Saturday, December 22, 2018

बायोलॉजी और साइकोलॉजी का फ़र्क




जाने किस संयोग से बीते हफ्ते दो-तीन सहेलियों-सहकर्मियों ने बातचीत में जानना चाहा कि पीरिएड्स की उम्र के आस-पास बेटियों से बातचीत किस आधार पर शुरु की जाए. हम माएँ परवरिश का आधा ककहरा यूँ ही साझा अनुभवों से सीख लिया करती हैं. मेरे लिए ये बात हालाँकि साल भर पुरानी ही है लेकिन पहली शुरुआत के बाबत ठीक-ठाक कुछ याद नहीं आया. मैंने बिटिया को ही पूछा, उसने हँसते हुए याद दिलाया कि पूछने की पहल उसकी ओर से हुई थी. हाँ, और मेरे मुँह से इतना सुनकर कि ये एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है, वो छूटते ही ये कहती पिता के पास भाग ली थी कि आपकी बायोलॉजी तो बड़ी वीक थी, पापा बेहतर समझाएँगे. पापा ने बक़ायदा पेपर पर ड्राइंग कर समझा दिया था.

मेरी बायोलॉजी वाकई कमज़ोर रही लेकिन जुड़वां भाई के साथ बड़ी हो रही बिटिया को पीरिएड्स को लेकर सहज करने के लिए माँ को बायोलॉजी से ज़्यादा साइकोलॉजी की समझ चाहिए थी.

हमारी पीढ़ी तक लड़कियों और लड़कों की परवरिश में फर्क की सबसे बड़ी विडम्बना समझाने की ही रही है. हर बात को जबरन समझाने की जितनी अनिवार्यता लड़कियों के लिए रही लड़कों को ख़ुद समझदार हो लेंगे के तर्ज पर उससे उतना ही दूर रखा गया. नामालूम ख़ुद समझ लेने की नौसर्गिक क्रिया लड़कियों के लिए ही इतनी असंभव क्यों प्रतीत होती रही.
बहरहाल, उसके कुछ हफ्ते बाद बच्चों के स्कूल ने एक अवेरनेस वर्कशाप कराया. लड़कों का अलग, लड़कियों का अलग. बेटा ने घर आकर चिहुँकते हुए सबको बताया कि उसे स्कूल में लड़कियों वाले डायपर हाथ में दिए गए. उसके बताने में तथ्य से ज़्यादा कौतूहल था, जवाब से ज़्यादा सवाल. बायोलॉजी का पाठ उसने बहन जितना ही पढ़ा था लेकिन दोनों की समझ में अनुभव का जो अंतर आना था वो अपनी जगह बदस्तूर था. उसे स्कूल में जिन दिनों के दौरान क्लास की लड़कियों से सेंसेटिव रहने की शिक्षा दी गई थी, वो उन दिनों के बारे में और जानने को उत्सुक हो रहा था. लड़कियों का डायपर उसकी जिज्ञासा की फेहरिस्त में नया शामिल नाम था. बहन और भाई के माँ-बाप से छुपाए ढेर सारे राज़ों के बीच ये नई घटना पर्दे की तरह पड़ गई थी.

माँ, बेटे से बात करने के लिए सही शब्दों के वाक्य विन्यास बुनने की प्रक्रिया में थी कि एक दिन शॉर्टकट सूझ गया. दरवाज़ा खोलते वक्त बेटे की नज़र केमिस्ट की दुकान से आए थैले पर थी, माँ ने थैला सीधा उसके हाथ में पकड़ा कर कहा, इसमें बहन के लिए सैनेटरी नैपकिन्स हैं, जाकर उसे दे दो.

बेटा ने चुपचाप काम पूरा किया और उसके बाद इस बारे में कोई सवाल नहीं किया. ना माँ से, ना बहन से.

माँ होना ताज़िंदगी एक ही कक्षा में एक ही पाठ को अलग-अलग तरीक़े से पढ़ने जैसा है. आप रोज़ नए तरीके सीखते हैं, अनुभव की नई गाँठ रोज़ आपके दुपट्टे के छोर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है. कुछ बातों को समझा पाने के लिए शब्दों की बहुलता से ज़्यादा शब्दों की किफ़ायत काम आती है. हमारे बीच तमाम दूसरी बातों की फेहरिस्त इतनी लंबी रहती है कि इस बारे में हमने वाकई लंबी बात नहीं की. यूँ भी महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप समझाते समय शब्दों का चयन किस निपुणता से करते हैं. ज़रूरी ये है कि समझा पाने के बाद आपके शब्द आपके दैनंदिन व्यवहार में परिलक्षित होते हैं कि नहीं.

धूप सेंकते हुए हम दोनों ने बड़े महीनों बाद इस बात पर सच में बात की है, फिर, अब कैसे डिफाइन करोगी तुम पीरिएड्स को?”

इट्स अ बायोलॉजिकल प्रॉसेस, मुझसे नज़रें मिलाती हुई वो ज़ोर से हँसती है.

माँ ख़ुद से संतुष्ट है, इस मामले में साइकोलॉजी के हिस्से की ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभ गई हैं, अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं बची. 



Sunday, December 16, 2018

टूटती वर्जनाओं के दौर में..



नई नवेली अभिनेत्रियों में सारा अली खान पसंद की सूची में तेज़ी से अपनी जगह बनाती जा रही है. उसकी अभिनय क्षमता हो, इंटरव्यू देने की दक्षता या फिर परिष्कृत हिंदी में किया वार्तालाप, पिछले कुछ महीनों में हर जगह उसने तारीफ़ें बटोरीं हैं. इन्हीं तारीफों के बीच पिछले हफ्ते एक न्यूज़ चैनल को दिया सारा का इंटरव्यू क्लिप नज़र के गुज़रा. अपने बढ़े वज़न के दिनों को याद कर सारा ने बड़ी सहजता से कहा कि उसे पीसीओडी है जिसकी वजह से वज़न बड़ी आसानी से बढ़ जाता है और उसे कम करना उतना ही मुश्किल होता है. क्लिप को रिप्ले कर दोबारा सुना. समझ नहीं आया लड़की से भोलेपन और नएपन में ये चूक हो गई या फिर बड़ी समझदारी से अपनी पीढ़ी की लड़कियों के लिए एक मिसाल क़ायम कर गई ये.

