हमारे स्कूल में क्लासमेट्स को भी भैया और दीदी
कहकर पुकारने का रिवाज़ था. पीछे की सोच शायद ये कि संबोधन की यह बाध्यता बोर्डिंग
स्कूल के कैंपस में ऐसी-वैसी घटनाएं होने से रोक ले. पूरे कानून को लागू करने का
गुरुभार प्राथमिकता से संभालने वाले गुरुजी किसी भी बात पर खुश होकर बड़ी ज़ोर की
शाबासी दिया करते. पीठ थपथपाते-थपथपाते सहलाकर ये जांच भी कर लिया करते कि किस
लड़की ने ब्रा पहनना शुरु कर दिया है. कभी मौका देखकर स्ट्रैप हल्के से खींचकर
छोड़ भी दिया करते.
ऐसा करते उन्हें कई बार स्कूल की महिला टीचर ने
देखा. गर्ल्स हॉस्टल की वार्डन होने के नाते उन्होंने बड़ी हो चुकी लड़कियों के
अपने पास बुलाया और इससे बचने के तरीके बताए. जैसे बात करते वक्त गुरुजी के बगल के
बजाए सामने खड़ा रहा जाए या उनके पास अकेले नहीं ग्रुप में जाया जाए.
दरअसल मैडम लोगों का ग़म भी बड़ी हो रही बच्चियों
से कुछ अलग ना था. एसेंबली के बाद क्लास की ओर जाते वक्त उनके पहनावे पर पुरुष
सहकर्मियों की छींटाकशी भी होती रहती थी. हमें साहित्य का रस, विज्ञान के सिद्धांत
और ज्यामिति की जटिलताएं समझाने वाले कुछ गुरुजन उनके पीछे चलते हुए उनकी ब्रा की
डिज़ाइन और ब्लाउज़ की गहराई पर गहन परिचर्चा करते नज़र आते. अपने परिवार से बहुत
दूर बोर्डिंग स्कूल में नौकरी को बाध्य वो भी तो चुप रहकर बचते-बचाने के लिए ही कंडीशन
की गई थीं.
बहरहाल, प्रतिकार की जगह बचाव की यही रणनीति
हमारी और हमसे पहले की तमाम पीढ़ियों की औरतों के लिए सबसे बड़ी त्रासदी रही है.
सड़क पर छेड़छाड़ हो रही है तो घर में रहो, घर में भी ख़तरा है तो कमरे में बंद
रहो, रिश्तेदारों से दूरी बना लो, पर्दा कर लो, शरीर को हर जगह से ढक लो. कर लिया,
सब कर के देख लिया. क्या मिला?
सहनशक्ति में कोई गरिमा नहीं है, प्रतिकार में
है. बहस ही होनी है तो विरोध के तरीके पर होनी चाहिए, उसके अस्तित्व पर नहीं.
विरोध का मतलब गाली-गलौज या चीखना-चिल्लाना ही नहीं होता. पिछले दिनों बहुत बातें
सुनीं, सवाल भी, ताने भी. बस बात करने से क्या होगा? सोशल मीडिया पर कैसी क्रांति? रातों रात तो कुछ
नहीं बदलता. सही है. लेकिन बार-बार बोलते रहने से किसी भी अनैतिक वर्जना के आस-पास
की जकड़न ढीली ज़रूर होती है. फिर एक दिन ये उतनी ही सहजता से तोड़ी भी जा सकेगी.
उस समय कोई गर्जना ना हो, भूकंप ना आए लेकिन जो बदलाव आएगा उसकी कल्पना भी आप नहीं
कर सकते.
बैड टच क्या है ये किसी बच्चे को सिखाने की
ज़रूरत नहीं होती. शरीर और मन की सरंचना ही ऐसी है कि एक हल्की सी गलत हरकत मानसिक
यांत्रणा के कई तार झकझोर देती है. ज़रूरत होती है गलत को गलत कहना सिखाने की. और
ये कह पाने के लिए परिवार में, स्कूल में, समाज में, अनुकूल परिस्थितियां बनाने
की. बच्चों की परवरिश के दौरान स्कूलों से जाने कितने वर्कशॉप्स का न्यौता आया, हर
जगह यही सिखाया गया, उनसे बात करिए, खुलकर, उन्हें हर परिस्थिति में अपनी बात कह
पाने की हिम्मत दीजिए, अगर आपका बच्चा इशारे में भी कुछ कहे तो उसे इग्नोर मत
कीजिए.
अब आदत हो गई है, बच्चे कहीं जाने में आनाकानी
करें, थोड़ा भी परेशान दिखें, ये पूछ पाने में ज़रा भी झिझक नहीं होती कि वो जिस
बात से परेशान हैं वो फिज़िकल या बैड टच से जुड़ी तो नहीं. बिल्कुल वैसे ही जैसे
पेट में दर्द या दस्त की बाबत पूछताछ की जाती है.
जो बात हमारी पीढ़ी में वर्जना थी, आज सतह पर है.
लड़के के लिए भी, लड़कियों के लिए भी. ईमानदारी से कहिए क्या इस बदलाव से आपकी
परंपराएं ध्वस्त हो जाएंगी? संस्कार ढह जाएंगे? सहज बातचीत की ये सहूलियत क्या हर लड़की
को नहीं मिलनी चाहिए?
अगर बेटी को अपनी मां से विरासत में चुप्पी मिलती
है तो ये तय है कि उसे यांत्रणा की विरासत भी ज़रूर मिलेगी. इसलिए बात करना ज़रूरी
है. वर्जनाओं को मिटाने के लिए, स्वस्थ मानसिकता वाले समाज को बनाने के लिए.
बराबरी कानून बनाने से नहीं आती, इन छोटी-छोटी बातों से आती है. वक्त लेती है,
लेकिन आती ज़रूर है.
और हां, क्लास के लड़कों को अब हम नाम से बुलाते
हैं. रिश्ता ज़्यादा सहज है, घर परिवार की बातें, हंसी मज़ाक सब खूब बेतकल्लुफी से
होती हैं.
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