दावे के साथ कह सकता
हूं कि लड़कियों की दुर्दशा पर आठ-आठ आंसू बहाने वाले और उन्हें बराबरी का हक
दिलाने के लिए गला फाड़कर चिल्लाने वाले मर्द कभी भी किसी गर्ल्स कॉलेज की भीतर
अकेले नहीं गए होंगे और अगर गए भी होंगे तो बिना सिर मुंडाए बाहर लौट कर नहीं आए
होंगे। पहली बार मेरा जाना हुआ था जब मिताली फीस भरने के आखिरी दिन पैसे और
आईकार्ड घर भूल आई थी और पापा ने मुझे सीधे उसकी प्रिंसीपल के ऑफिस पहुंचने का
हुक्म सुनाया था। बास्केट बॉल कोर्ट की दीवार पर तीस-चालीस लड़कियां कोरस में
टांगे झुलातीं दिख गईं तो नज़रों समेत मेरा पूरे का पूरा सिर 60 डिग्री के कोण पर
झुक गया। बड़ी मुश्किल से हकलाते हुए एक से मैंने प्रिंसिपल ऑफिस का रास्ता पूछा
तो गेट से दाएं, फिर तीन दरवाज़े पार बाएं, फिर सीधे, दाएं और बाएं का दुरूह
रास्ता समझ जिस जगह पर मेरी यात्रा खत्म हुई उसके सामने संड़ांध मारता टायलेट नज़र
आया। उल्टे पैर वापस बाहर आया तो सामूहिक ठहाकों ने ऐसा स्वागत किया कि फिर वापस
अंदर...
उसके बाद का हाल
रहने देते हैं क्योंकि जानकर आप यूं भी मज़े लेने के अलावा और कुछ नहीं करेंगे। तो
मैं दोबारा क्यों बनूं बकरा। मैं? यानि इस छोटे से शहर की इकलौती यूनिवर्सिटी में पोलीटिकल
साइंस के प्रोफेसर का इकलौता बेटा जो उनकी दो होनहार बेटियों के बीच पैदा होने की
गलती कर गया था।
“एक
जनम औरत बनके गुजारना पड़े तो पता चले इन लोग को, बरामदे में
बैठ कर हुकुम चलाना और कुसमय चूल्हा जलाने में क्या अंतर होता है”, आधी कड़ाही तेल में प्याज़ के पकौड़े छोड़ती मम्मी जब भी भुनभुनाती,
तो पीछे के दरवाज़े से चाय के लिए दूध की थैलियां लेकर घुसते-घुसते
मैं चुपके से उनकी प्रार्थना के साथ अपनी अर्ज़ी भी लगा देता, “हे भगवान, बाकी सब वैसा ही रहने देना बस अगले जन्म में इस घर में बेटी
बनाकर ज़रूर पैदा कर देना, चाहो तो उसके लिए ये जन्म थोड़ा शॉर्ट कर दो।“
बाहर बरामदे पर उसके तीन घंटे पहले से पापा अपने साथी प्रोफेसरों और स्टूडेंट्स
के साथ बिल क्लिंटन की इम्पीचमेंट से लेकर वाजपेयी की तेरह दिन की सरकार और वॉर्ड
कमिश्नर के चुनावों में मुन्ना पांडे की हार तक की वजहों पर धाराप्रवाह बहस कर रहे
होते। पकौड़ों की खुशबू से उनके दो-चार भगत और जुट जाते और दूध की खाली पतीली धम्म
से ज़मीन पर पटक मम्मी मेरे स्टडी टेबल के सामने झोला और पैसे लिए खड़ी हो जाती, ‘पीछे के दरवाज़े से जाना और पीछे से ही आना
समझे ना।‘
पापा के सुधारवादी
आधुनिक ख्यालों के पीछे हमारा परिवार इतना मॉडर्न तो हो ही गया था कि लड़किओं को लड़कों के बराबर का अधिकार देने का