पीसीओडी यानि पॉलीसिस्टिक ओवेरी डिज़ीज़ औरतों से जुड़ी परेशानियों की फेहरिस्त में जुड़ा वो नाम है जो बड़ी तेज़ी से नई पीढ़ी को अपनी चपेट में ले रहा है. हर दस में से एक भारतीय महिला इस रोग से पीड़ित है. पीसीओडी या पीसीओएस एक किस्म का हार्मोनल डिस्बैलेंस है जिसमें अंडाशय के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे सिस्ट बन जाते हैं. पीसीओडी का संबंध केवल बेवजह वज़न बढ़ने से ही नहीं है, इसके मरीज़ों के लिए पीरिएड्स के दिन ज़्यादा तकलीफदेह भी होते हैं. मर्ज़ ज़्यादा बढ़ जाए तो डायबीटिज़, एक्ने या इंफर्टीलिटी जैसी दूसरी बीमारियों की वजह भी बनता है. बीमारी फिलहाल लाइलाज़ है और इसमें होने वाली तक़लीफ बेतरह. ज़ाहिर है जिस बीमारी के तार पीरिएड्स या गर्भधारण से जुड़े हों उसके बारे में लड़कियों को नेशनल टेलीविज़न पर यूँ बिंदास अंदाज़ में तो क्या फुसफुसाकर बात करने की बंदिश है. और ये पच्चीस बरस की लड़की अपनी पहली फिल्म के प्रमोशन के दौरान इतनी सहजता से कह गई कि उसे पीसीओडी है जिससे उसका वज़न तेज़ी से बढ़ जाता है और उसे दोगुनी मेहनत लगती है उसे वापस कम करने में. सिने तारिकाओं की सो परफेक्ट और सो पॉलिटिकली करेक्ट दुनिया में उसका अपने नॉट सो परफेक्टशरीर के बारे में सहजता से बात करना सुखद लगा.

पीसीओडी का नाम पहली बार दो बरस पहले सुना जब एक स्टूडेंड ने हिचकते हुए एक पुरुष टीचर से बात करने में मेरी मदद मांगी थी. उसे पीसीओडी था जिसके ब्लड टेस्ट के लिए अपने मासिक चक्र के दूसरे दिन उसे एक क्लास टेस्ट छोड़ हॉस्पीटल जाना था. उस वक़्त तो उसकी समस्या का समाधान कर दिया लेकिन बाद के दिनों में इस मुद्दे पर खुलकर बात करने या नहीं करने को लेकर उससे कई बार लंबी चर्चा की. निष्कर्ष ये कि उसके अगले सेमेस्टर जब उसे कम्यूनिकेशन रिसर्च का प्रोजेक्ट पूरा करना था तो उसने पीसीओडी और उसपर खुलकर नहीं हो रही बातचीत की वजहों की पड़ताल करनी चाही. अगले तीन महीने तक वो कैंपस में पीसीओडी की मरीज़ों की ढूंढती, उनके इंटरव्यू करती रही. इस दौरान जब भी उसे प्रोजेक्ट से जुड़े कुछ सवाल करने होते हम क्लास में सारे छात्र-छात्राओं के बीच खुलकर इसपर बात करते. कम्यूनिकेशन की क्लास में विषय चाहे जो हो, संवाद किसी तरह भी बाधित ना हो, मेरी कक्षाओं में ये संदेश शुरू से साफ रहा है.

बहरहाल, मास कम्यूनिकेशन की दूसरी विधा से जुड़ी लगभग उसी उम्र की एक लड़की ने इस विश्वास को फिर से पुख्ता किया है. एक-एक कर वर्जनाऐं यूँ ही टूटनी चाहिएं. नई पीढ़ी की लड़कियाँ अपने आप को सहजता से स्वीकारना सीख रही हैं. अपनी कमियों और अपनी ख़ूबियों के साथ आत्मविश्वास से अपनी ज़मीन तैयार कर रही हैं.

कई बरस पहले एक ज़बरदस्ती के हितैषी ने सलाह दी थी कि मुझे अपने थॉइराइड होने वाली बात भावी जीवनसाथी से यथासंभव छुपाकर रखनी चाहिए. मैंने दूसरी मुलाक़ात के दूसरे वाक्य में सब बता दिया था. रिश्तेदारों की थोड़ी बात तो माननी ही चाहिए.

Sunday, December 9, 2018

जाते साल के फुटनोट्स




आँखें, अलार्म बजने के कुछ मिनट पहले स्वत: खुल जाती हैं. फिर तय समय की ओर एक-एक बढ़ता सेकेंड रक्तचाप पर दवाब बढ़ाता जाता है. अलसाई ऊँगलियों से अलार्म बंद कर चादर में वापस मुँह छिपाने की मचलन जाने किन तहों में समा गईं है. सख़्त उँगलियाँ तय समय से कुछ सेकेंड पहले मोबाइल हाथ में उठा अलार्म को ठिकाने लगा कटाक्ष में मुस्कुराती हैं, जैसे किसी नादान बच्चे का मासूम सरप्राइज़ स्पॉइल करने की परपीड़ा का लुत्फ़ उठा रही हों. 

