पता नहीं कौन-कौन से धर्म ग्रंथ में लिखा है, कौन
से धर्म गुरु कह गए, लेकिन सामाजिक मान्यताओं की सूची में जिन बातों का ज़िक्र भी
कुफ्र माना जाता है, ‘बेटी की
कमाई’ उनमें
से एक है. पीढ़ियों की कंडीशनिंग ने बेटियों के मां-बाप के लिए अपराधबोध की जो
फेहरिस्त बनाई है, उन्हें जिन बातों पर शर्मिंदा होना सिखाया है, बेटी का कमाया धन
उसमें काफी ऊपर दर्ज है.
किसी होनहार लड़की के स्वाभिमानी माता-पिता को सरेआम
अपदस्थ करना हो तो उनसे उनकी बेटी की कमाई के इस्तेमाल के बारे में पूछ लीजिए. इस
देश में लोग अपनी दो नंबर की कमाई का प्रदर्शन भले ही छाती ठोंक कर कर लें, लेकिन
बेटी से मिले एक छोटे से तोहफे का ज़िक्र उन्हें तमाम तरह की कैफियतें ढूंढने पर
मजबूर कर देता है.
बेटे की कमाई को मेडल बनाकर दुनिया भर में उसका
प्रदर्शन करने वालों ने बेटियों की कमाई को पाप का ऐसा जामा पहना दिया है कि
बेचारे बेटियों के मां-बाप सिर उठाकर उसके बारे में कुछ बोलने की कभी हिम्मत ही
नहीं कर पाते.
“हमारे बेटे ने कार ख़रीदकर दिया है, कस्बे की
कीचड़ भरी सड़कों पर दनदना कर चलाएंगे, लोगों को पता तो चले कि हमारा इन्वेस्टमेंट
अब कैसे रिटर्न्स देने लगा है.”
“अब तो बेटा कमा रहा है हमारा जी, हम तो काम
छोड़ने के मूड में हैं, पजामे को घुटनों तक चढ़ाकर आराम से पीठ खुजाएंगे और दूसरों
की बेटियों में नुख्स निकालेंगे.”
बस बेटी की कमाई को हाथ लगाना हराम हो गया, नहीं
तो क्या अंतर रह जाएगा जी बेटे के बाप और बेटी के बाप में? मतलब फायदा क्या हुआ हमारा बेटा पैदा
करने में?
इधर सफलता की सीढ़ियां चढ़ती बेटी के मां-बाप के
हाथ इस पूरे प्रकरण में केवल चिंताएं आती हैं, ज़्यादा कमाने का मतलब उससे भी
ज़्यादा हैसियत वाला पति ढूंढकर लाना, नहीं तो समाज फिर कठघरे में ना खड़ा कर देगा?
मैंने नौकरीपेशा कुंवारी लड़कियों के माता पिता
को उसकी कमाई वाफादार मुनीम की सी तत्परता से बैंक में जमा करते देखा है, जैसे
शादी के बाद उसकी पाई-पाई का हिसाब उसके ससुराल वालों को देना उन्हें किसी किस्म
के अपराध से माफी दे देगा. बेटी की सफलता दरअसल कोयल के अंडे होते हैं, सेवे कोई
और नाम किसी और का हो.
कुछ महीने पहले तो सुप्रीम कोर्ट ने भी ये कहकर
अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी कि अपने पति को उसके बूढ़े मां-बाप की सेवा जैसे पवित्र काम से अलग करने
की क्रूरता के लिए पत्नी को तलाक देना जायज़ है. लेकिन घर बसाने के नाम पर पतियों
का अपनी पत्नियों को उनके मां-बाप से दूर करना पूरी तरह शास्त्र सम्मत है. क्योंकि
भारतीय समाज में शादी के बाद पत्नी अपने पति के परिवार का हिस्सा बन जाती है. वो ही
क्यों, उसकी डिग्रियां, उसकी उपलब्धियां, उसकी तनख्वाह, सब उस नए परिवार
की मान ली जाती हैं. बस उसकी पुरानी ज़िम्मेदारियां किसी और की नहीं हो पातीं और
ना ही उसके मां-बाप किसी और के हो पाते हैं. बेटियों के माता-पिता से ये उम्मीद की
जाती है कि वो अपनी बेटी को उनके सभी अधिकार देकर, उनकी परवरिश, उनकी पढ़ाई-लिखाई,
उनका करियर सब तरतीब से सजाकर खुद को हर तरह की उम्मीदों और अपेक्षाओं से अलगकर
विदेह बन जाएं.
