Thursday, November 26, 2015

मेरी प्यारी मां


मेरी प्यारी मां,
आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है इसलिए जाने कितने सालों बाद तुम्हें खत लिखने बैठ गई। याद है ना मां इसके पहले आखिरी खत मैंने कॉलेज से लिखा था जब फर्स्ट सेमेस्टर की परीक्षा के पहले मेरा दिल बहुत घबरा रहा था और घर का फोन आउट ऑफ आर्डर था। कितने साल बीत गए उस बात को...शायद उन्नीस या बीस। जानती हूं आज भी जब तुम सुनोगी तो हंसोगी। दिन में तीन बार तो फोन पर बात होती है हमारी...बच्चों के होमवर्क से लेकर डिनर के मेन्यू तक हर चीज तो पता होती है तुम्हे मेरे घर की। फिर आज मैं तु्म्हें लिखने क्यों बैठ गई अचानक? फोन क्यूं नहीं किया? तुम्हारा दिन तो वैसे भी तीनों बच्चों के फोन के इंतजार में ही कटता है ना...
पर फोन तो तब करते हैं ना मां जब एक दूसरे से कुछ कहना सुनना हो। जब केवल कहना ही कहना हो तब? मन का बोझ हल्का करने के लिए। और ये सब कोई मां के अलावा और किससे बांट सकता है।

जानती हो मां अभी घर में बिल्कल अकेली हूं।  बच्चे अपने पापा के साथ अम्यूज़मेंट पार्क गए हैं। असल में मां...एक्चुअली, कल रात मेरे और सचिन के बीच बहुत लड़ाई हुई। सचिन ने मुझसे कहा कि मैं स्वार्थी हूं, अपने करियर, अपनी मह्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कभी भी अपने परिवार और बच्चों की...ये भी कहा कि मेरे साथ उनकी जिंदगी नर्क.....और तो और उन्होंने मेरे चरित्र......  खैर जाने दो मां कुछ बातें शब्द दर शब्द किसी को नहीं बताई जातीं। मां को भी नहीं।

बंद कमरे में मर्द जो जह़र उगलते हैं उसे पत्नियों को नीलकंठ बनकर पीना होता है ताकि कोई तीसरा उसके बारे में कभी जान ना पाए। पता नहीं कहां से सीखा ये सब मैंने...दुनियादारी और गृहस्थी के जितने पाठ मेरे चाहे अनचाहे तुमने मुझे सिखाए उनमें ये सब तो कभी नहीं बताया। शायद तुम्हें भरोसा होगा कि चार्टर्ड अकाउन्टेंट बनने के बाद मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा।

अभी लैपटॉप लेकर बैठी थी...एक ऑडिट खत्म करना है परसों तक। लेकिन ध्यान जाने कहां कहां भटकने लगा। बचपन की बातें याद आ गई मां...बंद कमरे से घंटों तुम्हारी घुटी-घुटी और पापा की चीखा-चिल्ली की आवाज़ आती रहती और हम तीनों लिविंग रूम में रिमोट से खेल रहे होते। जब दरवाज़ा खुलता तो पापा मुस्कराते हुए बाहर आते और हमसे पूछते घूमने चलोगे? तब आप कहां होती थीं मां...बिस्तर पर तकिए में मुंह छुपाए या बाथरूम में दरवाजे से सिर टिकाए? पता नहीं....हमनें कभी ये जानने की जहमत नहीं उठाई। बस कपड़े बदले और पापा के साथ निकल लिए। फिर उस दिन पापा हमें खूब मस्ती कराते थे....और दिनों से भी बहुत-बहुत ज्यादा। पार्क में...बाजार में....रेस्तरां में.... शाम ढले जब हम लौटते तो हम सबके हाथों में नए खिलौने होते थे और पेट में चाट, गोलगप्पे, आइसक्रीम और जाने क्या-क्या।

सूजी आंखें और उदास चेहरा लिए आप चुपचाप खाना लगा रही होतीं। हममे से कोई आधी रोटी खाता तो कोई बस दूध पीकर सोने की जिद करता। आप सारा बचा खाना समेट कर फ्रिज में रखतीं और हमारे सिरहाने आकर बैठ जातीं और हमारे सिर सहलातीं। मस्ती भरी शाम की खुमारी को आँखों में समेटे हम तुरंत सो जाते। हमने कभी नहीं पूछा मां कि आपने खाना खाया या नहीं। सुबह जब हम उठते तो आप किचन में होतीं सबके टिफिन के डब्बे तैयार करने में व्यस्त। हम कभी नहीं जाने पाते कि बीती रात आपने कहां बिताई। हमारे पैताने, लिविग रूम के सोफे पर या आखिरकार आप गईं अपने कमरे में। कई दिन तक आप ऐसे ही गुमसुम रहतीं और हममे से किसी ने उन दिनों की गिनती याद रखने की कोशिश नहीं की।  