अब उठना होगा, समय से बंधकर रहना अच्छी गृहस्थियों के गुण हैं. वैसी औरतों के जो उदाहरण बन जाएँ सबके लिए. इस बात का कोई ज़िक्र कहीं भूले से भी ना हो कि बेचैनियों का सबब कुछ ऐसा कि जिस दिन घड़ी के साथ जितना सधा क़दमताल किया, वो तारीख़ अंदर से उतना ही खोखला कर गई. किसी दिन रसोई में तरतीब से लगे डिब्बे निहारते-निहारते उन्हें उठाकर सिंक में फेंक देने का मन हो आए तो उँगलियों तो चाय के कप के इर्द-गिर्द भींच बाल्कनी में निकल लेना चाहिए. पिछली सालगिरह पर तोहफे की शक्ल में मिले एक पत्ती बराबर मनी प्लांट की लतड़ियां सहारा देते डंडे को चारों ओर से अलोड़तीं, रेलिंग से उसपार उचकने लगी हैं. मन चाहे कितना भी विषाक्त हो प्रिटोनिया, अरहुल और गेंदे की खिली शक्लें देख उन्हें नोच फेंकने जैसे ख़्याल तो नहीं आएँगे.
ऊंगलियाँ ठुमककर आती ठंढ में ठिठुरने को बेताब हैं ताकि भारी पलकों को अपने पोरों से सहलाकर थोड़ी राहत दे पाएँ. दिसम्बर यूं भी साल का सबसे बोझिल महीना होता है. जाने कितनी टूटी ख्वाहिशों, अधूरी कोशिशों और टीसते सपनों का हिसाब करता कोई दुष्ट साहूकार हो जैसे. इससे नज़रें मिलाने का मन ही नहीं करता. इसके पीठ पीछे खड़ा तारीखों का वो जमघट भी है जो नए साल की शक्ल में जल्द इसके कंधे पकड़ पीछे छोड़ देगा. पूरे के पूरे पहाड़ सा खड़ा आने वाला नया साल. जी में आता है आते ही उसके सारे मौसमों को नोंच-उखाड़कर यहां वहां चिपका दूं. एक बार ये बरस और उसके महीने भी तो देखें कि सिलसिलेवार नहीं जी पाना भी एक किस्म की नेमत है. कि बेतरतीब मन की चौखट तक सपने ज़्यादा सुगमता से दस्तक दे पाते हैं. कि सपने हकीकत से पलायन नहीं जी पाने की वजह और ताकत दोनों होते हैं.
बेचैन मन को वक्त का ठहरना भी पहरेदारी लगती है और उसका चलते जाना भी. आँखें बंद कर उस अधेड़ चेहरे को याद करने की कोशिश करती हूँ जिसकी ट्राली में बैठ स्विट्ज़रलैंट में ज़रमैट से मैटरहॉर्न की यात्रा की थी. हम हिमआच्छादित पहाड़ों की विहंगम स्निग्धता को बड़े-बड़े घूंट भर पीए जाते थे कि उसकी याचना भरी आवाज़ आई, तुम्हारे देश में तो ख़ूब बड़े शहर होते होंगे.
हाँ, और धूल-धुआँ और शोर भी.
जो भी हो, मैं सब देखना चाहता हूँ, शहर, धूप, धूल, समुद्र सब चलेगा मुझे, बस अब इन पहाड़ों को एक दिन के भी नहीं झेल सकता.
उस रोज़ हम अविश्वास में हँसे थे, आज उसकी बेचैनी जानी-पहचानी लगती है.
ज़िंदगी दरअसल इर्द-गिर्द बिछी ढेर सारी चूहेदानियों का मकडजाल है, जितनी ताक़त एक से बचकर दूसरी के किनारे से निकलने में झोंक कर वक्त बिता देने में लगती है उतनी ही किसी एक में फँसकर उम्र गुज़ारने में भी. उम्र बहुत गुज़र जाए तो पता चलता है कि बच बचकर निकल जाना भी उतनी ही बड़ी सज़ा है जितनी किसी एक में फंसकर रह जाना.
सारी उम्र ग़लतियों से पर्दा किया, इस डर से कि जाने कब कौन सी ग़लती ज़िंदगी पर ही भारी पड़ जाए. इस डर से कोई ग़लती ना हो पाई, ग़लती से भी नहीं. अब ये डर सोने नहीं देता कि कहीं ये समझदारी ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती ना बन जाए. 

Sunday, November 25, 2018

सफरकथा: शिकारगाह से पक्षी विहार बने अरण्य की सैर




सुबह की हवा में हर रोज़ बढ़ती नमी को देखते हुए सूरज देव ने अपना अलार्म क्लॉक भले ही थोड़ा आगे की ओर सरका लिया हो, भरतपुर के केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में सुबह की सुगबुगाहट अभी भी अपने समय से ही शुरु हो जाती है. पार्क के गेट और टिकट खिड़की के खुलने का समय छह बजे है और उसके पहले ही वहां कैमरा और दूरबीन टांगे सैलानियों की कतार लग चुकी होती है.
टिकट से ज़्यादा होड़ रिक्शा लेने की होती है क्योंकि पार्क के दोनों ओर के ग्यारह किलोमीटर का सफर सरकारी मान्यता वाले रिक्शे या फिर किराए पर ली गई सायकिल पर बैठकर ही पूरा किया जा सकता है. पहले दिन नाश्ता निबटाकर आठ बजे पहुँचने की ग़लती की तो अंदर जाने वाले रिक्शों के लिए इंतज़ार करते सूरज सर पर चढ़ गया था. तभी दूसरे दिन हम गेट खुलने के पहले ही पहुंच कतार में शामिल हो गए.  
ये अरण्य दो नामों की वजह से जाना जाता है. पहला, पक्षी वैज्ञानिक डॉ सालिम अली का, जिनके अथक प्रयासों से ये पार्क वो शक्ल ले पाया जिसके चलते हर साल लाखों सैलानी यहां खिंचे चले आते हैं, और दूसरा, केवलादेव यानि भगवान शिव का जिनका मंदिर पार्क के दूसरे छोर पर है. डॉ सालिम अली के नाम का टूरिस्ट इंटरप्रटेशन सेंटर पार्क के गेट से चंद मिनटों की दूरी पर है जहाँ ज़्यादातर सन्नाटा पसरा रहता है. दूसरे छोर पर बने एतिहासिक केवलादेव मंदिर तक पहुँचने वाले सैलानियों की तादाद भी ज़्यादा नहीं होती. हालाँकि पार्क के बाक़ी का हिस्सा,  सैलानियों की चहल-पहल से भरा रहता है.