रिवाज़ घर में पूरी तरह लागू था लेकिन इतना मॉडर्न भी नहीं हुआ था कि लड़कों को
लड़कियों के बराबर के हक दे दिए जाएं। इसलिए बहनों को तो पढ़ाई का हर्जा कर घर और
रसोई के काम मां का हाथ बंटाने की सख्त मनाही थी लेकिन सिलिंडर भरवाने से लेकर
सब्ज़ी लाने जैसे काम अभी भी मेरी जिम्मे थे। बहनों को देर शाम के ट्यूशन या उनकी
सहेलियों के घर तक लाने-पहुंचाने का बोझ तो मैं जाने कब से उठा रहा था।
हम बड़े संस्कारी
टाइप मुहल्ले में रहते थे जहां एक परिवार की बेटी सबकी बेटी होती थीं और एक का बेटा
सबका सामूहिक नौकर। गेट पर पापा से बतियाते सिंह अंकल का चेहरा मेरे हाथ में बाइक
की चाभी और खाली झोला देखते ही खिल उठता। बड़ी नफासत से गुटका हमारे गेट के अंदर
थूकते वो आवाज़ देते, “मोटरसाइकिल से ही निकलोगे ना बबुआ, चौधरी के मिल पर हमारा
आटा पिसा होगा, दस किलो का, उठाते आना ज़रा। जब से बबलू बंगलौर गया है, तुम्हारी
आंटी हमसे ही करवाती रहती हैं ये बेगार।“
ये अलग बात है कि जब
मैं निकर में ही घूमता था और मेरे जिम्मे के कामों में केवल चौराहे की दुकान से
ब्रेड और अंडा लाना भर था तब से मैंने बबलू भैया को मुहल्ले में नहीं देखा था। असल
बात तो फुलपैंट पहनना शुरू करने के काफी बाद मालूम हुई कि बबलू भैया को दरअसल
मुहल्ले की सर्वसम्मति से निकाला गया था, अपने पिता के जिगरी दोस्त की इकलौती सुपुत्री से
इश्क लड़ाने की हिम्मत के जुर्म में। वैसे इन ‘लफड़ों’ के जानकार अब भी एकमत थे कि पहल सिन्हा अंकल की
बेटी विनीता ने ही की थी। सिन्हा आंटी ने बबलू भैया को आवाज़ दी थी कि अपने घर के
साथ उनकी रसोई के लिए भी दो-चार सब्ज़ियां ले आएं। लेकिन विन्नी दीदी के पकड़ाए
सब्ज़ी के थैले और नोटों के बीच फकत दस शब्दों का एक छोटा सा पुर्जा भी मिला बबलू
भैया को। बबलू भैया का गुनाह बस इतना था कि उन्होंने जवाब देने में ज़रूरत से
ज्यादा देर लगा दी। विन्नी दीदी के ‘ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें’ के जवाब में शायर मिज़ाज
बबलू भैया ने शहर की सारी लाइब्रेरियां छान मारीं और ग़ालिब की शायरी से लेकर
साहिर के गीतों और राजेश खन्ना के संवादों का ऐसा कॉकटेल तैयार किया जिसे पढ़कर
उनकी मंडली में सबकी आखें भीग गईं। चूंकि साहित्यिक नगीनों से लबरेज़ ऐसी रचना के
साथ लेखक का नाम नहीं डालना ज्यादती होती इसलिए पंचों की राय से ख़त को एक आखिरी
बार फेयर किया गया और नीचे बड़े गोल अक्षरों में नाम भी लिखा गया ‘बलराज सिंह’। उसके बाद डेढ़ दिन और लगे
उस परफेक्ट परफ्यूम की खोज करने में जिसे उस ख़त पर छिड़ककर विन्नी दीदी तक
पहुंचाया जा सकता।
विन्नी दीदी सुबह की
