सोचकर तो यही निकली
थी कि इस सफर की भी एक कथा होगी, आखिर इससे अच्छा
कॉकटेल क्या होता सफरकथा के लिए जहां किले हैं, प्राचीर हैं, विरासत है, इतिहास है, रंग है और रंग बिरंगे टूरिस्ट भी. जहां टिकट
खिड़की पर हर जगह कतार इतनी लंबी कि दमकते, चहकते, इतराते, तौलते चेहरों को देखने
में ही दृष्टि की कई रीलें चुक जाएं.
इतिहास की गलियों के
बीच से इंसान कितना एकांगी होकर गुज़रता है. कानों में मशीन लगी है और आंखों के
सामने तख्ती पर खुदे हैं चंद अंक. स्वचालित मशीन में वो अंक दबाते ही इतिहास आपको
अंदर झांक लेने की सीमित अनुमति देता है. सिर्फ उतना सुनने समझने की अनुमति, जितना
आपके वर्तमान की हैसियत है. और वर्तमान की
हैसियत केवल स्थूल को समझ पाने की होती है. पलंगों की नक्काशी, छतों के झूमर, कांच
के बक्सों में क़ैद कलाकृतियों बीच से निरपेक्ष होकर गुज़र जाने की भी अपनी एक
यंत्रणा होती है. इतिहास बड़ा निष्ठुर होता है, जितने झरोखे खोलता है उससे कहीं
ज़्यादा दरवाज़े बंद किए देता है. कमरे, दरवाज़े, चौक, चौराहे सबका एक नाम है, सबकी एक कहानी है जो जाने कितनी हकीकतों को
कुचलकर वर्तमान को नसीब हुई है. कहानी चाहे जैसी दिलचस्प हो चालीस कदम के बाद याद
से उतर जाते हैं. कान की मशीन चीख रही है, वो उस ओर चीनी तोप है, उसे टटोलकर देखे
बिना संपूर्ण नहीं होगी आपकी ये यात्रा. मैं आसमान की ओर मुंह करके केवल पक्षियों
का कलरव सुनना चाहती हूं. दीवारों पर तोपों के निशान हैं और हर निशान के पीछे एक वीभत्स
युद्ध की गाथा. यहीं राष्ट्रभक्त शहीदों के गौरवगान का भी वक्त होता है, जिन्होंने
राष्ट्र और कुल की शान के लिए पीछे मुड़कर नहीं देखा, अपनी जान न्यौछावर कर दी.
सत्ता के लिए निजी
अहम को राष्ट्रभक्ति में बदल लेना क्या हमेशा ही इतना सहज होता होगा?
मुझे वास्तु की समझ
नहीं मैं किले की सबसे उपेक्षित दीवार को टटोलकर उसके पीछे दुबकी किसी हकीकत को
आश्वस्ति के साथ निकाल लेना चाहती हूं. लेकिन घटनाएं मृत हैं अब, इतिहास के शोर
में उनकी ओर कोई नहीं नज़र नहीं उठाता. इतिहास निष्ठुर होता है, वो गवाही नहीं
देता, सच छुपाता है. इतिहास की हर पंक्ति के पीछे जाने कितनी कोमल कहानियां कुचल
दी जाती हैं. उस एक पल में मैं दम तोड़ती उन कहानियों को सहेज लेना चाहती हूं. लेकिन
उन कहानियों पर कोई विश्वास नहीं करेगा.
द्वार पर पूजा की
माला और सिंदूर के अंलकृत हैं कुछ हथेलियां. कान में लगी मशीन चीखती है, ये किले
की सती माताओं की हथेलियों की छाप है. पैर वहीं ठिठक जाते हैं, कान आगे सुनने से
इंकार कर देते हैं. कुछ हथेलियां इतनी छोटी हैं कि आप उन्हें परे कर उनके पीछे छुपे
मासूम चेहरों की अनगढ़ हंसी सुन लेना चाहते हैं. चेहरों की लालिमा, हृदय की
जिजीविषा के स्पंदन को महसूस कर पाना इस शोर में संभव नहीं, आप बस धिक्कार से अपना मुंह
घुमा ले सकते हैं.
बड़े भाग्यशाली होते
हैं वो लोग जिनके पैरों के निशां वक्त की हवाएं मिटा ले गईं, वो लोग भी जिन्हें
इतिहास की किताबों में शब्द भर की ज़मीं भी मुकम्मल नहीं हुई, वर्तमान और भविष्य
उनको कभी अपने स्वार्थ के लिए तोड़ मरोड़ नहीं पाएगा.
यात्रा में कई महलों
में घूमना हुआ जिनके एक हिस्से में होटल और दूसरे में संग्रहालय बनाए गए हैं. प्रीविपर्स
खत्म होने के बाद राजपरिवारों ने अपने घर के ज़ेवर-कपड़ों के साथ बर्तन तक सजा कर
उनपर टिकट लगा दिए है.
जैसलमेर के किले के
अंदर पूरे का पूरा शहर बसा है, राजपरिवार की सेवा में लगे राजपूत और ब्राह्मण परिवारों को वहां
रहने की अनुमति मिली थी, उनकी पीढ़ियों के सैकड़ों परिवार अब भी यहां है और किले के भीतर पर्यटन से जुड़ा
कोई ना कोई व्यापार कर रहे हैं. अंदर गाड़ियों की आवाजाही बंद है लेकिन दो पहिया
वाहन धड़ल्ले से अपना रास्ता बना रहे हैं.
नगरसेठ का घर ‘पटुओ की हवेली’ के नाम से ख्यात है. वहां राजमहल
से भी ज़्यादा रंग है, ज्यादा अंलकरण, ज़्यादा ऐश्वर्य और वैभव. पटुआ सेठ के पास
धन इतना ही था कि महारावल भी इनसे कर्ज लिया करते थे, वो ऐश्वर्य हर कोने में नज़र
आ रहा है. लेकिन गाइड ने बताया दरअसल ज़्यादातर रंग-रोगन पटुआ सेठ के बाद की आमद
हैं. हवेली को खरीद कर पर्यटन के लिए खोलने वाले श्रीमान कोठारी ने नए ज़माने के
सैलानियों की पसंद को ध्यान में रखते हुए हवेली को नए तरीके से सजाया है.
तथ्यों के साथ छेड़खानी
करने में बाज़ार इतिहास से पीछे थोड़े ही है. इतिहास से बच भी जाए कोई, बाज़ार से
कैसे बचाए खुद को?
No comments:
Post a Comment