 
अभ्यारण्य में अगर अनुभवी रिक्शे वाले का साथ मिल गया तो टूर गाइड लेने की कोई ज़रूरत नहीं. चूंकि रिक्शे वालों का मीटर घंटे के मुताबिक चलता है, वे बड़े तफ्सील से एक-एक स्पॉटिंग लोकेशन पर रुकते, पत्तों के झुरमुठ में छिपे पक्षियों को देखते-दिखाते चलते हैं. क़िस्मत से दूसरे दिन हमें अमर सिंह जी के रिक्शे की सवारी मिली. चालीस साल से पार्क में रिक्शा चला रहे अमर सिंह के बायोडाटा की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि उन्होंने डॉ सालिम अली के साथ भी काम किया है. वो गर्व से बताते हैं कि ऐसा कोई टूर गाइड भी नहीं जो इन पक्षियों के बारे में उनसे ज़्यादा जानता हो. एक शांत और वीरान जगह पर रिक्शा रोकते हुए हमें चुपचाप नीचे उतरने का इशारा होता हैं, ग्रे हॉर्नबिल्स का जोड़ा है वहां, डॉ अली का पसंदीदा पक्षी था ये. हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ इतने ख़ूबसूरत पक्षियों के रहते भला डॉ अली को मैदानी इलाकों में हर जगह पाए जाने वाले धनेश पक्षियों से सबसे ज़्यादा प्यार कैसे हो सकता है. लेकिन अमर सिंह के ज्ञानकोश को चुनौती देने की हमारी कूवत नहीं. वैसे भी जब डॉ अली मोर की जगह, लुप्त हो रहे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड यानि सोहन चिड़िया को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की जंग छेड़ सकते थे तो हॉर्नबिल्स को सबसे ज़्यादा प्यार भी कर सकते थे.
सर्दियों में यहाँ साढ़े तीन सौ से भी ज़्यादा प्रजाति के पक्षी देखे जा सकते हैं. लेकिन सबसे पहले नज़र आता है नींद में मग्न स्पॉटेड उल्लूओं का परिवार. वैसे तो यहाँ केवल उल्लुओं की ही सात प्रजातियाँ हैं लेकिन ये वाली शान किसी और की नहीं.


सुबह के सन्नाटे को लाफिंग डव की हँसी रोशन किए जाती है. हर सौ मीटर पर रिक्शे से उतर, कबूतरों और सारसों की कई और प्रजाति के साथ बाँग्लादेश से आए ब्लू रॉबिन, सुदूर दक्षिण से आ पँहुचे किंगफिशर, स्नेक बर्ड, ट्री पाई जैसे नाम सुन, उन्हें क़ैमरे में क़ैद करते सुबह का दोपहर में बदलना भी नोटिस नहीं करते.  





झील के पानी में दो साल बाद हलचल होने को है. पिछले साल पानी कम होने के चलते यहां बोटिंग नहीं हुई तो इस बरस सरकारी कार्यवाही में हुई देर के चलते तय समय से महीने भर बाद हरी झंडी मिली है. लेकिन हमारे जाने की तारीख़ तक बोटिंग शुरू नहीं हो पाई.



आपको दो-तीन हफ्ते बाद फिर से आना चाहिए, हमारे गाइड और चालक ने घंटे भर में तीसरी बार हमसे ये बात कही है. तब तक कई सारे नए पक्षी और आ जाएँगे. लेकिन साइबेरियन हंसो का जोड़ा अब यहाँ कभी नहीं आ पाएगा. उनकी आवाज़ में ये बताते हुए अफसोस है कि कुछ बरस पहले यहाँ से वापस जाते वक्त हिमालय की तराई में उनका शिकार कर लिया गया. हालाँकि अगर हमारी किस्मत साथ दे तो भारतीय हंसों से जोड़े को हम आज भी देख सकते हैं. कई बार घूमते-घामते वो सड़क से दिखाई देने वाली दूरी तक आ जाते हैं. हमारी क़िस्मत उस दिन आधी साथ थी, दूरबीन से प्रेमरत हंस दिखाई दे गए, क़ैमरे में क़ैद नहीं हो सके.
सैलानियों की सबसे ज़्यादा भीड़ पेंटेड स्टोर्क्स की कालोनी के सामने जमा होती है. सैकड़ों रंगीन सारसों के कलरव से ये पार्क का सबसे गुलज़ार हिस्सा भी है. सारसों की ब्रीडिंग खत्म होने के चलते झील के बीचों बीच बबूल के पेड़ों की कोई डाली ऐसी नहीं बची जिसपर घोंसला ना हो और उन घोंसलो से चोंच निकाले, रूई के गोलों से सफेद चूज़े, अपने खाने के इंतज़ार में शोर ना कर रहे हों. पूरी तरह वयस्क होने पर इन सारसों की चोंच नारंगी और शरीर पर नारंगी, गुलाबी और काली धारियां नज़र आने लगती है. इस वजह से इन्हें पेंटेड स्टोर्क्स का नाम मिला है.


पार्क में आने वाले प्रवासी पक्षियों को अपना शीतकालीन आशियाना पहले से कुछ ख़ाली-खाली, उजाड़ सा दिखेगा. इस साल मई में आए भयंकर तूफान में हज़ारों की तादाद में पेड़ गिर गए थे. पार्क की मुख्य सड़क के दोनों ओर ही विशालकाय पेड़ गिरे नज़र आते हैं जिन्हें यहां के नियमों के मुताबिक उठाया नहीं गया है.