चाय अपने घर के बगीचे में टहल-टहलकर पीती थीं ये मुहल्ले के सभी लौंडों को पता था।
छोटे से पत्थर में गुलाब के फूल के साथ चिट्ठी को बांध कर उसी वक्त फेंका गया।
लेकिन वो गिरा सिन्हा अकंल के पैरों के पास जो उस सुबह माली से क्यारियों की सफाई
करा रहे थे। वो दिन कोई और होता तो भी शायद सिन्हा अंकल ‘बलराज सिंह’ को डीकोड करने में ज्यादा
मेहनत नहीं करते। लेकिन उस दिन उनके घर कुछ खास मेहमान आने वाले थे इसलिए पैसों और
झोले के साथ समोसे, मिल्क चॉप और लिम्का की बोतलों की लिस्ट पकड़ाते वक्त
उन्होंने बबलू भैया से ही पूछ लिया कि, ये बलराज सिंह कौन है।
विन्नी दीदी की शादी
की तारीख तीन महीने बाद की निकली लेकिन तब तक बीएससी कर सिविल की तैयारी कर रहे
बबलू भैया पैक होकर बंगलोर के उस प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में भेजे जा चुके थे।
मैंने फुलपैंट पहनना इस घटना के सात साल बाद शुरु किया। तब तक विन्नी दीदी तो तीन
बच्चों की मां बन चुकी थीं लेकिन हमारे बबलू भैया इंजीनियरिंग कॉलेज के थर्ड ईयर
तक भी नहीं पहुंच पाए। इतने धक्के खाकर वो कर्नाटक के प्राइवेट इंजीनियरिंग
कॉलेजों में एडमिशन के इन्साईक्लोपीडिया ज़रूर बन गए थे। आजकल वो अपना कमीशन लेकर 45
से 85 परसेंट वाले किसी भी होनहार का अलग-अलग फीस पर प्रांत के किसी भी
इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन करा सकते हैं। मुहल्ले में ये कहावत मशहूर थी कि
लड़का अपने बल पर कुछ कर गया तो ठीक नहीं तो बबलू तो है ही, कहीं ना कहीं धरवा कर
इंजीनियर तो बनवा ही देगा बबुआ को। लब्बोलुआब ये कि लड़का वही काबिल समझा जाता था
जिसे बबलू के हवाले करने की नौबत नहीं आए।
बबलू भैया का
काम-काज हालांकि ठीक ही चल रहा था और तैंतीसवें साल में व्हाईटफील्ड में एक लॉज के मालिक की इकलौती बेटी एस. श्रीलता से बकायदा प्रेम-विवाह
कर मकान-मालिक भी बन गए थे, लेकिन उनकी
बाद की पीढ़ी में जवान हुए लड़कों में मुहल्ले की लड़की से इश्क लड़ाने का जोश
ठंढा ही पड़ा रहा। ये तलब मिटाने दूर-दराज़ के मुहल्लों या आस-पास के शहरों के चक्कर
भले ही लगा लिया करते थे लोग-बाग। ख़ैर, बात से बात ही नहीं बात की खाल भी निकल
जाती है बेमतलब। कहां अधकचरे बालों वाले बबलू भैया और कहां नया-नया जवान मैं।
‘दिल तो पागल है’ वाले साल में जब धड़कनें माधुरी के पारदर्शी
सूट के बजाए करिश्मा के टाइट्स से बढ़ती थीं, अपनी जवानी का पहला अहसास मुझे यूं
ही नहीं हुआ, करवाया गया। उस दिन जब मैं बाइक पर बैठकर मिताली को उसके ट्यूशन से
लेने गया और मिताली के कराए परिचय के जवाब में थोड़ी चौड़ी कमर और चुंधियाने वाले