मां क्या पापा भी आपको वही सब सुनाते थे जो अपना आपा खोने के बाद सचिन..? नहीं मां...पापा ऐसी बातें कभी नहीं बोल सकते थे...या कि बोल सकते थे अपनी पत्नी को वो भी? वो तो हम तीनों के हीरो हैं हमेशा से। आपको तो पता ही है ना मां, भैया, मैं और मीनू हर वक्त बस पापा की ही तो रट लगाया करते थे। प्रोजेक्ट हो तो पापा की हेल्प, शॉपिंग हो तो पापा का साथ। जिस दिन बस छूट जाती हम उछलते-कूदते पापा के साथ स्कूल जाते। और तो और छठे-छमाहे जब कभी पापा खाना बनाते तो हम उनके तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते। आप तो रोज हमारी पसंद का खाना बनाती थीं और आपको हमारी तारीफें मिलतीं थीं कभी-कभी, वो भी तब जब हम इतने बड़े हो गए कि हमारे दोस्त घर आकर आपका बनाया खाना उंगलियां चाट-चाटकर खाने लगे।

सच बताइए मां क्या आपको कभी जलन नहीं हुई पापा से? खासकर तब जब आपकी हर बात हमें कांटे से चुभा करती थी और हम हमेशा पलट कर आपको जवाब दिया करते थे? याद है मां जब खाली समय में आप हमें किचन में हाथ बटाने को कहा करती थीं और हम पापा के पास शिकायत करने पहुंच जाते थे कि आप हमारी पढ़ाई डिस्टर्ब कर रही हैं। एक बार तो पापा ने आपको हमारे सामने ही इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था, क्या चाहती हो मेरी बच्चियां भी तुम्हारी तरह बस घर संभालती रह जाएं? इन्हें तो कुछ बनने दो.....और पापा का कद और ऊंचा हो गया था हमारी नज़र में।

क्यों पलट कर जवाब नहीं दिया पापा को उसी समय आपने। फर्स्ट क्लास एमए थीं आप, उन दिनों कई नौकरियां मिल सकती थी आपको। फिर क्यों नहीं चिल्ला कर कहा पापा को कि उन्होने ही नहीं करने दी आपको नौकरी ताकि एक करियर के चलते तीन-तीन भविष्य दांव पर ना लग जाएं। लॉजिक तो यही देते रहे ना पापा सबके सामने?
एक मिनट ! आज कुछ मत छिपाओ, सच-सच बताओ ना मां कि सच्चाई क्या यही थी आपकी नौकरी नहीं करने के पीछे ?  या कुछ और। इतना तो याद है ही कि जब कभी दादी आती और आप गलती से भी बीमार पड़ जाती तो एक शाम की सब्जी छौंकने में उन्हें भी चक्कर आने लगते फिर अपनी नौकरी के लिए उनसे मदद की उम्मीद तो आपने कभी रखी नहीं होगी और पापा को नौकरों के हाथ का खाना एक वक्त भी पसंद नहीं था। बस इतनी सी बात थी कि या बेटियों के लिए इतने फॉर्वर्ड होने का दावा करने वाले पापा को भी गुरेज़ था आपके वक्त बेवक्त घर से बाहर रहने.....नए-नए लोगों से मिलने-जुलने, अपना अलग सर्किल बनाने और अपनी नज़र से दुनिया देखने की आज़ादी पर? अब तो बता दो ना मां?  पिता के आदर्श की कोई मूर्ति खंडित नहीं होगी मेरे मन में...बस समझना थोड़ा आसान हो जाएगा उस इंसान को जिसे अच्छी तरह समझ लेने के एहसास के बाद ही सहमति दी थी मैंने शादी की। याद है ना क्या कहा था मैंने आपसे, सचिन बिल्कुल पापा जैसे हैं  
कैसे पिछले जन्म की बातें लगती हैं सारी...खैर इन सबको छोड़ो मां...उस दिन क्यों चुप रहीं आप...क्यों चिल्ला-चिल्लाकर पापा से नहीं कह दिया कि ये खोखले आदर्श और बेटियों को झूठे सपने दिखाना छोड़ दें, क्यों आपने हंसकर बस इतना कहा कि, नौकरी के साथ घर भी तो इन्हें ही संभालना है।