एक समय ये पार्क, राजस्थान के राज परिवारों और अंग्रेज़ हुक्मरानों का शिकारगाह था. कभी यहां दिनभर में मारे गए पक्षियों की संख्या पत्थरों में खुदवा कर रखी जाती थी. केवलादेव मंदिर के सामने बड़े-बड़े शिलालेख, यहां के शिकार के इतिहास की तस्दीक करते हैं. एक दिन में सबसे ज़्यादा पक्षियों के शिकार का रिकॉर्ड 1938 में वॉयसराय, लॉर्ड लिनलिथगो के नाम है. उस साल नवंबर की बारह तारीख को इस जंगल में 4,273 पक्षियों का शिकार हुआ था जो अभी तक विश्व रिकॉर्ड है.
उन शिलालेखों से ध्यान हटाकर हमने केवलादेव शिव मंदिर की ओर रुख किया. बोगनविला की लताओं के बीच छोटे सा मंदिर अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी आमंत्रित करता है. हालांकि बहुत कम लोग यहाँ तक आते दिखते हैं.



हमारे हाथों में बड़े प्रेम से प्रसाद रखते पंडित जी को उनसे बातचीत की हमारी उत्सुकता भली लगती है. हमें अपने हाथों के बने कढ़ी-चावल और चूरमा खिलाने के प्रस्ताव की मनाही के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ. मंदिर के इतिहास के बाद उनकी शिकायतों की बारी है, घर-परिवार छोड़ पचास सालों से यहाँ रह रहा हूं, राज परिवार के ट्रस्ट से मिली 24 हज़ार रुपए सालाना तनख्वाह पर काम चलाता हूं, मज़ाल है जो सरकार ने एक पैसा भी इस मंदिर पर ख़र्च किया हो.पार्क के गिफ्ट शॉप के अधिकारी, पुजारी जी की शिकायत पर हौले से मुस्कुराते हैं, धार्मिक आस्था का प्रश्न नहीं होता तो सरकार इस मंदिर को कब का हटवा चुकी होती. पक्षी अभ्यारण्य में भला मंदिर का क्या काम?”  इस सवाल पर लंबी बात हो सकती है लेकिन फिलहाल अपने रिक्शे वाले का शुक्रिया करने का वक्त है. दोबारा ज़रूर आना, उनका आग्रह जारी है.

बाहर निकलते समय हमने अपना कैलेंडर खोला, नबंबर के आख़िर में शायद एक और लंबा सप्ताहांत मिले.






Sunday, November 11, 2018

बाज़ार ना हों तो भावनाएँ सूख जाएं



दिवाली की जगमग रोशनी के बीच एक अधेड़ औरत मिट्टी के बने दिए और सकोरे बेचने की असफल कोशिश कर रही है. दिये ख़रीदने आया एक बच्चा अपने फोन से उसकी तस्वीर भी खींच लेता है और अगले दिन उसके सारे दिये हाथों-हाथ बिक जाते हैं. जो आँखें पटाखों पर लगी रोक से नहीं गीली हुईं वो सवा तीन मिनट के इस वीडियो को देखते ही अविरल बहने लग पड़ीं. मेरे फोन पर अलग-अलग स्रोतों से पहुंचे इस वीडिओ को इतनी बार देखा गया कि आख़िर में नज़रों ने ये भी पकड़ लिया कि पोस्टरों पर लगी तस्वीर दरअसल वो नहीं है जो बच्चे ने अपने कैमरे से ली थी. हालांकि पहली बार में आँखें इतनी भर आईं थीं कि उस प्रिंटर कंपनी का नाम ही नज़रों से रह गया जिसके प्रचार के लिए भावनाओं का इतना सुंदर ताना-बाना बुना गया था. फिर भावुक दिल ने दुनियादार दिमाग को फटकार लगाई, विज्ञापन ना होता तो इतने सुंदर वीडियो को बनाने के लिए वक्त और पैसा कहां से आता मूर्ख. अब वजह जो हो, दिये लकदक दुकानों के बाहर लगी पटरी से ही लिए गए और पटाखे जलाने से बचा वक्त उनमें प्यार से तेल भरकर जलाने में ख़र्च किया गया.

इस दिवाली वायरल हुए इस वीडिओ ने लोकप्रियता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए. अकेले यू ट्यूब पर इसे एक करोड़ बार देखा जा चुका है जबकि फेसबुक पर 87 हज़ार से ज़्यादा बार शेयर किए जाने के बाद इसे 48 लाख दर्शक मिले. ट्विटर पर तू जश्न बन के हैशटैग के साथ ये विज्ञापन तीन दिन तक ट्रेंड करता रहा. लब्बोलुआब ये कि तीन मिनट की इस फिल्म ने सफलता के वो सारे मकाम हासिल कर लिए जिसे विज्ञापन की भाषा में टचिंग द राइट कॉर्ड कहा जाता है.

कभी-कभी लगता है कि अगर बाज़ार ना हो तो हम सब संवेदनाशून्य हो जाएंगे. बाज़ार ही है जो हमें ख़रीद फरोख्त के साथ भावानाएं भी पिरोकर थमाता जा रहा है. कैडबरी सेलिब्रेशन हो या एमेजॉन, बिग बाज़ार हो या रिलायंस, बाज़ार रिश्ते बनाने के लक्ष्य भी निर्धारित करता है और उन्हें हासिल करने का ज़रिया भी बताता जाता है.