गोरे रंग की उस बाला ने हलो बोल तीन बार अपनी आखें झपकाईं। इसके पहले मैं मौसमी
दीदी के दोस्तों के गाल खींच ‘ये भाई लेने आया है तुम्हें, हाऊ क्यूट’ का ही अभ्यस्त था। हालांकि
उस ज़माने में मैं एटलस साइकिल चलाता था और गिरने के डर से दीदी और मैं साइकिल
पकड़े चलते-चलते ही घर आते थे। ये कमाल मेरी अधकचरी दाढ़ी का था या राजदूत का पता
नहीं लेकिन थोड़े समय के लिए मैं उसकी आंखों से नज़रें हटाना भूल ही गया। कुछ तो अलग
था उनमें, ओफ्फ ओह, उसने आखों के ऊपर भी काजल लगा रखा था। यूं बहनों के चलते
लड़कियों के साजो सामान का इतना ही बड़ा एक्सपर्ट था कि मॉव और मैजेंटा के बीच का
फर्क बता सकता था लेकिन आंखों के ऊपर लगाया जाने वाला काजल आज पहली बार देख रहा
था।(उसे आई-लाइनर कहते हैं ये थोड़े समय बाद पता चला) उसने इस बार प्रश्न वाचक में
पलकें झपकाईं तो मुझे अपनी नज़रें वापस मिताली पर टिकानी पड़ीं।
‘ट्यूशन क्लास ज्यादा लंबी चल गई भाई, आज
प्रियंका को उसके घर ड्रॉप करते चलेंगे प्लीज़?’ मैं मिताली की आवाज़ में अनावश्यक मिठास को
नज़रअंदाज़ करता बस बिना वजह मुस्कुराता रहा। उस समय पहुंचा तो मैं दोनों को कंधे
पर बिठाकर भी सकता था। यूं बीच में मिताली ही बैठी फिर भी सारे रास्ते पीठ में
गुदगुदी होती रही। उतरने के बाद उसने मेरी तरफ देखकर दो बार पलकें झपकाईं और
मिताली को थैंक्स बोलकर हवा हो ली।
नॉट बैड, मैंने
हिसाब लगाया। पहली मुलाकात में ना केवल मैं बाला के घर तक पहुंच गया था बल्कि मेरी
इश्कबाज़ी के नए खुले अकाउन्ट की बैलेंस शीट में चार मुस्कुराहटें और एक अधूरा सा
थैंक-यू भी दर्ज हो चुका था।
इस उत्साह में घर
पहुंचने पर ये भी ध्यान नहीं रहा कि पापा बरामदे में ही बैठे हैं, मैं सीधा सामने
के दरवाज़े से अंदर जाने लगा।
‘बंटी नमस्ते करो, भोपाल वाले चौबे अंकल हैं ये’, पापा के साथ रहकर हम सब अब
किसी अपरिचित इंसान से परिचय कराए जाने पर भी अपने चेहरे पर ऐसे भाव लाने में
एक्सपर्ट हो गए थे जैसे हमारे घर में कनछेदन भी फलाना अंकल की सहमति से ही होता
हो।
‘क्या करते हो बेटे’,
‘जी बीकॉम के साथ सीए का एंट्रेंस’, पापा मेरा जवाब वैसे भी पूरा
कहां होने देते हैं कभी,
‘कॉमर्स पढ़ रहे हैं साहबजादे, दो बहनों का
क्लीनिक संभालने के लिए अकाउन्टेंट तो चाहिए ना, हे हे हे।‘
अब तक मैं इस ज़लालत
पर भी मुस्कुराना सीख गया था और वैसे भी पीछे से मिताली तो आ ही रही थी नमस्ते की
अगली कड़ी संभालने।
ऐसा नहीं है कि पापा
नहीं जानते चार्टर्ड अकाउन्टेंट और अकाउन्टेंट का अंतर, लेकिन साइंस हमारे पापाजी
की दुखती रग रही है। उन्हें पता है कि राजनीतिक प्रवचन कर वो एक के बाद एक हॉस्टल