और हम बेटियों की बेरूखी इतने साल कैसे बर्दाश्त की आपने मां?  क्या पता था आपको कि शादी की शुरुआती खुमार उतरते ही हम दोनों अपने आप आपको समझने लगेंगे? अरे नहीं मां, पहले मेरी सुन लो, अब मीनू की चिंता भी मत करने लग जाना। उसको को चार साल ही हुए हैं अभी और उसकी बिटिया भी तो छह ही महीने की है। और अनिरूद्धजी तो...खैर उस बारे में तो अब कुछ भी कहने से डर लगता है।

कैसे इतने साल आप ये सब चुपचाप देखती रहीं मां? हमारे भविष्य के लिए या घर की सुख शांति के लिए? और आपकी खुशी का क्या मां? क्या सचमुच गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है आपका जब लोग आपको इतने काबिल बच्चों के लिए बधाई देते हैं? बेटा कॉर्डियोलॉजिस्ट, एक बेटी सीए और दूसरी कॉर्पोरेट लॉयर। क्या वजूद की, अपने होने के एहसास भर की....सांस लेने....खुलकर जीने की, अपनी आकांक्षाओं, मह्त्वाकांक्षाओं की सारी ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं मां..गृहस्थी और मातृत्व की ज़िम्मेदारियां भर पूरी कर लेने से?  या तुम अभी भी हमसे सबकुछ छिपा रही हो? बताओ ना मां...क्या हो पूरी तरह संतुष्ट तुम अपने आप से? और कुछ नहीं तो इतना तो बता दो ना मां...ताकि आज एक फैसला ले सकूं अपने जीवन का..अपनी सहूलियत, अपनी मर्ज़ी के हिसाब से। दो रास्तों पर चलते-चलते थकने लगी हूं अब...और रास्ते कौन से सीधी लकीर में चल रहे हैं...फासले बढ़ते ही जा रहे हैं उनके बीच के। नहीं संभाले जाते अब इतनी सारी ज़िम्मेदारियों, इतनी सारी उम्मीदों के बोझ।
 
बस अब रखती हूं मां......कोई बेल बजा रहा है.....कुक ही होगी...ज़रा चेहरा ठीक कर लूं...फिर जाकर उसे मना कर दूंगी रात का खाना बनाने के लिए। नहीं मां...आपकी तरह खाना बनाकर इंतज़ार नहीं करती मैं ऐसे दिनों में जब पता हो सब बाहर से खाकर ही घर आएंगे....और आपके बच्चों की तरह मेरे बच्चे मन रखने के लिए कौर दो कौर खाते भी तो नहीं। रही बात मेरी, तो मैगी से काम चला लूंगी आज रात। काफी सारा काम खत्म करना है शाम तक। आज रात भर बिस्तर पर जमी रही तब जाकर शायद हो पाए। और हां मां...अपना बेडरूम नहीं छोड़ती मैं ऐसे दिनों में....बच्चे कमरे में आकर गुडनाइट किस दे देते हैं। सचिन को फैसला करने देती हूं अगली कई रातों के लिए जगह चुनने का। प्रोफेशनली क्वालीफाइड और वर्किंग वुमन होने के नाते शायद इतना सा आकाश, इतना सा आत्मविश्वास ज्यादा मिला है मुझे आपके मुकाबले।   

दूसरी बार भी घंटी बज गई....अब सचमुच बंद करना होगा। और आप बिल्कुल निश्चिंत रहिए मां...ये चिट्ठी कभी आप तक कभी नहीं पहुंचेगी। जानती हूं, कल-परसों नहीं तो अगले हफ्ते तक सब ठीक हो जाएगा हमारे बीच। सालों पुराने प्यार की खातिर नहीं तो बच्चों की परवरिश की खातिर..परिवार से शर्म की खातिर। लेकिन तुम्हें अगर इसकी भनक भी लगी तो तुम कभी चैन से नहीं सो पाओगी। 
वैसे बिना जाने भी क्या चैन की नींद ले पाती हो मां?  



No comments:

Post a Comment