दिवाली पर फॉर्वर्ड हुए सैकड़ों संदेशों ने इनबॉक्स भर दिया. फेसबुक पर फॉर यू वाले संदेश हासिल करने का सौभाग्य भी मिला. लेकिन इनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने नाम से याद किया, चेहरा याद कर मिस किया. नाम वाले पर्सनलाइज़्ड संदेश आए भी तो फोन के मैसेज बाक्स में. कांपती उंगलियों और धड़कते दिल से यू हैव बिन मिस्ड ए लॉट इन लास्ट सेवरल मंथ्स, वाले जिस संदेश को पढ़ा गया उसे भेजने वाले का नाम फुटस्टेप्स डिज़ायनर फुटवियर था जहां अभी तक केवल दो बार जाना हुआ. लेकिन उनका दिल इतना उदार कि आज भी ना नाम भूले ना मिलने की तारीख़. त्यौहार वाले दिन खाना बनाते-बनाते हमारे चेहरे का नूर ख़त्म हो जाएगा इसकी चिंता केवल बिरयानी बाई किलोज़ को हुई जिसने केवल 90 मिनट में गर्मागर्म बिरयानी हमारे दरवाज़े तक पहुंचाने की पेशकश की. जन्मदिन वाले दिन, बिना नागा, वी केयर फॉर यू कहता जो पहला बधाई संदेश मिलता है उसे वो बैंक भेजता है जिसमें हर महीने (तारीख़ नहीं बता सकती) तनख्वाह जमा होती है.

बाज़ार हमें हमारे होने का एहसास भी कराता है और हमें अपने आप पर इतराने की वजह भी देता है. लो जी, पड़ोसियों को हमारा नाम नहीं मालूम तो क्या, मॉल में कितने हैं जिन्हें हमारे नाम के साथ हमारी जन्म कुंडली भी पता है.

भारत एक भावना प्रधान देश है और विज्ञापन उन भावनाओं का अविरल बहने वाला सोता, जो बाज़ार की गंगोत्री से निकलकर चहुं ओर बहता-बहता, वापस उसी स्रोत में समाकर उसे और विस्तार देता जाता है. अब किया जाए भी तो क्या, भावनाएं पिरोना है ही महंगा शौक. दिल चाहे जितना बड़ा हो, छोटा बटुआ तो इस शौक को अंजाम तक पहुंचाने से रहा. ऐसे में संवेदनाओं के एक-एक मोती को चुन-चुनकर उसे पूंजी के साथ निकालने का एक ही मकसद होता है, उसका इस्तेमाल उस चुंबक की तरह करना, जो और बड़ी पूंजी की उंगलियां थामे वापस घर पहुंचे.

बाज़ार कर्म और भावना प्रधान होने के साथ पूरी तरह से धर्म और पंथ निरपेक्ष भी है. अब देखो ना, अपने कठिन श्रम से वैलेंटाइन डे और मदर्स डे का वट वृक्ष तैयार करने के साथ उसने मातृ-पितृ दिवस के नवांकुर भी खिला दिए. बाज़ार खुशी चाहता है, जितनी खुशियां उतना बेहतर. वो जानता है कि हम कार ख़रीदने जाएं या कपड़े, हमें उसके साथ ख़ुशियां भी गिफ्ट रैप करके देनी हैं.   

दिवाली मना, भले ही हमारी थकान अभी तक शिराओं में हावी हो, मज़ाल है जो बाज़ार एक मिनट को भी सुस्ताने गया हो. दिवाली की लड़ियां उतरीं नहीं कि क्रिसमस की बत्तियां टिमटिमाने का वक्त आ गया. जब तलक हम रज़ाइयों और गद्दों को धूप दिखाएंगे, रंग-बिरंगे गिफ्ट रैप में लिपटी ख़ुशियां, दस्ताने पहन, फिर से दरवाज़े पर दस्तक देती मिलेंगी. जितनी मर्ज़ी हो समेट लो.

क्या कहा, बटुआ कराह रहा है? अमां उस पर भी ऑफर है, नया ख़रीद लो.