के वॉर्डन से लेकर यूनिवर्सिटी के एग्ज़ामिनेशन कन्ट्रोलर जैसे पदों पर भले ही बने
रहें लेकिन आर्ट्स विषय का प्रोफेसर डेढ़-डेढ़ सौ बच्चों के पांच बैच को ट्यूशन
पढ़ा, फिज़िक्स के प्रोफेसर की तरह तीन मंज़िला मकान कभी नहीं ठोंक सकता।
मौसमी दीदी एमबीबीएस
थर्ड ईयर में थीं और मिताली बीएससी के साथ तीसरी बार मेडिकल एंट्रेंस की तैयारी
में जुटी थी जबकि दूसरी कोशिश में उसे डेंटल मिल भी गया था। इसके बावजूद मैंने
इंजीनियरिंग की तैयारी में केवल एक साल बर्बाद करने के बाद कॉमर्स लेने की धृष्टता
की थी। जबकि हमारे वाले उस कहावत में विश्वास रखते थे कि ‘बेटी बिगड़ी तो हुई नर्स आ
बेटा बिगड़ा तो पढ़े कॉमर्स।’ मने मैं तो बबलू भैया की शरण में भेजे जाने के लायक भी
नहीं बचा था अब।
चारों तरफ से लात
खाता तो पत्थर भी चिकना हो जाता है, मैंने थोड़ा बचते हुए खुद को सिलिंडर बना लिया था। एकदम जेम्स
बॉंड के सीक्रेट कैप्सूल जैसा सिलिंडर, जिसके भीतर गुप्त दस्तावेज़ की तरह मेरा
फ्यूचर प्लान सेट था। सीपीटी निकालकर मुझे किसी तरह दिल्ली निकल लेना था, बबलू
भैया के बंगलौर से उल्टी दिशा में, इश्क, नौकरी, पैसा सब वहीं। इस उम्र में रोमांस
के पहले इतना सोचने वाला धैर्य भी म्यूज़ियम में रखने लायक ही होगा।
यूं किसी पारखी ने
मुझे अभी तक पहचाना नहीं था लेकिन मैं जानता था कि लड़कियों के मामलों का मुझसे
बड़ा एक्सपर्ट आस-पास के दो-तीन शहरों में भी नहीं होगा। मैं तीन चार घंटे बिन
झल्लाए शॉपिंग कर सकता था, एक साथ दस-बारह गोलगप्पे खा सकता था, शहर की सबसे ताज़ी
सब्ज़ियां सबसे कम कीमत पर ला सकता था, लैक्मे और मेबीलिन के नेलपॉलिशों के दाम
में अंतर बता सकता था। यहां तक कि लड़कियों के उन दिनों वाले चेहरे को 15 साल की
उम्र से ही पहचानना भी सीख गया था। मने साइंस को छोड़ दें तो ऐसी कोई वजह नहीं थी
कि कोई लड़की मुझे रिजेक्ट कर सके। ये बात अलग है कि ये कसम भी मैंने ही खाई थी कि
मुझे इस शहर में रहकर कोई रिस्क नहीं लेना। मेरे अंदर प्यार की पहली लौ यहां नहीं
जलेगी, दैट्स इट। दो बहनों के बीच के सैंडविच भाई को अपने शहर में जवान होते-होते
ऐसी कई हकीकतों से जूझना पड़ता है जिसे बाकी जनता नहीं समझ सकती।
दो दिन में मैं पलकें
झपकाती बाला के बचे खुचे एहसास को कंधे से झाड़ने में कामयाब हो चुका था कि तीसरे
दिन वो अपने दरवाज़े पर नज़र आ गई।
‘मित्तू की फ्रेंड है, साथ पढ़ने आई है’, मम्मी कंधे से पकड़कर उसे
अंदर पहुंचा रही थी। उसने मुझे देखा, इस बार बिना पलकें झपकाए और मुस्कान आधी इंच
और बड़ी कर ली।
नालायक, मैंने अपने
दिल को फटकार लगाई, छोटी बहन की दोस्त है, जब तक प्यार की लौ जलाएगा किसी दिन ‘भैया’ बुलाकर ये उसे फुक्क से
