या किसी के परिवार की समस्त लौकिक और स्थूल ज़िम्मेदारियां अपने कंधों पर लेकर अंतिम सांस उसके निर्वाह को प्रतिबद्ध कर दी जाती है. तिस पर तुर्रा ये कि इस वचनबद्धता का पुण्य भी उसे नहीं उसे दान करने वाले को दिया जाता है. वैसे होने को ये भी हो सकता है कि पुण्य के इस आकलन के पीछे सुकन्या समृद्धि योजना के तर्ज पर ही बेटियों को जीवित बचा कर रखने जैसा कोई पुरातन समीकरण भी शामिल हो.

यूं शादी से जुड़े रीति-रिवाज़ चाहे जिस परंपरा के हों, साथ निभाने और एक घर छोड़कर, दूसरा बसाने की प्रतिबद्धता हर समाज में लड़कियां ही उठाती रही हैं. फिर विवाह सप्तपदी और मंत्रों के साथ हुआ हो या केवल वचनों को दोहराकर. बहरहाल,. हमारी शादियों में विदाई से पहले सबसे भाव विह्वल करने वाला क्षण कन्यादान का ही रहा है. बचपन से लगभग हर शादी में कन्यादान के वक्त वधु के साथ उसके बाकी परिजनों की भरी आखों ने इतनी बार खुद की आखें गीली की हैं कि अपनी शादी तक भी इस रीति को लेकर कोई प्रश्न, कोई शंका मन में नहीं आई. विरोध का तो ख़ैर सवाल ही नहीं. लेकिन जब विवेचना की उम्र आई तो इसके मूल और अर्थ में छिपे अनादर ने विचलित करना शुरु कर दिया. 

पवित्रता का जामा तो एक समय सतीत्व को भी पहना कर उसे इतना महान बना दिया गया कि उसके पीछे की वीभत्सता को समझने में सदियां खप गईं. वैधव्य की पावनता पर से भी पर्दा अब हटने लग गया है. दहेज चूंकि धन से संबद्ध है और धन कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता, इसलिए उसके जाने में इतना वक्त लग रहा है. इन सभी कुरीतियों के मुकाबले कन्यादान पितृसत्ता से जन्मी ऐसी रस्म है जिसकी बदलते परिवेश में प्रतीकात्मक ज़रूरत भी नहीं. क्योंकि इसका औरतों की आत्मनिर्भरता और सम्मान से सीधा-सीधा विरोधाभास है. अपने आत्मविश्वास और जिजिविषा के दम पर खड़ी लड़की का कोई किस हक से दान करेगा? फिर उसके भरण की हैसियत भी किसके पास? बराबरी जैसे-जैसे मज़बूत होती जाएगी, कन्यादान उतनी ही तेज़ी से अप्रासंगिक होगा. 
 
शादी में केवल साथ निभाने की प्रतिबद्धता सत्य है. बाकी सब सामयिक अनुष्ठान, जैसे प्राण के लिए देह और उसकी सज्जा का आडम्बर. और समय के साथ बदलते जाना ही रीति-रिवाज़ों और अनुष्ठानों की नियति है. समय की बात है, तमाम प्रतीकों और ताम-झाम के बावजूद एक दिन इसे भी चले जाना है. 






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