नए फैशन के तमाम दिनों की तरह फ्रेंडशिप डे भी
बाज़ार का गढ़ा हुआ, गिफ्ट ख़रीदने की बाध्यतता लेकर आया हुआ त्यौहार है. अमेरिकी
और यूरोपीय देशों में गर्मी की छुट्टी के दौरान, एक दिन दोस्ती के नाम किया गया.
यूं दिन, त्यौहार कोई सा भी हो, हिन्दुस्तान की दुकानें ज़रूर सज जाती हैं. सोचा
जाए तो इसमें ग़लत ही क्या है. दोस्ती निभाने में यूं भी हमारा कोई सानी नहीं.
कृष्ण-सुदामा की हो या दुर्योधन और कर्ण की, शेर या चूहे की हो या फिर हिरण और
कौवे की, पौराणिक कथाएं हों या जातक, दोस्ती की अनूठी मिसाल हर रूप में मिल ही
जाती है. हमारे दिल दिमाग को हर कदम पर संचालित करने वाले बॉलीवुड को भी जब-जब प्रेम
और बदले से छुट्टी मिली, दोस्ती की आंच पर कुछ ना चढ़ा देता रहा. लेकिन ध्यान रहे,
दोस्ती के ये तमाम नायाब किस्से बस एक अधाई को समर्पित हैं. बाकी की आधी आबादी को
दोस्ती के लहलहाते महासागर की तलछट भी नसीब नहीं.
दोस्ती की सारी मिसालें लड़कों की, गाने लड़कों
के, कहानियां लड़कों की, कुर्बानियां लड़कों की. दोस्ती की कसौटी भी ऐसी कि अपने
हीरो साहब को कभी दोस्ती और प्यार में एक को चुनना पड़ा तो आगे बढ़कर हाथ दोस्ती
का ही थामेंगे, प्यार को पलटकर देखेंगे भी नहीं. कभी सुना क्या किसी हिरोइन ने
दोस्त की खातिर प्यार को छोड़ दिया? जिगरी दोस्तों की दोस्ती में दरार डालने का
कुकर्म भले हर स्क्रिप्ट करवाती रहती हो उनसे.
क़िस्से कहानियां हों या गीत-गज़लें, लड़कियों की
दोस्ती को इस लायक भी ना समझा गया कि उसका कभी कोई उदाहरण यादों में सहेजा जाए. लड़कियां
चाहें तो अपनी सहेलियों संग झूला-झूल लें, मेहंदी सजा दें, चोटियां बना लें बहुत
हुआ, तो सजना की याद दिला एक-दूसरे के गालों पर चुटकी काट शर्मी की अबीर बिखेर
दें. लड़के हाथों में हाथ डाले, “यारी है ईमान मेरा, यार मेरी ज़िंदगी” का एलान करेंगे या “तोड़ेंगे दम मगर
तेरा साथ ना...” की
कसमें लेंगे. लेकिन दो सहेलियां पानी में पैर छपछपाते हुए तान भी छेड़ेंगी तो, “पिया, पिया ओ पिया,
पिया ही गाएंगी.” इधर
जैसे ही सजना जी ढोल-ताशे, गाजे-बाजे के साथ अवतरित हुए, सहेलियां गईं नेपथ्य में.
मायका छूटा तो बाक़ी रिश्तों के साथ सहेलियां भी छूटीं.
गृहस्थी की रेलम-पेल में नए सहयात्री बने पति के
मित्र और मित्र पत्नियां.
हमारे बचपन में इन दोनों रिश्तों के नाम अलग थे. पिता
की मित्र पत्नियां आंटी कहलातीं और मां की सखियां होतीं मौसी. गिनकर तीन-चार ऐसी
मौसियां याद हैं लेकिन हमारी ज़िंदगी में आंटियां असंख्य आईं. नाम से
नहीं, पति के सरनेम से याद रहने वालीं, सिन्हा आंटी, सिंह आंटी, मिश्रा आंटी. यूं मां
और आंटियों का स्वाभाव इतना तरल की पहली बार घर में घुसे तो पांच मिनट के भीतर
किचन में हाथ की कलछी छीन पूरियां तलती नज़र आएंगी, फिर अगले एक घंटे में मेज पर
खाना सजाने से लेकर एक-दूसरे की प्लेट से खाने और बर्तन समेटने के बीच ऐसी
आत्मीयता क़ायम कर लेंगी कि पता ही नहीं चलेगा किसी और के रिश्ते का सिरा पकड़कर
पहली बार घर में आई हैं. फिर भी जो बेतकल्लुफी बचपन की बेलौस दोस्ती में है वो
मजबूरी के इस गठजोड़ में कहां? लेकिन एक बार मायका क्या छूटा सहेलियों से मिलने
के सारे तार ही टूट गए. एक दूसरे के दिल के जाने कितने राज़ दिल में दफ्न कर इतनी
दूर जा बसीं कि अब मिलना तभी हो पाए जब एक ही समय पर मायके जाने का प्रोग्राम बने.
