रेस्टोरेंट मंहगा था, लेकिन गंवई अंदाज़ का. शायद
थीम ही वही रही हो उसकी. लकड़ी की भारी भरकम चौखट पर भारी नक्काशी का काम था. सिर
झुकाकर अंदर घुसने की कोशिश में उंगलियां कुछ क्षणों के लिए एक-दूसरे से उलझ गईं
तो दोनों चौखट के आर-पार एक-एक पैर किए ठिठक कर खड़े हो गए. जगह ढूंढने के बहाने
दूसरी ओर देखते हुए भी अमोल जान गया था कि सुमी की उंगलियां इस वक्त सख्ती से अंदर
की ओर मुड़ी होंगी और उसकी पलकें झपकना भूल गई होंगी.
अंदर थोड़ी सी जगह में गांव को जबरन इतना ज़्यादा
ठूंसने की कोशिश की गई थी कि अमोल को थोड़ी घुटन हो आई. एलईडी बल्ब लालटेन में डाल
कर जगह-जगह छत से लटका लिए गए थे, एक ओर मूंज की खाट रखी थी, दूसरी ओर चौकी के ऊपर
छोटे स्टूल रखकर उस पर खाना परोस दिया गया था, प्राइवेट केबिन के लिए हॉल के भीतर
झोपड़ीनुमा कुछ बन रखा था. अमोल फिर पसोपेश में पड़ गया, मौजूदा स्टेटस के मुताबिक
दोनों का फूस के इस बाड़े के पीछे बैठना ठीक होगा या नहीं. सुमी तब तक दूसरे कोने
में पहुंच गई थी जहां नकली पेड़ की फाइबर की बनी टहनियों से झूलानुमा सीटें आमने
सामने लटक रही थीं.
अमोल मन ही मन हिसाब लगाने लगा, चौदह महीने, तीन
हफ्ते और पांच दिन बाद पहली बार वो दोनों ऐसे साथ थे जब उनके बीच कोई और शख्स
धाराप्रवाह बोलकर मध्यस्थता की कोशिश नहीं कर रहा था. शायद इसलिए इस वक्त अमोल को दोनों
के बीच शब्दों की कमी बेतरह साल रही थी. यूं सुमी के साथ रहते हुए शब्दों की ज़रूरत
कभी ज़्यादा नहीं होती थी. लेकिन आज शब्द होते तो अमोल को यूं बार-बार थूक निगलना
नहीं पड़ता. उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि बस स्टॉप के बाहर अचानक टकराने
पर वो सुमी को साथ में लंच करने का न्यौता दे पाया और वो बिना कुछ सवाल पूछे उसके
पीछे चल पड़ी. साथ रहते रहते जो बातें सांसों की तरह अनिवार्य होकर भी ग़ैरमकसद
लगती रह सकती हैं, दूरियां बढ़ने पर उनका होते जाना कितना बड़ा प्रिविलेज लगने
लगता है.
सुमी उसे एकटक देख रही थी, वो जानता था इस वक्त
वो उसके अलावा दुनिया में किसी के भी बारे में सोचती हो सकती है. सुमी की आंखों
में तटस्थ उदासी थी, अमोल बहुत असहज हो गया.
सालों का हिसाब अब मायने नहीं रखता लेकिन पहली बार
वो ही आया था सुमी के पीछे, उसकी डायरी से गिरी चिट्ठियां उसे लौटाने. चिट्ठियां
लिफाफे से बाहर थीं.
‘कहां मिलीं?’ चिट्ठियों को एकटक देखते हुए बिना उसकी
ओर हाथ बढ़ाए सुमी ने पूछा था.
‘लाइब्रेरी के बाहर. आप ही की हैं ना?’
‘कॉफी पिएं?’
इस अप्रत्याशित जवाब से वो चौंक गया था.
‘पढ़ लीं तुमने सारी?’ कॉफी की पहली घूंट के साथ ही औपचारिकताएं
गटक कर सुमी ने उससे पूछा था.
‘हां, पता ढूंढने के लिए ज़रूरी था.’ अपने इस एक्सप्लानेशन
पर उसे खुद हंसी आई.