फूंक जाएगी। मैं बाइक निकालकर बाहर हो लिया।
उसका आना-जाना लेकिन
बदस्तूर जारी रहा। मिताली की चूं-चांपड़ से इतना पता चला गया कि वो दिल्ली में
डीपीएस से प्लस टू करके आई है यहां अपनी बुआ के पास रहकर मेडिकल का एक और चांस
देने क्योंकि फूफाजी उसके शहर में केमेस्ट्री के रजनीकांत माने जाते थे। इस बार
नहीं निकला तो वापस दिल्ली जाएगी।
उस दिन दोनों की
कंबाइड स्टडी देर तक हुई तो मुझे अकेले ही उसे घर पहुंचा आने का आदेश मिला। आरटी
चौक पर गढ्ढा आया तो उसने झटके से मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया और उसे अपने घर
वाले मोड़ तक वहां जमाए रखा।
इस बार दिल ने
विद्रोह कर दिया और दिमाग को घुटने टेकने पड़े। लौट कर सीधे अपने कमरे में आया और रिस्क
एंड ऑपरचुनिटी एनालिसिस में जुट गया। यहां समस्या सिर्फ एक थी, वो मेरी बहन की
दोस्त थी। लड़कों के बीच तो दोस्त की बहन को बहन मान उस नज़र से देखने की हिमाकत
भी नहीं करने का अलिखित रिवाज़ सालों से था। (यूं हमारे पापाजी तो छोटे मामा के जिगरी दोस्त
पहले थे जो यूं ही उनके घर आते-जाते जाने कब नाना की नज़र में कब चढ़ गए। फिर भी
मां से उनकी शादी सौ फीसदी अरेंज ही थी जिसके लिए मां आजतक अपनी किस्मत को कोसती
है।)
फिर मुद्दे से भटके,
मैंने खुद के याद दिलाया। और यहां तो सिचुएशन थोड़ी अलग थी, ये बाला दोस्त की बहन
नहीं, बहन की दोस्त थी तो इस लिहाज़ से मैं सेफ था। मुहल्ला क्या शहर के बाहर की
भी थी, तो दूसरा सेफ साइड।
दिल्ली वाली है वो,
दिमाग ने याद दिलाया।
करेक्ट, मने अभी
फर्स्ट गीयर भी चलते रहे तो दिल्ली पहुंचकर स्पीड पकड़ सकते हैं।
मेरा प्रेम वृक्ष
हरा हो रहा था लेकिन बहीखाते में झपकती पलकों, मुस्कुराहटों और इधर-उधर से फेंके
गए थैंक यू के अलावा ज़्यादा कुछ दर्ज नहीं हुआ था।
जाती हुई ठंढ वाला गुलाबी
इतवार था वो, बाहर बरामदे से पापा की मित्र मंडली के शोर से बचने के लिए मैंने
पीछे गार्डन में पढ़ने की कुर्सी निकाल ली थी। मिताली के कमरे की खिड़की से थोड़ा
परे। चुंधियाई धूप में अंदर का कुछ दिख तो नहीं रहा था लेकिन आवाज़ साफ आ रही थी।
किताबें परे रख मेकअप ट्राई किया जा रहा था। लिपस्टिक की कुछ शेड्स जो शायद
प्रियंका की दीदी ने उसे कनाडा से भेजा था।
“नो, ये क्रीमसन वाला नहीं, हमारे भाई को पसंद
नहीं डार्क शेड्स, उसे सोबर कलर पसंद है।“
“हां ये प्याज़ी मस्त लग रहा है, उस सिल्क वाले
सूट के साथ पहनना तुम, देखना भाई की नज़र नहीं हटेगी तुमसे।“
साथ में खिल-खिल
वाली हंसी। पकौड़ों की प्लेट उनके कमरे तक भी पहुंच गई थी क्योंकि मिताली की आवाज़
