‘कुमारी’ ने छोटे शहर के बड़े से घर में आखें खोलीं थीं.
परवरिश, संयुक्त परिवार में पाई, जहां लड़के और लड़कियों को पालने में कोई अंतर
नहीं किया जाता, खाना-कपड़ा, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण दोनों को एक समान मिलता. बाकी
लड़के को महंगी पढ़ाई के बाद हर हाल में नौकरी करनी होती थी और लड़कियों को सपनों
का राजकुमार होम डिलीवर करने के वादे किए जाते. कुमारी को सपने देखना बेहद पसंद
था, चूंकि इतना सारा वक्त सपने देखने में चला जाया करता कि कुछ और करने का समय ही
नहीं बचता. कुमारी को पूरा भरोसा था कि जिसने सपने दिए हैं वही उन्हें पूरा करने
के रास्ते भी बताएगा. कुमारी की आंखें बड़ी-बड़ी और बातें बड़ी मीठी हुआ करती थीं.
बातें करना उसे बेहद पसंद भी था, नख से शिख तक प्रसाधन युक्त होकर, बड़ी अदा से
कंधे उचकाकर, आंखें गोल-गोल घुमाकर, वो घंटों अपनी बात सही साबित करने में लगी रह
सकती थी.
समय आने पर जब कुमारी के वर संधान का काम शुरू
हुआ तो पिता को अहसास हुआ कि बाज़ार का तो भूगोल ही बदला हुआ है. नगद-रुपैय्ये की
बातें तो अब दूसरे लेवल में होती है, उसके पहले मां-बाप को लड़की के प्रोफेशनल क्वालीफिकेशन
का प्रिलिमिनरी राउंड क्लीयर करना होता है. सो शॉर्ट टर्म इन्वेस्टमेंट के लिहाज़
से कुमारी को बड़े शहर की बड़ी सी प्राइवेट यूनिवर्सिटी में मैनेजमेंट की डिग्री
लेने के लिए भेजा गया. कुमारी ने बड़ा शहर देखा, अनेक प्रकार के लोग देखे और देखी
वो यूनिवर्सिटी जो ग्राहकों की संतुष्टि में अपनी संतुष्टि ढूंढती थी. यूनिवर्सिटी
की क़ामयाबी की एक वजह ये भी थी कि वो अपने ग्राहकों से मिले पैसे का एक हिस्सा
कैंपस प्लेसमेंट के नाम पर नाम-गिरामी कंपनियों को जुटाने में भी खर्च किया करती.
सो कुमारी को उस कैंपस से ना केवल डिग्री मिली
बल्कि एक अदद सी नौकरी भी मिल गई. चूंकि कंपनी वाले पैसे लेते नहीं बल्कि देते थे,
तो बदले में टार्गेट पूरे करने की अपेक्षा भी रखते थे. यूं कुमारी की बायीं तर्जनी
का एक इशारा किसी ना किसी मददगार को तैयार करने में हमेशा सक्षम था फिर भी टार्गेट
थे कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही जा रहे थे. कुमारी के कोमल कंधे कब तक इतना बोझ
बर्दाश्त करते, एक दिन बॉस की झाड़ की शक्ल में वो तिनका शरीर को छू ही गया जिसने
कहावतों वाले ऊंट की पीठ तोड़ दी थी.
कुमारी को अहसास हुआ कि एक बड़े से शहर में इतने
सारे अनजान मर्दों के बीच वो कितनी अबला, असहाय, अकेली लड़की है. उसकी लंबी-लंबी
पलकों पर मोतियों से आंसू लुढ़क आए और जल्दी ही अक्षरों में ढलकर ई-मेल की शक्ल
में उसकी असहायता का फायदा उठाने वाले मर्दों के खिलाफ गुहार लगाने, सीनियर
मैनेजमेंट तक पहुंच गए. मैनेजमेंट ने त्वरित संज्ञान लिया, कुमारी के डिपार्टमेंट
में हड़कंप जैसा कुछ मचाया और उसके बॉस को आगाह किया कि टार्गेट की आड़ में औरतों
का दोहन कंपनी की रेप्यूटेशन के लिए अच्छा नहीं है. बॉस को अपनी पत्नी और छोटे
बच्चों का ख्याल आया और उसने कुमारी के टार्गेट को भी अपने टार्गेट में जोड़कर
गर्दन झुका ली.