“मेरी बहन थी वो, नौ साल की थी, मैं सात की…हम गांव गए थे,
तालाब के बगल में मिट्टी के घरौंदे बनाने साथ निकले. मिट्टी कम पड़ गई, उसने कहा
तुम खिड़कियों में माचिस की सलाखें लगाओ हम मिट्टी लेकर अभी आते हैं. वो नहीं आई.
शाम को उसे तालाब से निकाला सबने, मुझे देखने भी नहीं दिया. बीस साल हो गए, ये
सारी चिट्ठियां मैं उसी को लिखती हूं, जब भी दिल उदास होता है, या किसी से नाराज़.
इन्हें हमेशा साथ रखती हूं. सब मज़ाक बनाते हैं मेरी इस आदत का, मैं छोड़ नहीं
पाती इसे. तुम्हें भी अजीब लगा क्या?
वो बिना किसी प्रतिक्रिया के उसे देखता रहा,
थोड़ी देर बाद उसने महसूस किया सुमी की नज़र उससे जवाब मांग रही है.
लस्सी पिएं? उसके मुंह से निकला.
सुमी हंस पड़ी, गर्म ठंढा नहीं होता क्या तुमको?
वो क्या होता है? वो लस्सी लेने चला गया.
“नॉर्मल रह पाने के लिए ज़रूरी होता है कि हम सभी
के अंदर कुछ ना कुछ एब्नॉर्मल रहे.” लस्सी की आखिरी घूंट के साथ अमोल ने जवाब दिया
था. सुमी और वो उस दिन से कभी अलग नहीं हुए.
बाकी सब नार्मल है मुझमें, तीन महीने बाद प्यार
के पहले इज़हार के जवाब में सुमी ने हंस कर कहा था.
बाकी सब नॉर्मल से बहुत खूबसूरत है इसके अंदर, दो
साल बाद उसकी ऊंगली में सगाई की अंगूठी डालते हुए अमोल ने सोचा था.
इस यकीन के साथ जीते जाने कितने साल बीत गए. अपनी
प्रेम कहानी से सुंदर कहानी यूं भी किसी को कोई और नहीं लगती. ना कोई और जोड़ा
अपनी जोड़ी की तरह मेड फॉर इच अदर लगता है. लेकिन उन दोनों को देखकर बहुत सारे
लोगों ने कई बार ऐसे अल्फाज़ कहे थे. या शायद उनके भीतर सब इतना खुशनुमा था कि
अमोल के कान बस अच्छी बातें सुन पाते थे.
कुछ यूं ही दोनों साथ रहे, एक दूसरे के होने की
अनिवार्य शर्त की तरह. जब तक इस साथ की आदत इतनी नहीं पड़ गई कि उसके होने का
अहसास ही खत्म हो गया. पहली दरार कब पड़ी अमोल को याद नहीं, पूछने पर सुमी को भी
याद हो ये ज़रूरी नहीं. याद है तो बस ये कि दरार इतनी बढ़ गई कि उसे पाटने के लिए
दोनों के बीच बहुत से लोगों को आना पड़ा, फिर जितने लोग बीच में आए दूरी और बढ़ती
रही.
अमोल जो मनाने की तरकीब पहले ढूंढता फिर बेसब्री
से इंतज़ार करता कि कब सुमी रूठे और वो मनाना शुरु करे, अब नाराज़गी की वजहों की
पड़ताल करना चाहता. सुमी जो अमोल की खामोशियों से मायने समझ जातीं, अब हर अहसास का
शब्दों की शक्ल में सबूत मांगती थी. सुमी जिस दिन घर छोड़कर गई अमोल ने भी वहां ताला
लगा दिया. ऑफिस के पास पीजी में शिफ्ट हो गया. दोनों के पास एक दूसरे तक लौट के
आने के सारे ठौर बंद हो गए. बस इतनी सी मज़बूती होती है क्या उस रिश्ते में जिसकी
दुहाई लोग जन्मों के नाम पर देते हैं? अमोल कई बार सोचता है.
