जुमला उछालकर शेक्सपीयर साहब तो चार सौ साल पहले
निकल लिए लेकिन द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास अभी तक ये तय नहीं कर पाया है कि अपने
नाम के साथ उसका रिश्ता कैसा है, कि उसके नाम में सबकुछ रखा है या फिर कुछ भी नहीं.
सरलतम शब्दों में नाम, वो उच्चारण है जिससे ये पता चल सके कि
बहुत सारे लोगों के बीच आपको संबोधित किया जा रहा है. लेकिन दुनिया की तमाम आसान
चीज़ों के साथ हमने नाम को भी जितना हो सके कॉम्प्लीकेट कर लिया है. एक तो ये कि
हमारे परिवारों में नाम का चुना जाना राष्ट्रपति चुनाव के गणित से भी ज़्यादा
दुरूह है. जन्म के समय ग्रह-नक्षत्रों के
मूड से लेकर मां-बाप की इच्छा, रिश्तेदारों का विशेषाधिकार, दोस्तों के सुझाव,
किताबों से कन्सल्टेशन कर लंबी फेहरिस्त शॉर्टलिस्ट होती है. फिर उस लिस्ट को और
टाइट कर सुझाव देने वालों को मल्टीपल च्वाइस में एक को वोट करने को कहा जाएगा. तब
जाकर पंडित जी मोटी दक्षिणा के साथ नाम कान में फूंकेंगे. इस पूरी प्रक्रिया में किसी
ना किसी रिश्तेदार का नाराज़ हो जाना भी तय है. उसके बाद भी लोगों का अपनी मर्ज़ी
से बाबू, गुड्डू, मुन्ना, गुड़िया, चुन्नी, मुन्नी जैसे अस्थाई पुकारु नाम
इस्तेमाल करना जारी रहेगा.
यहां तक तो फिर भी ठीक, लेकिन इतने जतन से चुना
नाम भी बाद में पुकारने को सबके पास सुलभ नहीं रहता. पहले आधी दुनिया आपको नाम
लेकर पुकारने की ज़रूरत नहीं समझती, बाद में बाकी आधी के पास आपका नाम लेने का
अधिकार नहीं रहता. वो क्या है ना कि हमारे यहां पदवी के इन्फैचुएशन में लोग नाम का,
एकव्रत धर्म ऐसे नज़रअंदाज़ करते हैं जैसे प्रेमिका की आमद के बाद बीवी नागवार
गुज़रने लगती है. सीधा-साधा नाम ना हो गया अधोवस्त्र हो गया जिसको चारों ओर से ढका
जाना ज़रूरी है.
नाम लेकर पुकारो तो दामाद जी नारज़ हो जाते हैं,
उन्हें संबंध का संबोधन ज़्यादा गरिमामय लगता है, नाम में मिला अपनत्व नहीं. बहुओं
के लिए वैसे भी नाम की दरकार कम ही होती है. फलाने की बीवी से ढिमकाने की मां तक
के प्रमोशन में उनका जीवन कट जाता है. समझ में नहीं आता कि जब बर्थ सर्टिफिकेट भी
नहीं बनते थे और तमाम सरकारी योजनाएं भी नहीं थीं तो लड़कियों के असल नामों के
क्या अचार डाले जाते थे?
सबसे बड़ा झोल तो पति के नाम में है. हर किसी से
बात करने में अलग नाम. आपके बेटे, आपके भैया, तुम्हारे पापा....अरे बाप रे कुछ तो
रहम करो.
थोड़े समय पहले मैं घर के एक आयोजन में पति को
नाम लेकर बुलाने पर एक बुज़ुर्ग रिश्तेदार की नाराज़गी झेल चुकी हूं. मुझे डांटा
सो डांटा, मेरी आड़ में उन्होंने पूरी पीढ़ी की लड़कियों की जो लानत मलामत की वो
अलग. डर के मारे उनसे पूछ भी नहीं पाई कि अम्मा, आशीर्वाद तो सात जन्मों के साथ का
देती हो, अगले जन्म में नाम कौन सा यही रहने वाला है. अब बताओ, रिश्ता ज़्यादा
बड़ा या नाम?
छोड़ो रहने दो, लॉजिक से वैसे भी हमारे परिवारों
में कुछ नहीं चलता. इसलिए मेरी एक सहेली ने तो क्या करूं, क्या ना करूं वाले
स्टाइल में पति को ‘पति’
कहकर ही पुकारना
शुरू कर दिया था.
हमारे गांव में हर मर्द का एक पुकारु नाम ज़रूर
होता, जिसको रखे जाने के पीछे कोई रैशनेल ढूंढे से भी नहीं मिलता. मेरे दादाजी का
नाम सुपारी बाबू था. आज भी असल नाम से उनका परिचय दे शायद ही अपने शहर में पहचान
का कोई धागा जोड़ पाऊं. वजह ढूंढने पर बताया गया कि बचपन में उनका चेहरा सुपारी की
तरह गोल था. हमारा बचपन दादीमां को छेड़ते बीता कि वो बताएं कि पान के साथ वो क्या
खाती हैं. मां की पीढ़ी तक ज़रूरत पड़ने पर पति का नाम लेना अपराध ना रहा. हमारी
पीढ़ी तक पति को नाम लेकर नहीं बुलाना बिल्कुल आउट ऑफ फैशन हो गया था. इसी फैशन ने
हमारी फजीहत कर रखी है.
बड़ों को नाम से नहीं, संबंध से बुलाना हमारी
संस्कृति का हिस्सा है, बिल्कुल सही. उसमें मिठास है, सम्मान है, गरिमा है. हमारे
यहां वैसे भी अंकल, आंटी जैसे ब्लैंकेट संबोधन नहीं है, हर संबंध के लिए अलग नाम
हैं. लेकिन हमउम्रों और छोटों को उनके नाम से बुला सकने में कैसा एतराज़? उससे अपनत्व कम तो
नहीं हो जाता, बढ़ता ही है.
अपनी किसी ख़ास चीज़ से इतना क्या मोह कि
इस्तेमाल करने की जगह आप उसे हमेशा के लिए सेफ डिपॉज़िट में डाल दें? तरह-तरह के उपनामों
और विशेषणों के बीच दबा हमारा नाम क्या रह-रहकर अपने अस्तित्व के लिए कसमसाता नहीं
होगा?
और हां, नाम से गुणों का कोई लेना-देना नहीं
होता. क्योंकि जब नाम रखे जाते हैं तो गुणों का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं होता.
बाकी चीजें तो दूर, मैं स्केल लेकर भी सीधी लकीर नहीं खींच पाती.
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