Sunday, February 12, 2017

बियाह किलास



हम जिस दौर में आंखें खोलकर दुनिया पहचानना सीख रहे थे, शादी ब्याह के संदर्भ में लड़की क्या करती है जैसा सवाल पूछने लायक नहीं बना था. वैसे करने को तो लड़के भी कुछ नहीं करते रह सकते थे लेकिन सवाल का गैरज़रूरी होना केवल लड़कियों तक सीमित था. समय के साथ तमाम गैरत-बगैरत की जिज्ञासाओं के साथ ये सवाल भी पूछा जाना शुरू हो गया तब उर्वरक दिमागों ने एक नया शब्द इज़ाद किया, लड़की बियाह किलास में पढ़ती है. अर्थात, जब तक बियाह तय नहीं हो जाता है, कॉलेज में नाम लिखा दिया गया है. बियाह किलास में पास होने के लिए इम्तिहान होना या रिज़ल्ट निकलना कभी ज़रूरी नहीं होता था. जिस दिन लड़के वालों ने तिलक-दहेज फिक्स कर मुंह दिखाई की अंगूठी पहनाई, कन्या का बियाह किलास से कस्टमाइज़्ड फेयरवेल हो गया समझो. 



बिहार में लालू राज में वैसे भी ग्रेजुएशन की पढ़ाई कितनी लंबी भी चलती जा सकती थी. भारतीय रेल की पैसेंजर ट्रेन के तर्ज पर बीए की डिग्री छूटती तो किसी की भी नहीं लेकिन उसे लेकर कहीं पहुंचने की उम्मीद करना भी नासमझी की पराकाष्ठा ही थी. 18-19 की बाली उम्र में फर्स्ट ईयर में दाखिला लेने वाली लड़कियां पांच-सात साल बाद डिग्री हाथ में आते-आते अक्सर दो-एक बच्चों की माएं बन जाया करतीं. गर वर के इंतज़ार में बीए की डिग्री पहले आ गई और एमए में नाम लिखाने की नौबत आ गई तो मां-बाप की रातों की नींद भले ही उड़ जाया करती.

रिश्तेदारी में कहीं लड़की दिखाने की बात थी, हस्बेमामूल ये कार्यक्रम हमारे घर में रखा गया. लड़के वालों को पूरे जोश के साथ बताया गया कि बुनाई-कढ़ाई और रसोई के तमाम स्किल्स में सिद्धहस्तता के साथ कन्या ने हिस्ट्री ऑनर्स के साथ बीए भी कर रखा था. तमाम दूसरे मुआयनों के बीच देवरनुमा एक शख्स ने कन्या से हिस्ट्री की स्पेलिंग पूछ दी. उम्मीद के मुताबिक स्पेलिंग गलत निकली. चूंकि बाकी मुद्दों पर दोनों पक्षों की बातचीत का नतीजा सकारात्मक था सो तमाम डिस्कशन में से इसी एक सवाल को नकारा समझ कर खारिज किया गया और लड़के वाले शादी की तारीख पक्की कर के ही विदा हुए. 

बहरहाल, जब तक लड़कियों की बियाह और किलास की समानांतर पढ़ाई चलती रहती, वो हफ्ते में तीन-चार रोज़ वैशाली की एकलौती नोटबुक लेकर, सहेलियों के साथ, एक सौ पिचहत्तर रूपए सालाना फीस वाले, घर के सबसे पास वाले कॉलेज के लिए निकलतीं और तीन घंटा क्लास में बैठ, लौटते वक्त रास्ते से कभी मां के मंगाए साड़ी फॉल, कभी पड़ोसन के घर से बुनाई के डिज़ायन तो कभी मुरब्बे के लिए आंवले खरीदते हुए वापस घर पहुंच जातीं. वैशाली की वो नोटबुक पढ़ाई के नोट्स के साथ कढ़ाई के नमूने ट्रेस करने से लेकर लौकी के हलुवे की रेसिपी नोट करने तक के काम आती. किसी रोज़ सहेली के 'पार लग' जाने की खबर सुनकर आह निकालती घर आतीं और दरवाज़े के झरोखे के झांक कर अपने वर संसाधन पर अपडेट सुनतीं.

यूं बियाह किलास के सब्जेक्ट हिस्ट्री, पोलटिकल साइंस, सोसलोजी या साइकलोजी जैसे विषय होते थे और उन विषयों को धराए जाने के पीछे तर्क ये दिया जाता कि बीच में अगर बियाह किलास की परीक्षा क्लीयर हो भी गई तो छुट्टिओं में मायके आने की रस्म के दौरान भी परीक्षा देकर पास हो जाया सकेगा. हालांकि कुछ ज़्यादा होनहार बेटियों को जूलोजी या बोटनी भी पढ़ने की अनुमति भी मिलती थी. विषय जो भी हो, एक बार बियाह किलास में दाखिले के बाद सब धान बाइस पसेरी की तर्ज पर सब लड़कियां एक समान हो जाया करतीं

उसके बाद उनकी मार्केट वैल्यू उनकी कद-काठी, गृह कार्य में दक्षता के अलावा शादी के बाज़ार में उन्हें बेचने वाले की मार्केटिंग स्किल्स और जेब की गहराई पर निर्भर हो जाया करती. बाकी बचे आउट ऑफ कन्ट्रोल वेरिएबल्स का ठीकरा लड़की के भाग्य के सिर पर फोड़ दिया जाता. कन्या के माता-पिता लड़के वालों को कर जोड़ विनीत भाव से सूचित करते कि अपनी ओर से कन्या की पढ़ाई जारी रख उन्होंने दरवाज़े खुले रखे हैं लेकिन आगे सबकुछ उनकी इच्छा पर निर्भर करेगा. नहीं चाहेंगे तो पाक कला विशेषांक वाले गृहशोभा के अलावा कागद को हाथ तक नहीं लगाएगी.

अब ज़माना बहुत बदल गया है. लड़कियों को आज़ादी है, वो अपना करियर खुद चुनती हैं, घर छोड़कर पढ़ाई करने दूसरे शहर भी जा सकती हैं, पढ़ाई पूरी होने तक शादी की सुगबुगाहट भी नहीं होती. वो ठाठ नौकरी करती हैं, और अपने दम पर अपना मार्केट वैल्यू तय करती हैं.

उनकी बोली लगाने का काम दरअसल उसके बाद शुरू होता है जब माता-पिता कर जोड़ कर लड़के वालों को सूचित करते हैं कि ज़माने के चलन के मुताबिक अपनी कन्या को पढ़ा-लिखा कर उन्होने पैरों पर खड़ा कर दिया है, अब आगे जो वो चाहेंगे वही होगा, चाहेंगे तो लड़की घर में बैठेगी और उनका आदेश हुआ तो नौकरी भी कर लेगी.


बियाह किलास अब बियाह दफ्तर हो गया है. 

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