अब बीवियों की दोस्ती निभाने की ज़िम्मेदारी थोड़े ही ना पतियों पर होती है कि हर
मौके-बेमौके राज़ी हो चले हैं बीवियों को उनकी सहेलियों के शहर ले जाकर मिलवाने.
कभी उस रस्ते निकलना हुआ तो भले देखा जाए. फिर उधर वाले पति भी जाने किस स्वाभाव
के हों.
ऐसे में इस दोस्ती पर पीढ़ियों तक दोहराई जाने
वाली कहानियां बनें भी तो कैसे?
“आज ऑफिस से ज़रा जल्दी निकलना है, अपनी
गर्लफ्रेंड्स के साथ गेट-टुगेदर है, मीटिंग देम ओवर ड्रिंक्स एंड चैट दिस इवनिंग,” वॉशिंगटन में कई
साल पहले एक कलीग ने कहा था. जिस परिवेश से मैं आई थी, गर्लफ्रेंड्स-ब्वायफ्रेंड
जैसे संबोधन केवल दूसरे जेंडर के लिए रिज़र्व थे, वो भी दबी आवाज़ में, एक आंख दबा
कर. और ये तीन बच्चों की मां, शाम को घर, बच्चे, खाना, सब पति पर छोड़कर किसी क्लब
या पब में बैठी अपनी सखियों के संग बीयर पीते हुए बेलौस ठहाके लगाएगी, सरकार की
हेल्थ केयर पॉलिसी से लेकर चीन और कोरिया के साथ विदेश नीति पर बेबाकी से अपनी राय
रखेंगी, हेल्थ और फैशन के टिप्स शेयर करेगीं. मन किया तो पीठ पीछे एक दूसरे के पति
की खिंचाई से लेकर उनपर लाइन भी मार चुकी होंगी. आखिर में परिवार छोड़ अपनी टोली
के साथ एक लांग वीकएंड पर कहीं बाहर जाने का प्लान करती हुई एक दूसरे से गले लग
विदा होगी. तब तक इनके पति बच्चों को खाना खिलाकर, सुलाकर, किचन काउंटर तक साफ कर
चुके होंगे.
ऐसी वाली दोस्ती से होता है रश्क. बिल्कुल मेरा
वाला पिंक के स्टाइल में ये है दोस्ती का सही अंदाज़. सभी रिश्ते सही से अपने-अपने
खांचे में बंटे हुए, एक-दूसरे के अतिक्रमण से परे. ये नहीं कि नौकरी और गृहस्थी की
सारी ज़रूरतें पूरी करने के बाद बस मिलने को मिले, इधर-उधर की गॉसिप या इसकी-उसकी
शिकायतें निपटाईं और निकल लिए या फिर उमस भरी दुपहरिया काटने के लिए किटी पार्टी
जैसा कोई और भी बोरिंग, शान बघारू काम किया. दोस्ती में एक-दूसरे को समृद्ध करें, एक-दूसरे
की उंगली पकड़कर, सहारा देते हुए बढ़ चले. मिलने-बिछड़ने का आरोह-अवरोह नहीं हर
कदम साथ की आश्वस्ति रहे वैसी वाली दोस्ती चाहिए हमें भी.
सुनो लड़कियों, चलो एक नज़्म लिखें, अपने नाम,
अपनी दोस्ती के नाम. हमारे मन के कोने में एक हिस्सा हो नितांत हमारा, किसी जजमेंट
से परे. हमारी बातें, हमारी खिलखिलाहटें सब हमारा. एक-दूसरे का हाथ थामे निकल
पड़ें कहीं दूर. पहाड़ों की सैर करें या गलियों की खाक छाने, हमारी मर्ज़ी. जहां
किसी की जवाब मांगती नज़र ना हो हमारे साथ, हों तो बस हम और हमारे बेफिक्र, बेलौस
ठहाके. तब एक-दूसरे की आंखे में झांकते हुए कह सकेंगे हम भी, “हैप्पी फ्रेंडशिप
डे, गर्लफ्रेंड्स.”
No comments:
Post a Comment