Monday, November 5, 2018

कोउ ना जाननहार



सौतेली माँ ने नए-नवेले दामाद से शिकायत की कि उसकी पत्नी खुले तालाब में छाती मल-मलकर नहाती है, दामाद बाबू को ग़ुस्सा आ गया और उन्होंने ससुराल में ही पत्नी की पिटाई कर दी. कुछ साल बाद एक बार पत्नी को लेकर पंजाब भाग गए. वहां एक बार उससे कहा, इतने बांके-सजीले सरदार घूमते हैं यहां, तुम्हें क्या कोई पसंद नहीं आता. पत्नी से सिर पकड़ लिया, किस सिरफिरे के पल्ले बंध गई, कभी झूठी शिकायत पर हाथ उठाता है तो कभी बीवी को लड़के पसंद करने को कहता है. जाने कैसे कटेगी इसके साथ ज़िंदगी मेरी. आगे की ज़िंदगी काट पाना सचमुच दुरूह था, फक्कड़ पति भटकता रहा अपनी अनगिनत यात्राओं पर, पत्नी नाममात्र की ज़मीन के सहारे अकेले छह बच्चों को पालने का संघर्ष करती रही. उनकी पढ़ाई-लिखाई के साथ उनके मुंडन, उपनयन, शादी के भी सरंजाम जुटातीं. पति को ख़बर जाती तो समय पर उपस्थित भर हो पाते.
कहानी बाबा नागार्जुन की है, सुनी थी उन बैठकों को दौरान जिनका उनके जीवन के आख़िरी सालों में सौभाग्य मिला.  उन दिनों जितनी बार उनसे मिलना होता, हौले से हंसते हुए थोड़ी लटपटाई हो चली ज़बान में कई कहानियां सुनाते रहते.  एक बार राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत की यात्रा पर थे, एक स्थान पर पहुंच राहुल जी ने उनसे लौट जाने का आग्रह किया और कहा कि रास्ते में उनके परिवार से मिलते, उनकी सलामती का संदेश पहुंचाते जाएं. मिलने पर राहुल जी की पत्नी रो पड़ीं, कहा, उनसे पूछना मेरी क्या ग़लती जिसकी ये सज़ा मिली मुझे. राहुल जी की मां ने बहु को रोका, किसके सामने रो रही हो, ये भी तो किसी को ऐसे ही छोड़ आया है. ये बात सुन बाबा उस बार घर लौट आए, लेकिन वो लौट आना भी फिर किसी नई यात्रा को निकल जाने का अल्पविराम ही था.
दरभंगा में बिताए उनके जीवन के आख़िरी सालों को करीब से देखा. बड़े सुपुत्र शोभाकांत जी का परिवार उनकी परिचर्या करता. अपनी बड़ी बहु की हिम्मत की बाबा बड़ी प्रशंसा करते. उन्हीं बड़ी बहु ने एक बार मुझसे कहा था, मैं इन्हें अपना श्वसुर नहीं मानती, वो होते तो मेरे बच्चों को श्लोक सिखाते, मेरे दालान पर बैठ घर के बड़े होने का कर्तव्य निभाते, लेकिन इन्होंने इसमें से कुछ भी नहीं किया. इनकी सेवा इसलिए करती हूं क्योंकि ये मेरे गुरु है और देश की इतनी बड़ी विभूति हमारे पास धरोहर है.
बाबा की पत्नी अपराजिता देवी से कभी मिलना नहीं हो पाया. आख़िरी सांस तक भी उन्होंने अपना गांव, अपनी डीह नहीं छोड़ी. उनकी मत्यु बाबा से बरस दो बरस पहले हुई थी. चूंकि ख़बर नहीं बनी तो पता नहीं चल पाया. एक बार मंदिर में उनकी बड़ी बहु से मिलना हुआ, बाबा की सेहत को पूछा तो हाथ पकड़कर रो पड़ीं, वो तो ठीक हैं लेकिन मेरी मां चली गईं.” परिवार के अंदर उनकी लौह इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प का इतना ही मान था.
आज बाबा की 20वीं पुण्यतिथि है. उनके बारे में, उनके लिखे के बारे में बात करने का दिन. शायद इन बातों को याद करने का सही दिन नहीं. आज का लिखना लेकिन तो भी रुक नहीं पाया. अंतर्मन को ये बात हमेशा मथती रहती है कि अमृता प्रीतम को याद की जाने वाली हर तारीख़ पर उनकी लेखनी से ज़्यादा उनके और इमरोज़ के रिश्ते और उस रिश्ते में इमरोज़ के त्याग और समर्पण को याद किया जाता है.
लेखन कठिन विधा है, जीवसाथी का त्याग और सहयोग जिसमें बहुत अपेक्षित है. बाबा के जीवन को बहुत क़रीब से देखने का सौभाग्य मिला. पति से अपमानित, तिरस्कृत होकर भी उनके लिखे को संवारने वाली वीएस नायपॉल की जीवनी के कई  हिस्से भी पढ़े. बावजूद इसके पति के लेखन के पीछे पत्नियों के त्याग की ऐसी जाने कितनी कहानियां होंगी जिन्हें कोई नहीं दुहराता, जो शायद किन्हीं पन्नों में दर्ज नहीं हुईं या गर हुई भी हों तो उन्हें पलटने की ज़रूरत अब किसी को नहीं होती.



