अब बस, बहुत हो गया,
अब मैं फेमिनिस्ट हो जाना चाहती हूं, फुलटाइम. नारीवाद से पुरूषत्व की बू आती है,
फेमिनिज़्म खांटी जनाना शब्द लगता है. एकदम कूल और वोग, बिल्कुल मेरे शब्दों के
चयन की तरह.
हर सुबह जब मैं आटे
और मसाले सने हाथों को जल्दी-जल्दी साफ कर, एक हाथ में कंघी और दूसरे में
ब्रेकफास्ट का डब्बा लिए भागती हुई गाड़ी में बैठकर ऑफिस के लिए निकलती हूं तो
मेरा मन विद्रोह कर उठता है. क्या फायदा कमाकर खाने वाले स्वाभिमान से, इससे तो
फेमिनिस्ट ही हो जाते.
शुरुआत में ही क्लीयर कर दूं, मुझे कोई-सा वाला फेमिनिज़्म नहीं चलेगा. फुलटाइम फेमिनिस्ट बनने की पहली शर्त यही रहेगी कि मैं ‘मेरा वाला पिंक’ के अंदाज़ में अपना फेमिनिज़्म कस्टमाइज़ कर सकूं. और वो भी समय रहते. शुक्र है ज़माने का, जो फेमिनिज्म के उच्चारण मात्र से इतना भावविह्लित हो उठता है कि उसे अभी तक फेमिनिज़्म को उसके विभिन्न आकार, प्रकार और विचारों के तहत सूचीबद्ध करने का वक्त ही नहीं मिला.
आए दिन कई फुलटाइम
फेमिनिस्टों से साबका पड़ता है मेरा, जो बड़े गर्व से मेरे सामने हाथ नचाकर एलान
करती हैं कि भई किचन-विचन में घुसना, उनसे नहीं हो पाता, क्योंकि उन्हें तो बेटा
बनाकर पाला गया. मैं ग्लास की पेप्सी के बड़े घूंट के साथ अपना कॉम्प्लेक्स गटक
लेना चाहती हूं. पालते वक्त मुझे क्यों ये क्लारिटी कभी नहीं दी गई कि लालन-पालन
का ये तरीका किस योनि के अंतर्गत आता है? लानत है. नौ साल की उम्र में हमें अपनी आलमारी
खुद साफ करनी होती थी, लगभग उसी दौरान दादाजी ने बैंक ले जाकर चेक काटना और पैसे निकालना
सिखा दिया था. हॉस्टल की छुट्टियों में किचन में हाथ बंटाना होता था, बल्ब, प्लग
ठीक करने जैसे छोटे-मोटे जुगाड़ू काम भी उन्हीं दिनों सीख लिए थे. और बड़े होने पर
हाथ में धर दिया एक सिक्का, जिसके एक ओर ‘फैसला’ खुदा था और दूसरी ओर खुदी थी ‘ज़िम्मेदारी’. अपने फैसले लेने की आजादी
के साथ उनके नतीजों की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी. अब कर लो बात.
जभी तो, मेरे फेवरेट
फेमिनिज्म की जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा भाती है वो है इसका मैं पन, मेरा वर्जन,
मेरी च्वाईस, मेरी आज़ादी, मेरा सरोकार, मेरी मर्ज़ी, मैं, मेरा और मुझे. मुझे भी वैसा
वाला फेमिनिस्ट ही बनना है, मेरी च्वाइस वाला. कुल जमा बोले तो मुझे अमिताभ बच्चन
वाला सिक्का चाहिए, जिसके दोनों ओर बस मेरे फैसलों की आज़ादी खुदी हो.
किसी भी दूसरी
फेमिनिस्ट की तरह मैं जज किया जाना पसंद नहीं करती. लेकिन दूसरों को उनके कपड़ों
से जज करने का मुझे पूरा हक होना चाहिए. सुना है ‘डिक्लेरेशन ऑफ फेमिनिज़्म’ साइन करते ही औरतों के पास
किसी के कपड़े देखकर उसके आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का स्तर बता देने की शक्ति आ
जाती है. साड़ी, सूट में रहने वाली औरतें निहायत हाउसवाइफिश, बोरिंग और ब्ला-ब्ला
होती हैं क्योंकि असली फेमिनिज़्म तो पावर ड्रेसिंग से ही आती है मेरी जान. इस
वाले फेमिनिज़्म की सबसे वक्ती बात ये हैं कि इसका 80 प्रतिशत विमर्श स्कर्ट से
शुरु होकर साड़ी के बीच की दौड़ लगाते-लगाते जब हांफ जाता है तो वोदका के गिलास के
सहारे अपनी सांसे संयत कर लेता है. दूसरी पते की बात ये कि फेमिनिस्ट होने के बाद
आपको सेंस ऑफ ह्यूमर से सरोकार रखने के ज़रूरत नहीं होती क्योंकि किसी भी बात से
अफेंड होना आपकी पहली ज़िम्मेदारी बन जाती है.
फेमिनिज्म में निहित
इंटेलेक्ट औरतें के शौक देखकर भी उनकी पात्रता निर्धारित कर लेता है. पेंटिंग, ड्राइविंग
यहां तक कि शॉपिंग जैसे शौक भी हों तो कोई बात वरना किचन में कलछी चलाने वाली
औरतें क्या जानें अपने हक-वक की बातें. सिंपली ए नो, नो, यू नो. फेमिनिज्म वो जो
प्रेज़ेंटेबल हो, जिसकी मार्केटिंग की जा सके, सनी लियोनी वाले कॉंडोम के विज्ञापन
की तरह.
तभी तो बेटी के सपने
पूरे करने के लिए उसके और दकियानूस समाज के बीच चट्टान की तरह खड़ी घरेलू माएं
फेमिनिस्ट नहीं हो सकतीं, जिस पति ने इज़्जत नहीं दी उसके कमाए पैसों पर थूक अपनी
मेहनत से पेट और बच्चे पालने वाली औरत भी डाउनमार्केट, मैली साड़ी में अस्त-व्यस्त
चालीस बच्चों को पाल रही उस मां में भी नहीं है फेमिनिस्ट कहलाने का खम जिसके पास
अनाथ बनाकर छोड़े गए मासूमों में तीस बेटियां हैं. फेमिनिज्म झंडों और पताकों में
है, शोर और शराबे में है, चुप रहकर ज़मीनी हकीकत बदलने में नहीं. ‘कैचिंग द आईबॉल्स’ को इतना मुखर बना दो कि
दुनिया के तमाम दूसरे मूर्त-अमूर्त आंदोलनों की तरह इसकी गंभीरता भी शरीर और कपड़े
के पीछे दुबककर सिर ना उठा पाए.
कुल जमा मार्के की
बात ये कि फेमिनिज्म वो जो नज़र आए, गूची के परफ्यूम की खुशबू की तरह जिसे दो मील
की दूरी से सूंघा जा सके. जिसको धारण करने के बाद गॉडमदर वाली शबाना आज़मी के
तर्ज़ पर कहा जा सके, ‘बड़ा मजा का खेल है ये फेमिनिज़्म भी’
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