पीरिएड्स, स्त्रीत्व से जुड़ा इकलौता ऐसा चक्र नहीं है जिसके बारे में
हो रही फुसफुसाहट भी उंगली के इशारे भर से वर्जित कर दी जाती है. एक निषेध और है
जिसके बारे में फुसफुसाना तो दूर सोचना भी कुफ्र है.
औरतों के जीवन में वैसा समय भी आता है जब उन्हें पीरिएड्स के
मासिक चक्र से छुट्टी मिल जाती है. वो वक्त जब वो शरीर और मन दोनों में परिवर्तन
के सबसे बड़े चक्र से गुज़र रही होती हैं. लेकिन ये तो खुश होने की बात है,
आखिरकार इतने सालों से चले आ रहे पीड़ा चक्रों से इसी परिणति की उम्मीद में ही तो
गुज़रा जा रहा था. ये तो जश्न की बात है, गर्भ और उसके बाद प्रसव की पीड़ा में
छुपाने जैसा वैसे भी कुछ नहीं होता.
मातृत्व की गरिमा में डूबती-उतरती वो नौ महीने रही सबके मान-मनुहार की
केन्द्र. सौ-सौ बलाएं लेकर उसे बुरी नज़रों से दूर रखा गया. उसकी पसंद-नापसंद की
फेहरिस्त सबको कंठस्थ, उसकी एक आवाज़ पर तीमारदारी को पूरा परिवार हाथ बांधे खड़ा.
और फिर लेबर रूम में उसकी हर कराह पर बाहर कई बेचैन चहलकदमियां. उसके शरीर का दर्द
खत्म होता है शिशु के रुदन के साथ और अगले ही पल वो पाती है खुद को प्राथमिकताओं
की सूची से बाहर. अब वो सबकी मनुहार नहीं, अपेक्षाओं का केन्द्र है.
प्रसव खत्म होते ही पीड़ा खत्म नहीं हो जाती, अवसाद बनकर मांओं के मन
के किसी कोने में घुसकर बैठ जाती है और उसके बाद और किसी को भी नज़र नहीं आती.
धीरे-धीरे उसकी खुशियां खसोटती रहती है बस. मेडिकल साइंस इसे “पोस्टपार्टम डिप्रेशन” यानि “प्रसवोत्तर अवसाद” कहता
है. डिलीवरी के बाद माओं के हारमोन स्तर तेज़ी से बदलते हैं, शरीर की कमज़ोरी भी
एक झटके में खत्म नहीं होती, दूसरी ओर उनसे उम्मीद की जाती है कि वो जल्द से जल्द
नए बच्चे की सारी ज़िम्मेदारियों के साथ अपनी पुराने सारे काम भी करने लग जाए,
अवसाद यहीं से शुरु होता है. पोस्ट पार्टम डिप्रेशनके अस्तित्व को अब तक हमारी सामाजिक
संरचना सिरे से खारिज करती आई है, जबकि सच्चाई ये है कि हर छह में से एक नई मां इस
अवसाद के चरम से होकर गुज़रती है.
उसके चारों ओर खुशियां मनाई जा रही हैं, उसके अंदर से निकला अंश एक
गोद से दूसरे में किसी ट्रॉफी की तरह सेलीब्रेट किया जा रहा है और वो चीखकर हर
किसी को अपनी नज़रों से दूर कर देना चाहती हैं. वो खुद को किसी एकांत अंधेरे में
क़ैद कर लेना चाहती है, वो अपने बच्चे के अगले रोने की आवाज़ से कोसों-कोसों दूर
भाग जाना चाहती है. लेकिन उसके लिए ये कह पाना तो दूर
सोचना भी कुफ्र है. मां बच्चे को गोद में लेकर खुश नहीं है? इससे
ज़्यादा अविश्वसनीय, अनिवर्चनीय बात भी कुछ हो सकती है क्या?
तमाम विशेषणों से नवाज़कर मातृत्व को इतना दिव्य और नैसर्गिक अनुभव बना दिया गया
है कि मां के लिए ये बोल भर पाना कि बच्चे को जन्म देने के बाद उसे अवसाद हो रहा
है, वर्जनाओं के छत्ते में पत्थर मारने जैसा है.
