जब तक ये ख़बर लगती है कि बड़ा होना चाहत नहीं
मजबूरी है, बहुत सारा वक्त पोरों से रिस चुका होता है. ज़िंदगी चाहे कितने ही
पन्ने पलट ले, पहले पन्ने की सतरें कोई नहीं भूलता. अच्छी तरह याद है पहली बार
बड़े होने की चाहना हुई थी ताकि मिलने जाने पर कॉलोनी की आंटियां स्टील की बड़ी प्लेट में बाकी बच्चों के साथ
पकड़ाने के बजाए नाश्ता अलग से सजा कर दें, जैसे मम्मी को मिलता है, बोन चाइना की
प्लेट में. बड़ा होने की जल्दी यूं भी मचती कि उन दीदियों की तरह लंबे बाल पीछे
झटक अदा से दुपट्टे को गिरा फिर लहराकर उठा सकें या कभी निचले होंठ काटकर तो कभी
छोटी से जीभ निकालकर कई तरह के अंदाज़ में बातें की जा सकें. ये दौड़-दौड़कर
पकड़म-पकड़ाई खेलने का बचकानापन तो छूटे पहले.
लेकिन हाथ में पकड़ी पेसिंल के पेन में बदलने का
दर्प जबतक अपनी जड़ें जमाता है, कद मां के कंधे को पार कर जब तक उनके कान को छूकर
निकलने लग पड़ता है, दुपट्टे की अनिवार्यता उसके बोझ लगने की शुरुआत करा चुकी होती
है. बड़े होने की जल्दी फिर भी उतनी ही तीव्र होती है. इस बार यूं कि घर के फैसलों
में हमारी भी रायशुमारी हो, मां और मौसियों की फुसफुसाती कहानियां दरवाज़े की दरार
से सुनने के बजाय सामने बैठ कर सुनी जा सकें. फिर एक समय वो सारी कहानियां आपके
साथ भी बांटी जाने लगती हैं. वक्त भी ना, कम चालें नहीं चलता, एकदम से छलांग लगाकर
वहां पहुंच जाता है जहां इन कहानियों से रिसते दर्द का बोझ उठाए नहीं उठता. अपनी
टेढ़ी चाल से वक्त जब तक बताता है कि फैसला सुना देना दुनिया का सबसे आसान काम
नहीं होता, फैसले लेने के बाद उनको उठाने की ज़िम्मेदारी से कंधे भी झुक जाया करते
हैं.
“आपके कॉलेज में पता कैसे चलता है कि टीचर कौन और
स्टूडेंट कौन?” छुटपन में अपनी मौसी को पूछा था. मौसी की
तबतक शादी हो चुकी थी और वो साड़ी और सिंदूर में कॉलेज जाया करतीं.
“अंतर होता है ना बेटा, प्रोफेसर हमसे बड़ी होती
हैं”,
उन्होंने समझा दिया.
एक बार बड़े होने के बाद और कितना बड़ा हुआ जा
सकता है, मैं सोच में पड़ गई.
एक वक्त वो भी होता है जब पचास और
साठ के बीच का फासला नज़र नहीं आता. फिर नज़र की उस मासूमियत को वक्त की नज़र लग
जाती है. बारीकियों को देख पाने की उम्र नज़र के कमज़ोर होते जाने की शुरुआत की
उम्र भी होती है. अनुभव अपने साथ अधजगी रातों की बेचैन करवटें भी लेकर आता है.
अब जैसे हर रोज़ ठहरकर वक्त अपने बीतने का एहसास
कराता है. किसी सुबह अचानक चाय की प्यालियों के पार जाती नज़र मुंह पहले से
ज़्यादा पोपला पाती है. महीने भर बाद हुई मुलाकात में नज़र जाती है हड्डियों को
छोड़कर लटक आए मांस पर. टोको तो हंसते हुए जवाब मिलता है, “तो अब क्या बचा करने को, खाली बैठकर बाकी
बची सांसे हीं तो गिननी है.” जिनके होने आश्वस्ति पर, जिनके चेहरे की चमक को
देखते अब तक की रेस में भागते चले वो अचानक यूं उदासीन हो रहे जैसे स्टेशन आने के
पहले अपना सामान समेटने की हड़बड़ी में सहयात्रियों को नज़रअंदाज़ करता मुसाफिर.
बस अब इससे ज़्यादा बड़ा नहीं होना, बड़े होने के
नाम पर सांस उखड़ रही है अब.
वक्त तो भी बेरहम है, दो पल रुक कर उन रास्तों को
देखने भी नहीं दे रहा जो पीछे छूट गईं, आगे उतना ही लंबा रास्ता पड़ा है, लेकिन ये
हिस्सा बंजर, वीरान, पथरीला. सारी हरियाली जैसे पीछे छोड़ आए हम. उम्र बढ़ने के
साथ याद्दाश्त जैसे सागर तट की रेत पर लिखी इबारत हो जाती है, ज़िम्मेदारियों का
एक रेला आया और मिटा ले गया सब.
कभी बिल्डिंग की बहुत सारी औरतों के साथ एक गेम
खेला था, कोई हाथ भर लंबी डोरी में गांठ बांधनी थी, एक मिनट में जितनी बंध सके
उतनी. मिनट भर के बाद जिसकी उंगलियां सबसे जल्दी चलीं उनसे सबको को गर्वोन्मुख
होकर देखा, बाकियों की आवेश से कांपती उंगलियां शर्म से सिमट आईं. लेकिन ठहर जाओ,
ये तो गेम का पहला हिस्सा ही रहा, आखिरी हिस्से में उतनी ही तेज़ी से गांठे वापस
से खोल सीधी डोरी वापस पकड़ानी थी. जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. कभी-कभी अपना सबकुछ
सबसे पीछे चलने वाले के नाम भी कर देती है.
गांठें किसी के साथ नहीं जातीं, सबको अपनी गांठें
यहीं खोल कर जाना है.
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