में गले में फंसे प्याज़ की खस-खस भी शामिल थी।
“अच्छा सुनो भाई को प्याज़ नहीं गोभी को पकौड़े
पसंद हैं। और थोड़ा ननदों को भी खुश करने का तरीका सीख लो भई वुड बी भाभी हो
हमारी। ऐसे थोड़े ना चलेगा, मम्मी पापा के पास पैरवी तो हम ही करेंगे। होली में
दीदी भी आएगी, थोड़े टिप्स उनसे भी।“
इस बार ठीं-ठीं वाली
हंसी।
मैं फौलादी सिंह बन
खिड़की के सींखचे तोड़ अंदर पहुंच जाना चाहता था, या मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य
हो सीधे उनके पीछे।
धीरज धरो नालायक,
दिमाग ने फिर नादान दिल को धरा, फल जब खुद टूट कर गिरने वाला हो तो नीचे इंतज़ार
करने में ही समझदारी है।
अकाउंट में थैंक्स और
स्माईल्स का धड़ाधड़ इज़ाफा हो रहा था, कभी-कभार उसे घर तक पहुंचाने के क्रम में
कंधों पर हाथों की छुअन भी जारी थी। कभी कभार उंगलियां भी छू जातीं। बस प्रेम पत्र
की शक्ल में सेफ डिपॉज़िट की रसीद नहीं मिल रही थी। एक बार उसे डिनर के लिए मम्मी
ने रोका तो बड़ी अदा से मिताली के बगल में ठीक मेरे सामने बैठ गई और मटर का एक एक
दाना मुंह में ऐसे रखने लगी जैसे मोती चुग रही हो। दिल्ली वाली लड़की है ना, लटके
तो दिखाएगी ही। बाइक से नीचे उतरकर कीचड़ पार करती घर के अंदर ऐसे घुसती है जैसे
परी बादलों पर चल रही हो। मम्मी भी वैसे इस पर मिताली की बाकी सहेलियों से ज़्यादा
मेहरबान रहती थीं। वरना और कोई इतना आता, खासकर मेरे दोस्त, तो फेंक कर मारती वो
जुमला, ‘बाप ने कमी छोड़ी है क्या जो अब बच्चों के दोस्तों की मेहमाननवाज़ी भी मढ़ दो
मेरे सर।‘
मेरे सब्र की इंतहा
हो रही थी लेकिन मिताली से सीधे पूछने में बहुत रिस्क था। वैसे भी इससे बेहतर टावर
चौक पर मुनादी करवा देना होता।
पीएमटी और सीबीएसई
एंट्रेंस एग्ज़ाम्स हो गए तो उसका घर आना भी बंद हो गया। मेरा दिमाग मुझे लगातार
कोड़े मार रहा था, नालायक तूने अपने सीपीटी के लिए जून की डेट फिक्स की थी, पढ़ेगा
कब?
जुलाई-अगस्त देखते
हैं, यहां का फ्यूचर तो देखूं, मैंने उसे चुप करा दिया।
साल का वो वक्त आ
गया था जब हमारे मुहल्ले के घरों में या तो मिठाई बंटती है या मरघट का सन्नाटा
पसरता है। मेरे घर में शांति थी, मिताली का रैंक थोड़ा बेहतर तो था लेकिन मिला उसे
फिर से डेंटल ही।
‘ले लो एडमिशन’, पापा ऐसे बोले जैसे लूले से शादी तय करा दी हो
उसकी।
“और तेरी उस सहेली का क्या हुआ”, शाम ढले मैं थोड़ा दबे
पांव उसके कमरे में पहुंचा और कलेजे को मुंह में आने से रोकते हुए अपना रिज़ल्ट
निकलने की राह देखने लगा।
“उसका क्या, गई वापस दिल्ली, वैसे भी पढाई को
लेकर कौन सी सीरियस थी वो”, मिताली ने कंधे उचकाए।
‘मतलब?’