बात सिर्फ मां-बाप की नहीं, जीवनसाथी की भी है,
पत्नी की कमाई ना खाना छाती ठोंकने की कौन सी वजह है पता नहीं. लेकिन, “नौकरी करने दे रहे
हैं तो ये मत समझना तुम्हारी कमाई से हमारा घर चल रहा
है” का
एलान कर अपनी मर्दानगी का सबूत देने वालों पर तरस ज़रूर आता है.
मैनेजमेंट के मूल उसूलों में से एक है मोटिवेशन,
यानि प्रेरणा. मोटिवेशन के नियम ये कहते हैं कि किसी इंसान को अच्छे काम के लिए
प्रेरित करते रहना हो तो उसे ‘एक्सप्टेंस’ यानि स्वीकृति देनी होगी. जैसे रोटी,
कपड़ा और मकान इंसान की मूलभूत भौतिक ज़रूरतें होती है वैसे ही उसकी सबसे अहम
मानसिक ज़रूरत है अपने अस्तित्व की स्वीकृति. औरतों की कमाई को स्वीकृति नहीं
देना, पंख देकर भी उसके उड़ने पर पाबंदी लगाने जैसा है. या फिर पेड़ का बीज डालकर,
सींचने, पालने के बाद लड़कियों से ये उम्मीद रखने जैसा कि बड़ी होकर वो लताओं सी
लचीली और किसी का भी सहारा लेने को तैयार हो जाएं.
वैसे जिस समाज में हम अभी भी बेटियों के बचाने और
उन्हें पढ़ाने के रास्ते ही समतल करने के स्तर पर हैं, इस तरह की समानता के अधिकार
की बातें इस समय शायद बुद्धि की विलासिता लगेंगी. जिस समाज में अभी भी बेटियों को अपने
ज़िंदा रह पाने के लिए परिवार से शुक्रगुज़ार रहने की उम्मीद की जाती है, वहां
स्त्री विमर्श को इस स्तर तक ले जाने में अभी पीढ़ियों का इंतज़ार करना होगा.
इसलिए ये उम्मीद करना कि कोई ऐसा कानून आएगा जो
बेटियों के लिए उसके मां-बाप की देखभाल और सेवा को ज़रूरी कर, उनके अधिकारों और
ज़िम्मेदारियों का पलड़ा बराबर कर देगा, अभी बड़ी दूर की कौड़ी लगती है. वैसे भी समाज
बस कानून से तो चलता नहीं. समाज चलता है अपने चलन से, पीढियों से स्वीकृत अपने कायदों
से. इसलिए कानून बदल जाने के बाद भी सामाजिक मान्यताओं को बदल पाने में पीढ़ियां
खप जाती हैं.
आज भी लाख असहमतियां होते हुए भी सामाजिकता से
बंधे बेटे के लिए अपने मां-बाप की अनदेखी
कर पाना मुश्किल है क्योंकि समाज का दवाब ही कुछ ऐसा है. लेकिन बेटियों के मामले
में ना ये दबाव है ना ऐसी कोई अपेक्षाएँ. ऐसे में उनके लिए अपने परिवार के
कर्तव्यों की आड़ में अपने माता-पिता की अवहेलना कर पाना बहुत आसान हो जाता है. कई
पढ़ी-लिखी, अपने पैरों पर खड़ी बेटियों को गर्व से कहते सुना है कि वो ‘ज़रूरत पड़ने पर’ अपने मां-बाप की
मदद कर देती हैं क्योंकि ये काम तो वैसे भी उनके बेटों का होता है. मुझे बेटियों
के माता-पिता के लिए उपजी ऐसी आत्मदया से जुगुप्सा हो जाती है.
वैसे भी संतान का केवल अपने अधिकारों के प्रति
सचेत होकर ज़िम्मेदारियों की ओर से लापरवाह रहना, उसकी अधूरी परवरिश ही दिखाता है.
अधिकारों के साथ ज़िम्मेदारियां भी बांटते चलने का संतुलन माता-पिता के लिए भी
उतना ही ज़रूरी है.
ये लेख सबसे पहले क्विंट हिंदी पर प्रकाशित हुआ था.
https://hindi.thequint.com/opinion/2017/07/28/daughter-earning-is-like-fly-without-wing
ये लेख सबसे पहले क्विंट हिंदी पर प्रकाशित हुआ था.
https://hindi.thequint.com/opinion/2017/07/28/daughter-earning-is-like-fly-without-wing
apki es post ko padhkar muje bhot accha lga aap aise he post karte rhena kyoki ap ek accha writer ho mi ka baap kaun hai
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