हम उम्र के उस दौर से गुज़र रहे थे जिसे टीनएज
कहा जाता है. किसी भी बात पर टोका-टाकी तीर की तरह लगती, और मां थी कि चलने, उठने,
खाने, रहने, पढ़ने हर चीज़ का एक रूल बुक लेकर हमारे पीछे पड़ी रहती. आए दिन किसी
ना किसी बात पर डांट पड़ती और हम कई-कई रोज़ मुंह सुजाए घूमते रहते. इसी बीच मां
को अनदेखा कर पापा के आगे-पीछे करने की आदत पड़ी. जब भी मां से डांट पड़ती हम उनसे
मुंह फुला लेते और खूब तत्परता से पापा को खुश करने में लग जाते.
नाराज़गी के एक ऐसे ही सीज़न में हमने पापा को
खुश करने के लिए गोलगप्पों का इंतज़ाम किया. चूंकि मोटिव मां को इग्नोर करने का था
तो उनसे बिना कुछ पूछे, बिना कोई मदद लिए काम को अंज़ाम देना था. हम पूरे दिन लगे
रहे, शाम तक तैयारी मुकम्मल हुई. पापा को साग्रह बुलाकर लाया गया. पापा हमेशा की
तरह मुस्कुराते हुए आए, डायनिंग चेयर पर बैठे, हमने बड़े जतन से पहला गोलगप्पा बना
कर पापा को सामने रखा. पापा ने वैसे ही मुस्कुराते हुए कहा, “बेटियों ने बनाया है
तो हमें खाना ही होगा लेकिन जब तक मम्मी नहीं खाएंगी, हम कैसे खा सकते हैं.”
हमारा सारा गुरूर एक सेकेंड में फुस्स, काटो तो खून नहीं. हमें तो अब तक यही लगता
रहा था कि पापा को मम्मी के साथ हमारे इस मेरी गो राउंड का पता ही नहीं होगा.
लेकिन पापा ना केवल सब जानते थे बल्कि हमें हमारी जगह दिखाने के लिए सही वक्त भी
चुन कर इंतज़ार भी करते रहे थे. हम इस तरह की कई घटनाओं के बीच बड़े हुए, जब पापा
ने हर उस इंसान से किनारा कर लिया जिसने मां की उपेक्षा की.
मेरी मां वर्किंग नहीं हैं. घर और बाहर के
कार्यक्षेत्र मां और पापा के लिए बड़े कायदे से बंटे हुए थे. मैंने दोनों को कभी
एक-दूसरे के मामलों में अनधिकृत टांग अड़ाने की कोशिश करते नहीं देखा. लेकिन
कभी भी घर का छोटा-बड़ा कोई फैसला मां के बिना नहीं लिया गया. हर बात मे मां की
सहमति ज़रूरी होती है.
पापा के मुंह से हमेशा एक ही वाक्य सुना, पैसे
चाहे कोई लेकर आए, घर तो घरनी का ही होता है.
बड़े होते वक्त हमारे सामने करियर नहीं बनाने का
ऑप्शन कभी था ही नहीं, कभी नहीं कहा गया कि पढ़ाई नहीं करोगी तो कोई बात नहीं,
शादी कर देंगे. फिर भी हम कभी भी ये सोचकर नहीं बड़े हुए कि सहमति उन्हीं की ली जाती
है जो पैसे कमाते हैं या विचार उन्हीं के मायने रखते हैं जो कमाकर घर चलाते हैं.
द्रौपदी की अनुमति के बिना उसके जीवन का फैसला
लेने वाले युद्धिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचकर भी अपने उस अपराध से बरी नहीं हो पाए.
लेकिन मर्द फिर भी बाज़
नहीं आते.
ये कहकर कि इज्ज़त और सहमति का अधिकार पाने के
लिए औरतों का आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना पहली शर्त है, आप उन तमाम सदियों के
योगदान को सिरे से खारिज कर रहे हैं जो औरतों ने घर में रहकर परिवार और समाज के
लिए किया है. औरत की इज़्जत इस बात से निरपेक्ष होनी चाहिए कि वो कमाती है या
नहीं. उसे इज़्जत इसलिए मिलनी चाहिए क्योंकि वो इंसान है, घर की सदस्य है. परिवार
के लिए उसकी सहमति इसलिए मायने रखनी चाहिए कि उसके पास अच्छे-बुरे का फर्क करने की
तमीज़ है, वो हर मसले को अपने नज़रिए से देखकर उसपर विचार व्यक्त कर सकती है,
मुश्किल परिस्थितियों में तटस्थ रहकर फैसला ले सकती है.
उन्हें पढ़ाई और नौकरी के लिए बराबर इसलिए
मिलने चाहिए क्योंकि उनमें काबलियत है, क्योंकि आधुनिक समाज कार्यक्षेत्र में उसके
योगदान के बिना आगे नहीं बढ़ सकता. और सबसे अहम बात, क्योंकि ये उनकी मर्ज़ी है.
इज़्जत और सहमति का अधिकार उन सबसे बहुत पहले की ज़रूरत है,
हमारे लिए सांस लेने जितना अनिवार्य, इसलिए उसके हो सकने के लिए किसी भी शर्त की
दरकार नहीं. सशर्त ज़मानत दी जाती है,
इज्ज़त और आज़ादी नहीं.
और हां, पहला गोलगप्पा उस दिन मां ने ही खाया था.
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