“उसे तो कनाडा ही जाना था अपने जीजू के कज़न से
सगाई करके, यहां टाईम पास ही तो कर रही थी, ताकि दूर रहकर प्रेशर बनाए मां-बाप पर।
उसके पापा रेडी नहीं थे ना एक घर में दो बेटियों की शादी के लिए। मान गए लेकिन अब,
ईयर एंड पर चली जाएगी मांट्रीयल।“
“फिर उस दिन वो सब, तुम लोगों की बातें जो..”, मैं चिल्लाना चाहता था, मंजनू टाइप कुछ हरकत करना
चाहता था लेकिन मेरे कैलकुलेटिव दिमाग ने सिचुएशन कन्ट्रोल कर लिया।
छोटे शहर में दो
होनहार बहनों के बीच गलती से जन्मे भाई को उस दिन लड़कियों के बारे में बेहद
ज़रूरी जानकारी मिली। लड़कों की बिरादरी में तो दोस्त की बहन को बहन समझने का नियम
है, लेकिन लड़कियों के लिए दोस्त का भाई एकतरफा इश्क के शौक पूरे करने का रिस्क
फ्री तरीका है। ऐसा केक है जिसे एक ही साथ खाया भी जा सकता है और सामने रखकर घूरा
भी जा सकता है।
उसके आगे कहानी नहीं
ज़िंदगानी है बस, सीपीटी मैंने नवंबर में निकाला, दिल्ली उसके अगले साल पहुंचा।
बहुत एड़ियां घिसीं लेकिन पापा के तानों की याद ने कभी हिम्मत नहीं हारने दिया। विकास
मार्ग पर मेरी फर्म अच्छी चल गई है, मौका मिले तो आइएगा। मौसमी दीदी ने एमबीबीएस
के बाद ही शादी कर ली और आजकल ह्यूस्टन में अपने इंजीनियर पति और दो बच्चों को
संभाल रही हैं। मिताली ने भी क्लीनिक खोलने का आइडिया छोड़ा और आजकल चंडीगढ़ के एक
डेंटल कॉलेज में पढ़ा रही है ताकि नौकरी के साथ घर का ध्यान भी रख पाए। दिल्ली
पहुंचने पर वैसे भी मुझे कभी इश्कबाज़ी का टाइम नहीं मिला इसलिए ‘प्रज्ञा’ को पसंद करने मां और मिताली ही गए थे।
प्रज्ञा, मेरी
पत्नी, चाय का कप हाथ में पकड़े जाने कब से मेरा अटेंशन हासिल करने के इंतज़ार में
खड़ी है, मैं बड़ी देर तक उसे निर्निमेष देखता रहा। आठ सालों का साथ है, पलक झपकते
ही समझ गई कि उसे निहारा नहीं जा रहा, मैं अभी भी अपने ख्यालों में हूं।
‘कुछ अलग लग रही हो’, उसकी त्यौरियां चढ़ने के
पहले ही मैंने लीपा-पोती की पहल की।
‘अच्छा? तुमने नोटिस किया?’, उसका व्यंग्य मेरे अब
मेरे ऊपर तेल की तरह फिसल जाता है, पक्का पति बन गया हूं।
‘ये आंखों पर..’, मैंने फिर कोशिश की।
‘टार्कॉइज़ आई लाइनर है, मेरी ड्रेस का मैचिंग,
जाने दो तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ेगा, तुम बस नंबर भरो अपनी एक्सेल शीट में।‘
जाने क्यों सालों
बाद आह निकल गई। ‘जो कशिश काले रंग के आई लाइनर में है वो किसी और रंग में
कहां’, मैं कहना चाहता था। लेकिन मैंने चाय का एक घूंट लेकर आखें बंद कर ली। ऐसे
मौके पर मैं परमहंस हो जाता हूं। वैसे भी प्रज्ञा को कहां पता एक समय मैं मॉव और
मैजेंटा में भी फर्क कर लिया करता था।
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