दरअसल इस पूरे प्रकरण में एक नहीं दो वर्जनाएं हैं. एक, मां की अपने
बच्चे के प्रति उदासीनता और दूसरी, इस पीड़ा का शारीरिक नहीं, मानसिक होना. इसलिए
वो अपनी सारी पीड़ा पलंगपोश के पीछे छुपा मुस्कुराहट ओढ़ कर सभी बधाईयां बटोरेगी
और अकेले में रोने के लिए तकिए का सहारा लेगी. ये ही वो कला है जिसमें बचपन से
लेकर अब तक के अभ्यास ने उसे सिद्धहस्त कर दिया है.
लिज़, मेरी डिलीवरी के चौथे दिन मेरे कमरे में आई थी. तब तक मुझे ‘काले बालों वाले इंडियन ट्विन्स’ को देखने के लिए
दिन भर आते-जाते डॉक्टरों और नर्सों की टोलियों की आदत पड़ चुकी थी.
‘बच्चे नर्सरी में हैं’, मैने
उससे कहा था.
“मै बच्चों से नहीं मां से मिलने आई
हूं, उसने प्यार से मुझसे कहा, बच्चा होने के बाद मां को सब भूल
जाते हैं, सबका ध्यान बस बच्चे पर होता है और मां से बस
अपेक्षाएं रह जातीं हैं. जबकि मां को अभी भी उतनी ही देखभाल और प्यार की ज़रूरत
होती है. इसलिए मैं तुमसे मिलने आई हूं, तुम तो ठीक हो ना?”
एकबारगी मुझे अपने अंदर के खालीपन का एहसास हुआ. मैं उसके
गले से लगकर रो लेना चाहती थी. लेकिन उस समय बस एक अस्फुट सा, ‘आयम फाइन,
थैंक यू’ ही कह पाई.
“क्या सबकुछ पहले जैसा नहीं हो सकता?” अवसाद के गहन
क्षणों में मां ये भी सोच सकती है.
“मैं ऐसा कैसे सोच सकती हूं? क्या मैं इतनी बुरी मां
हूं?” अगले ही पल वो खुद को धिक्कारेगी भी.
‘पीछे मुड़कर देखना इंसान की फितरत होती है, एक दिन जब ये बच्चे बड़े होकर
अपने पंख फैलाएंगे तो आप ही पुराने अल्बम के पन्नों पर हौले से हाथ फिराते हुए
सोचेंगे क्या ये वापस से उंगलियां पकड़कर चलने वाले, हर ज़रूरत पर आपकी ओर मनुहार
से देखने वाले नन्हे मुन्ने नहीं बन सकते’, एक दफा अपनी
गायनोकॉलिस्ट का इंतज़ार करते हुए पेरेंटिंग मैगज़ीन के पन्नों पर ऐसे ही किसी
सवाल का ये जवाब पढ़ रखा था. जब मैं अवसाद के उन दिनों से गुज़र रही थी तो इन्हीं
पंक्तियों को याद करके खुद को हौसला दिया करती.
पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन कोई बीमारी नहीं, खालीपन
और व्याकुलता का एक छोटा सा दौर है, जो ज़्यादाकर दो से तीन हफ्तों में खत्म हो
जाता है. नई मां को उस समय बस थोड़े से सहारे, थोड़ी सी समझ की ज़रूरत होती है.
अक्सर उसे वो भी नहीं मिल पाता.
कोई उसे गले से लगाकर नहीं कहता, “सुनो तुम अकेली नहीं हो, हमने भी
गुज़रे उस दौर से.”
“पगली, किसने कहा तुम अच्छी मां नहीं, थोड़ा समय दो
खुद को.”
“हम सब जो यहां तुम्हें घेरकर खुशियां मना रहे हैं, शोर-शराबा कर रहे हैं,
सिर्फ तुम्हारे बच्चे के लिए नहीं आए हैं यहां, हम तुम्हारे होने को भी सेलीब्रेट
कर रहे हैं.”
बस इतना सा कह पाना काफी होता है उसके लिए, बच्चे
के बाद भी उसके मैं का थोड़ा सा अहसास बचा रहे उसके लिए. लेकिन अपनी कंडीशनिंग और
वर्जनाओं से घिरा परिवार इतने से भी चूक जाता है अक्सर.
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