इस शीर्षक का एक लेख ग्रेजुएशन में कम्पल्सरी
हिंदी के सिलेबस में था. अठ्ठारह बीस की उम्र में जब चालीस का मतलब बुढ़ापा होता
है, वो लेख हमें पढ़ाने का क्या मतलब था, समझ में नहीं आया. पढ़ाते वक्त
हमारी प्रोफेसर भी बार-बार याद दिलाती रही कि क्योंकि पूरे कमरे में चालीस के पार
केवल वही हैं इसलिए उस लेख का गूढ़ मतलब भी केवल वही जान सकतीं हैं. सुनकर ये
विश्वास और पुख्ता हो गया कि ये वानप्रस्थ की बाते हैं, हमारे लिए बेज़रूरत.
हमारे ज़माने में चूंकि मोबाइल फोन नहीं थे,
क्लास में टीचर की बात ना चाहते हुए भी कानों तक चली जाती थी और चूंकि दिमाग पांच
हज़ार किस्म की चिंताओं से नहीं भरा था, कुछ बातें याद भी रह जाया करती . इसी तरह
वो शीर्षक भी याद रह गया और याद रह गई उसकी बस एक पंक्ति कि, हमें समाज से जो कुछ
लेना होता है हम इस उम्र तक ले चुके होते हैं, उसके बाद बारी आती है उसे लौटाने
की.
चालीस अब ज़्यादा दूर नहीं, तो आधी उम्र पहले
अंदर दाखिल हुआ वो शीर्षक दिमाग के अंदर से दस्तक देने लगा है. चालीस से जान पहचान
बढ़ाना अब बहुत ज़रूरी जान पड़ने लगा है, सो उधार मांगे हुए उस शीर्षक के आवरण से
निकली ये पंक्तियां डेडलाइन, टार्गेट, बजट, खर्चे, इन्वेस्टमेंट, रिश्तों, रिश्तेदारियों,
अपेक्षाओं, उपेक्षाओं के बीच एक बार ठहर कर अपने बारे में सोचने की कोशिश भर है.
ये वो पड़ाव है जहां पहुंचने से पहले ज़रूरी है
कि हम अपने मन को बाहर से टटोलने के बजाए एक बार उसके अंदर घुसकर बिना शोर किए खुद
के साथ थोड़ा वक्त बिताएं. हो सकता है वक्त की भागमभाग से सहमे हुए कुछ सपने अब भी
आपके अंदर सांस ले रहे हों. कुछ अधूरी ख्वाहिशें अक्सर इसी उम्र में हरकत करने की
हिम्मत जुटा पाती हैं, जब आप
नौकरी और रिश्तों में एक सीमा तक स्थायित्व हासिल कर चुके होते हैं. जब आप अपने आपको
अपने जीवन की एकरसता के हवाले कर उससे समझौता कर लेते हैं, एक नए जुनून में खुद को
झोंकना ज़ोखम का काम होता है. और हर किसी को ये ज़ोखम एक बार ज़रूर उठाना चाहिए.
फुलटाइम ना सही, पार्टटाइम सही. दिन भर के कमिटमेंट्स के बीच बेकार रिसते समय के
फायदा उठाकर ही सही. चालीस की उम्र खुद को एक बार फिर इन्सिक्योर करने की उम्र बना
डालिए, क्योंकि जब हम इन्सिक्योर होते हैं तो हर कतरा ताक़त निचोड़ कर बेहतरीन
करने की कोशिश भी करते हैं.
चालीस की उम्र खुद को रिएलिस्टिकली लेने की उम्र
भी है. ये वो समय है जब आप ख़ुद से ख़ुद के बारे में ना झूठ बोल सकते हैं ना किसी
भ्रम में रख सकते हैं. तो ज़रूरी है कि अपनी सीमाओं को पहचान कर उसी के भीतर ख़ुशी
ढूंढ ली जाए. हर किसी की ज़िंदगी में पावर प्ले अलग-अलग समय पर आता है. तुलनाएं
इंसान को बस बेचैनी देती है. हर कोई चोटी पर पहुंचकर पताका फहराने के लिए नहीं बना
होता. विजय गीत गाने का अधिकार उनको भी है जो कहीं बीच में ही डेरा डाल लेने का
फैसला कर लेते हैं.