लेकिन कुमारी का नाज़ुक दिल तब तक टूटने के काफी
करीब आ चुका था. उसने पिता को फोन घुमाया, पिता ने वर संधान को तेज़ किया और जल्द
ही हर ओर से कुमारी के लायक नौजवान के नाम के नाम के साथ कुमारी के नाम के कार्ड
छप कर दुनिया के कई देशों में रवाना कर दिए गए. कुमारी ने अगले कुछ हफ्ते शादी की
तैयारी में बिताए. दहेज में कार, एलईडी, फ्रिज, तौल-तौल के गहने जुटते देख कभी उदासीनता, तो कभी
मस्करा युक्त पलकों को ऊपर नीचे कर स्त्रियोचित लज्जा का परिचय देकर, कभी मां-बाप
अपनी खुशी से दे रहे हैं, हम क्या कर सकते हैं वाली बेचारगी में कंधे उचकाकर,
पसंद के सामान से कमरे भरते देखा. फिर नौकरी के गुडबाय कह बॉस को राहत की चंद
सांसें बख्शीं और पिया का घर बसाने महानगर को चल दीं.
कुमारी, जो अब श्रीमतीजी थीं, ने ससुराल में, पिता
के घर से आए लकदक सामानों, डिज़ायनर कपड़ों और गहनों के अलावा प्रोफेशनल डिग्री और
पीछे छूट आए करियर के साथ गृहप्रवेश किया था. ख़ैर, ससुराल था तो ज़िम्मेदारियां
थीं, सास के नियम और क़ायदे थे, मेहमानों की आवाजाही थी, श्रीमतीजी के नाज़ुक से
दम को घुटने में चंद महीने ही लगे. उन्हें पुरुष प्रधान समाज में एक औरत के करियर
और क़ाबलियत की कौड़ी भर की क़ीमत का एहसास हुआ और बराबरी की दुहाई के साथ वो पूरे
परिवार के सामने खड़ी हो गईं. परिवार ने ग़लती मान कर कंधे समेत पूरे का पूरा सर
झुका लिया.
श्रीमतीजी फिर से नौकरीपेशा थीं, सुबह से शाम तक
घर की किच-किच से दूर. एक ओर नौकरी के टार्गेट, तो दूसरी ओर घर की
नौकरानियों...सॉरी ज़िम्मेदारियों की संभालती. फिर बच्चे और उनकी आयाएं भी इस
लिस्ट में शामिल हो गए. संयम की चक्की में जल्दी ही घर्षण होने लगा. आंखों में मोती
भरे वो फिर से पति के सामने खड़ी थीं.
शादी के कई सालो ने पतिदेव को आसुंओं की बाढ़ से तैर कर पार लगने की कला
सिखा दी थी. उन्होंने श्रीमतीजी के कंधे पकड़कर वो शब्द दोहरा दिए जो वो सुनना
चाहती थीं, “डार्लिंग,
मेरा-तुम्हारा कुछ अलग तो नहीं है, तुम गृहलक्ष्मी हो, मैं इस काबिल हूं कि
तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी कर सकूं, तुम वो करो जो करना तुम्हें पसंद हो”
अगले दिन श्रीमतीजी ने अपने बॉस को साफ-साफ जतला
दिया कि उनका घर इस टुच्ची नौकरी की तनख्वाह से नहीं चलता और बॉस के मुंह पर
इस्तीफा फेंक कर घर लौट आईँ.
श्रीमतीजी के घर में नौकरानियों की फौज और पर्स
में पति के क्रेडिट कार्ड हैं. आजकल उनके पास ना पैसों की कमी है ना वक्त की. दोनों
का सही इस्तेमाल करने के लिए वो कई सारी पार्टियों में जाती हैं. बड़ी अदा से कंधे
उचकाकर, आंखें गोल-गोल घुमाकर, लगातार बोलते रहने की कला आज भी उनका सबसे अचूक
हथियार है. लेकिन वक्ती मांग के मुताबिक उनका ताज़ा पसंदीदा टॉपिक फेमिनिज़्म है.
स्त्रियों के अधिकार और पुरुषवादी समाज में स्वाभिमानी स्त्रियों के सर्वाइवल
स्किल्स पर वो पर लंबे-लंबे भाषण देती हैं.
डिस्क्लेमर: ये कुमारियां किसी लिहाज़ से आधी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं. उनकी गिनती मुट्ठी भर लेकिन विज़ीबिलीटी और उनके द्वारा मचाया गया शोर कई गुना
है. इस लिहाज़ से वो औरतों के वाजिब अधिकार की लड़ाई को कमज़ोर ज़रूर करती हैं.
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