Saturday, November 25, 2017

असुरक्षित बचपन के ज़िम्मेदार हम


वॉशिंगटन के दिनों में एक शाम बच्चों को पार्क से लेकर घर लौट रही थी. डेढ़-एक साल का बेटा वापस आने को तैयार नहीं था, लिहाज़ा पूरी भारतीयता के साथ चीख-चिल्लाकर रोने लग पड़ा. एक अपरिचित अमेरिकन महिला हमारे साथ लिफ्ट से उतरी और पीछे-पीछे घर तक आ गई. दरवाज़े पर खड़ी होकर उसने विनम्रता से पूछा कि बच्चे को संभालने के लिए मुझे किसी मदद की ज़रूरत तो नहीं. चूंकि हजरत घर घुसते ही खिलौनों में उलझकर कुछ मिनट पहले की मां की शर्मिंदगी भूल चुके थे, वो मुस्कुराकर वापस चली गई. पता चला उसका घर ना केवल किसी दूसरी मंज़िल बल्कि बिल्डिंग के दूसरे ब्लॉक में है. दोस्तों से बातचीत के दौरान बाद में ये एहसास हुआ कि वो दरअसल ये जानना चाह रही थी कि मां होने के बावजूद बच्चा कहीं मेरी किसी गलती की वजह से तकलीफ में तो नहीं है या फिर ये कोई ऐसा मसला तो नहीं जिसे लेकर उसे अथॉरिटीज़ को अलर्ट करने की ज़रूरत हो. वो पड़ोसी का सामान्य शिष्टाचार ही नहीं एक सजग नागरिक का धर्म भी निभा रही थी.

अमेरिकी संस्कृति से अपनी तमाम असहमतियों के बीच वो एक घटना अभी भी एक बड़ी सीख लिए जहन में ताज़ी है. इसकी एक वजह ये भी कि अपने समाज में हम बड़ी तेज़ी से इस सजगता को भूलते जा रहे हैं. आधुनिकता की आड़ में हमने बड़ी सहूलियत से पड़ोसी धर्म को निजता के हनन का जामा पहनाकर परे कर दिया है. जबकि सच्चाई ये है कि हर वो मसला जो सचमुच निजता के हनन के दायरे में आता है चटकारे लेकर उसे जान जाने में हमारी दिलचस्पी अभी भी बरक़रार है.

अपने बच्चों को सुरक्षित बचपन देने के लिहाज़ से दुनियाभर में भारत का स्थान 116वां है. इसके पहले कि इसका ठीकरा कुपोषण, गरीबी, लौंगिक प्राथमिकताएं जैसे मसलों पर फोड़ा जाए, ये जान लेना भी ज़रूरी है कि बाल अपराध के ज़्यादातर मामले महानगरों में होते हैं.

औसत परिवारों में पत्नियों के काम करने या नहीं करने के फैसले स्त्रीवाद, स्वतंत्रता और समानता जैसे भारी-भरकम शब्दों की नियमावली के तहत नहीं लिए जाते. चूंकि हम लैंगिक समानता जैसे मुद्दों को अभी तक केवल सतही स्तर पर समझ पाए हैं, मर्दों के लिए कमाकर परिवार चलाना अभी भी उनके जीवन की प्राथमिकता है. औरतों का नौकरी करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि भौतिक सुविधाओं से लैस परिवार चलाने के लिए दो लोगों की कमाई की दरकार होती है.  इस अलावा भी औरतों की पढ़ाई-लिखाई अपने साथ केवल ज्ञान और डिग्री ही नहीं लेकर आती है, लेकर आती हैं एस्पिरेशन्स, आगे बढ़ने की लालसा. लेकिन एकल परिवारों की चलन के बीच औरतों के करियर के शीर्ष पर नौकरी छोड़ने की एक बड़ी वजह होती है बच्चों की सुरक्षा और परवरिश को लेकर उपजी समस्याएं.

अफ्रीकी कहावत है, एक बच्चे की परवरिश के लिए एक गांव की ज़रूरत होती है. समाज चाहे जितना भी आधुनिक हो जाए, सुविधाओं के लिए चाहे कितनी मशीनें और उपकरण जुटा लिए जाएं, बच्चों की परवरिश के लिए हमेशा ही प्यार, देखभाल और सुरक्षित वातावरण की ज़रूरत सबसे उपर होगी. हम मुहल्लों को छोड़ अपार्टमेंट कॉम्पलेक्स में बस गए हैं जहां एक दरवाज़ा भर बंद कर देने से दुनिया से कटा जा सकता है, जहां व्हाट्सएप पर भले ही फॉर्वर्ड किए ऊल-जलूल मैसेज बेखटके हम तक पहुंच जाएं, हमसे बिना अप्वायंटमेंट लिए कोई हमारा दरवाज़ा नहीं खटखटा सकता. बंद दरवाजों के पीछे दुनिया बसाने की हमारी इसी चाहना ने हमारे बच्चों की सुरक्षा को बिना किसी आहट के दांव पर लगा दिया है.

बचपन में पापा की तमाम मित्र पत्नियों में केवल एक वर्किंग थीं. छोटे से बच्चे को आया के पास छोड़ काम पर जातीं. पूरी दोपहर वो बच्चा तो काम वाली की निगरानी में होता लेकिन उस कामवाली के उपर पड़ोस की सभी औरतों की नजर रहा करती. शाम को घर लौटने पर उनका बेटा किसी भी घर में सुरक्षित खेलता मिल जाता था. आज हम भले ही बड़े व्यस्त होने का दंभ भरते हों, क्या ये सब कर पाना सचमुच इतना मुश्किल है?

बार-बार एक सी कहानियां कलेवर बदल कर हमारे सामने आ जाती है, हम सदमे से मुंह फाड़े अपने बच्चों को छाती से चिपकाकर ज़माने को लानत भेजते हैं और घंटे भर बाद मॉल में शॉपिंग थेरेपी के लिए चले जाते हैं. एक बार रुक कर ख़ुद से पूछ नहीं सकते कि अपने स्तर पर इसे बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?

कहीं कोई बच्चा संदिग्ध स्थिति में दिखे, हमारी ओर से एक सतर्क नज़र, व्यस्त होने का नाटक छोड़कर दो मिनट रुकने की जहमत, दो-चार सवाल पूछने की हिम्मत इससे ज़्यादा की तो दरकार भी नहीं. घर-बाहर, दफ्तर-बाज़ार, मॉल-पार्क, हर जगह बस ये सोचते हुए नहीं रहा जा सकता कि बच्चा चाहे किसी का हो, समाज और उसके भविष्य में हमारे बच्चों के बराबर का भागीदार है.

सोचकर देखिए, क्या ये सब किया जाना सचमुच इतना मुश्किल है?






No comments:

Post a Comment