चालीस की उम्र धूर्तता के चरम की ओर बढ़ते क़दमों
में तेज़ी आ जाने की भी है. इंसान तब तक दुनियादारी की चाशनी में पूरी तरह पग कर
ठोस हो चुका होता है. उसे रिश्ते और रिश्तेदारियों का फर्क पता चल जाता है. वो ये
भी समझ जाता है कि, हर किसी के लिए दूसरों को दिखाने और खुद के चलने के रास्ते अलग
होते हैं. मौका मिले तो ज़्यादातर लोग रास्ते और मंज़िल में से मंज़िल को ही चुनते
हैं. शायद तभी वय संधि के इस काल में लोग अक्सर सबसे ज़्यादा कटु, निर्मम और कठोर
भी हो जाया करते हैं. ऐसे में अपने अंदर के भोले बच्चे को बचाकर रख पाने की ज़रूरत
भी कम नहीं. कुछ छोटे-बड़े धोखे खाकर भी अगर आपके अंदर का बच्चा विश्वास कर लेने
को तैयार हो तो ये घाटे का सौदा नहीं होगा. थोड़ा वक्त उन बुज़ुर्गों के साथ
बिताइए जिनके पास अभी भी आपके बचपन के क़िस्से मौजूद हों.
उन दोस्तों की पहचान कर लीजिए जिनके साथ आप बूढे
होना चाहेंगे. जीवन बस जीवनसाथी के सहारे नहीं कटता. चाहे कोई भी हो, दोस्त, पड़ोसी, सहकर्मी या फिर
रिश्तेदार, साफ मन से खुद से पूछिए, कौन हैं वो लोग जिनके साथ कुछ और साल बाद पीछे
मुड़कर आप अपनी ज़िंदगी पर हंस सकते हैं? एक बार ये तय हो जाए तो उन्हें किसी भी क़ीमत पर
खोना घाटे का सौदा रहेगा. उन्हें अपने मन की बात बता दीजिए और अपनी डील सील कर
डालिए.
दोस्त और विरोधी बनाना हर वक्त हमारे हाथ में
नहीं होता. ये रिश्ते अक्सर हमारी दुनिया में चुपचाप दखल बना लेते हैं. लेकिन उनको
निभाने का फैसला हमारे अपने हाथ में है. तो अपनी दोस्तियां निभाइए और दुश्मनियों को
उनके हाल पर छोड़ दीजिए. हर बीमारी का इलाज़ ज़रूरी नहीं है. कई बार इलाज के पीछे
भागते रहना भी अपने आप में बड़ी बीमारी बन जाती है.
नज़रअंदाज़ करना सीखिए, उदार बनिए, अपने लिए,
अपनी अगली पीढ़ी के लिए. रिश्तों में किसी भी ग़लती की सज़ा इतनी बड़ी नहीं होती
कि वो कभी पूरी ना हो पाए. मुट्ठी खोल देने का वक्त भी यही है. बेचैन होने की ज़रूरत नहीं. ज़िंदगी बीतने के लिए
ही बनी होती है. पीछे मुड़कर देखिए, बहुत कुछ हासिल किया जा चुका है. जो बाक़ी है
वो भी समय से हो जाएगा. ना हुआ तो भी कड़वाहट इसका इलाज नहीं.
रही बात समाज को वापस करने की, तो समाज से अपना
लेन-देन जो जन्म से मरण के बीच हर रोज़ चलता रहता है. छोटा बच्चा भी अपनी अबोध
हंसी और प्यारी बातों से झूठ और अविश्वास से भरे इस समाज को बहुत कुछ दे देता है
और आख़िरी लम्हे बिता रहा कोई बुजुर्ग शरीर और मन के हज़ारों कष्टों के बाद भी
आश्वस्ति भरे एक हाथ के सहारे बहुत कुछ वापस पा लेता है.
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