दो लोग चाहे कुछ भी कर लें, बातचीत से कभी अपने
मनमुटाव का हल नहीं ढूंढ सकते जबतक वो इस इंतज़ार में रहें कि सामने वाला अपनी
ग़लती मान ले. आज इस अनजान जगह में जाने कितने समय बाद अमोल को अपना गुरूर अंधेरे
में परछाईं की तरह गायब होता महसूस हुआ. जी चाहा कि वो ज़ोर लगाकर बीच के इन सारे
महीनों को किसी इरेज़र से मिटा दे, फिर वो सोचने लग पड़ा, अगर उसके क़दम छोटे पड़
गए तो क्या सुमि आगे बढ़कर उसका हाथ थाम पाएगी? उसे आश्वस्ति नहीं हुई.
खाना आ गया था, अमोल ने सर उठाकर देखा, सामने की
कुर्सी पर बेहद छोटे कटे बालों वाली लड़की बार-बार उसकी ओर देखे जा रही थी. थोड़ा
ज़ोर डालने पर अमोल को याद आ भी जाता, लेकिन उसने पराठें का निवाला तोड़ने में
अपनी सारी ताकत लगा दी, इस समय सामना करने के लिए उसे सुमी के अलावा और किसी की
निगाहें नहीं चाहिए थीं. नज़र वापस ऊपर करने पर उसने पाया कि वो लड़की उनकी टेबल
की ओर बढ़ रही है.
“हाय, पहचाना मुझे, रितु सरीन, नाउ महरोत्रा, मैं
एचएमएस बैंगलोर में थी तुम्हारे साथ. सॉरी तुम्हारा चेहरा याद है लेकिन नाम भूल सी
गई हूं, सम शुक्ला इफ आय एम नॉट मिसटेकन, वो धाराप्रवाह बोलती जा रही थी, लेकिन
तुम्हारा चेहरा इतनी अच्छी तरह याद है कि कुडंट इग्नोर यू एनी मोर, अपने हस्बैंड
से तब से यही कह रही थी, लेकिन नाम याद करने तक पेशेंस नहीं हुआ”, उसने लाल चूड़े से
भरा अपना हाथ हवा में लहरा तक जता दिया कि हस्बैंड नाम का ये संबोधन उसकी ज़िंदगी
में इतना नया जुड़ा है कि उसका उच्चारण वो जितना जी चाहे ज़ोर लगाकर, चबाकर, कर
सकती है.
‘अमोल’, उसने कहना चाहा, लेकिन तब तक रितु सरीन उर्फ
महरोत्रा सुमी से मुखातिब थीं, “एंड यू मस्ट बी सुमी, मिस्टर शुक्ला का चेहरा
देखकर मुझे तुम्हारा ही नाम याद आया. आई मीन दिस वॉज़ द नेम ऑन हिज़ लिप्स ऑल द
टाइम. कोई और बात ही नहीं करनी, सुबह-शाम बस सुमी और सुमी की
कहानियां. इतने साल हो गए लेकिन इनके मुंह से तुम्हारी सुनी कहानियां मुझे याद
हैं, इन्फैक्ट हमारी पूरी टीम को याद होगी. कोई हंस ले, मज़ाक बना ले या जेलस हो
ले, इनको कोई फर्क नहीं. हैव नेवर सीन ए मैन सो मच इन लव बिफोर, इनफैक्ट मैं अनिरुद्ध
आई मीन अपने हस्बैंड से भी यही बता रही थी.” इस बार उसने हाथ हिलाकर अपने हस्बैंड को
भी बुला लिया.
कुर्सियां खींच ली गईं, बाकी का खाना साथ में
पूरा हुआ. सालों पुरानी कहानियां दोहराई गईं, हंसी मज़ाक शुरू हुआ. अमोल ने बीच
में नज़र उठाकर सुमी को देखा, सुमी उसे ही देख रही थी, अमोल को चौदह महीने, तीन
हफ्ते और पांच दिन दोनों के बीच की खाई में गिरते नज़र आए.
रेस्तरां से बाहर निकलते वक्त उंगलियां फिर
टकराईं लेकिन इस बार सड़क पर निकलने तक यूं ही उलझी उन दोनों के बीच चलती रहीं. ‘मेरी एक मीटिंग है’, बस स्टॉप पर
पहुंचकर सुमी ने कहा. उसे अलग दिशा में निकलना था. लेकिन अमोल जानता था इस बार
वापसी मुश्किल नहीं होगी.
कभी-कभी असंभव सी लगने वाली दूरी को पाटने के लिए
बस इतना सा कुछ चाहिए होता है.
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