Thursday, October 18, 2018

जब मर्द ‘कुछ’ नहीं करते



लड़कियों ने साफगोई से बोला कि अकबर ने कुछ नहीं किया.
जब कुछनहीं किया तो आरोप किस बात का? सत्ता के मद ने अपनी ऊंचाई से बिना नीचे झांके प्रश्न किया. फिर अपने मान को हुई हानि से नाराज़ हो आँखें लाल कर ऐसा गुर्राए कि पूरा सिस्टम सावधान की मुद्रा में सर्कस की अगली कड़ी का इंतज़ार करने जुट गया.
क्योंकि मान की हानि के लिए तो कानून में प्रावधान है लेकिन आत्मविश्वास को छलनी करने पर जुर्माना भी नहीं लगता. मर्यादा की सीमा लांघने में कानूनी तो दूर, सामाजिक अड़चन भी नहीं होती. चूंकि पब्लिक प्लेस में हैं औरतें तो पब्लिक प्रॉपर्टी हैं आपके लिए.
आप कुछ नहीं करते हैं, बस झांक लेते हैं, खुले बटन के अंदर, कपड़ों की तीन तहों के पार, शरीर की गोलाइयों में. काम करती वो लड़की असहज हो अपने कपड़ों की साज संभाल में व्यस्त हो अपनी लापरवाही के अपराधबोध से भर जाती है. आपका क्या, झांकने का कोई सबूत थोड़े ही ना छोड़ा आपने.
आप टटोल लेते हैं, भीड़ में, अकेले में, अंधेरे में, हाथ को मौका नहीं मिला तो नज़रों से. आपका मुर्झाया अहम पोषित हो उठता है, अपने आत्मविश्वास पर पड़ी चोट से वो और सिकुड़ जाती है अपनी खोल में. आपके लिए वो शरीर है, उससे जुड़े चेहरे का आपके लिए कोई मतलब नहीं, उसके लिए आप एक चेहरा हैं दशहत का, कायरता का. वो चेहरा जो आंखें बंद करते ही उसे डराता है लेकिन सबके सामने उस चेहरे पर उंगली उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई होगी वो.
आप दबोच लेते हैं, मौका मिलते ही, बोलकर, मांगकर, गिड़गिड़ाकर, झपटकर. क्योंकि ना सुनना आपको सिखाया नहीं गया, वैसे ही जैसे औरतों को नहीं सिखाया गया बोलना. वैसे भी उसके शरीर पर आपके पंजों के निशान का कोई फोरेंसिक सबूत नहीं.
ना कपड़े नोंचे, ना मुंह पर हाथ रख चीखें रोकीं, ना बदन पर चोटों के निशान छोड़े. फिर कैसा अपराध और किस बात का अपराधबोध? आपकी बेशर्म नज़रें, आपके असभ्य ठहाके, आपके भद्दे चुटकुले, आपकी लिज़लिज़ी उंगलियां, इनमें से कुछ भी कुछ कहां है जिससे समाज के बेचैन हो जाने की नौबत आए.
क्योंकि मर्दों के कुछ करने का मतलब होता है औरतों को वैसी स्थिति में ला छोड़ना जिसके बाद वो अपना चेहरा छिपाती फिरें, ख़ुद को अपने अंधेरों में क़ैद कर लें या अगर ज़रा भी ग़ैरत हुई तो परिवार की इज़्ज़त का फंदा गले में डालकर झूल जाएं. फिर इन दर्जन दो दर्जन लड़कियों ने तो पलक भी नहीं झपकाई, बेग़ैरतों की तरह हर रोज़ काम पर आती रहीं, प्रमोशन पाती रहीं, करियर बनाती रहीं. यही नहीं, इनकी शह पर एक पूरी पीढ़ी निकल आई है अपने-अपने घरों से और फैल गई हैं चारों ओर.  टिड्डियों की तरह.  
ये ही क्यों, जितनी लड़कियां इतने सालों बाद जाने किस की शह पर चपड़-चपड़ बोले जा रही हैं उन्होंने उसी वक्त शोर क्यों नहीं मचाया? क्योंकि उस वक्त उन्हें विरोध के नहीं बचाव के तरीके सिखाए गए थे. उन्हें रास्ते सुझाए गए मुख्य सड़क छोड़ पगडंडियां नापने के. लेकिन वो तो वाकई ढीठ निकलीं, फिर भी नहीं छोड़ा उन्होंने अपना रास्ता. देर से ही सही, पहुंचने लगीं अपनी मंज़िल पर.
औरतों का शरीर आपके लिए अपनी सत्ता और रसूख से हासिल की जा सकने वाली भौतिक सुविधाओं की लंबी फेहरिस्त में एक है. आपको लगता है जब आप महंगी गाड़ियां, घड़ियां और जूते ख़रीद सकते हैं तो दर्जनभर देह क्या चीज़ है. आपको लगता है कि रसोई और बिस्तर में एक चुनना हो तो समझदार लड़की रसोई क्यों चुनेगी भला?
आपमें से ज़्यादातर के लिए शायद लड़कियों के छेड़ना उतना ही खामखा का काम है जितना राह चलते कुत्ते को पत्थर से मार देना. जिससे आपका कुछ बनता बिगड़ता नहीं बस एक सैडिस्टिक प्लेज़र मिल जाता हैअहम पर थोड़ा सा मल्हम लग जाता है. ना कुत्ता अपने पीठ पर लगे धाव की रिपोर्ट लिखाने जाता है और ना ही लड़की ना अपने चोटिल आत्मविश्वास को दिखाकर किसी से शिकायत कर पाती है.
यौन उत्पीड़न के बारे में मुखर हो पाना औरतों के लिए उतना ही बड़ा निषेध है जितना नामर्दी मर्दों के लिए है. आपको अपने लिंग के तमाम फायदे गिनाए गए, उन्हें अपने शरीर की कमज़ोरियां दिखाई गईं. क्योंकि उन्हें अपने बचाव के लिए झुंड में रहना सिखाया गया, उसी झुंड में वो बाहर आ गई हैं
यूं भी जिस देश में यौन शोषण के बाद प्रेमिकाओं की हत्या कराने वाले तथाकथित राजनीतिज्ञ प्रेमी सालों खुले सांड़ की तरह घूमते रहते हैं, उस देश में कुछ नहीं करने के बाद भी नप जाने वाले मंत्री औरतों की एक पूरी पीढ़ी के लिए आसमान में सुराख कर पाने के बराबर है.
अब आपके डरने का वक्त आ गया है, जानते हैं क्यों? क्योंकि बेग़ैरत, बेहया लड़कियों की पूरी फौज सड़कों पर निकल आई है, फैल रही हैं ट्ड्डियों की तरह हर ओर. आप डरिए, इसलिए भी कि उन्होंने आपसे डरना छोड़ दिया है. एक की आवाज़ दूसरी के लिए वो सांस बन रही है जिसके दमपर वो ढूंढ पा रही है अपने प्रतिरोध के शब्द भी.
उसने तब नहीं कहा क्योंकि उसे चुप रहना सिखाया गया, आप नहीं सुधरे क्योंकि आपको सीमा में नहीं रहना सिखाया गया. लेकिन अब जब उसने अपना पाठ बदल डाला है तो समय आ गया है कि आप भी अपना सिलेबस रिवाइज़ कर डालें. 

Tuesday, October 2, 2018

ज़िंदगी की निष्पाप कतरन है 'विलेज रॉकस्टार्स'




देखने को तो सुई-धागा और पटाखा के बीच किसी एक को चुना जा सकता था. या फिर मंटो, स्त्री या मनमर्ज़ियां के इक्के-दुक्के बच रहे शो की दौड़ भी लगाई जा सकती थी, जो बच्चों की परीक्षाओं के बीच निकल गईं. फिर भी इतवार की शाम विलेज रॉकस्टार्स का आकर्षण सभी बड़े नामों को काफी पीछे छोड़ गया. इतने सारे विकल्पों के बीच भी थिएटर लगभग सारी सीटें भरी देखना सुखद रहा.

विलेज रॉकस्टार्स दरअसल फिल्म नहीं, बेहद सरल ज़िंदगी की वो निष्पाप और अनछुई कतरन है जिसे दूर से निहारते रहने से मन नहीं भरता लेकिन पास जाकर छूने से मैली हो जाने का भय होता है. फिल्म का कोई भी किरदार आपके लिए अभिनय नहीं करता. उनके पास कैमरे में आँखें डालकर बोलने के लिए भारी भरकम संवाद नहीं है. ज़्यादातर वक्त तो वो एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर भी नहीं बोलते. लेंस के एक ओर वो अविरल अपनी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव लांघते चले जाते हैं और दूसरी ओर बैठे आप मंत्रमुग्ध से उनकी सुबहों और शामों खुद की डूबता-उतरता पाते हैं. उनकी ज़िंदगी मुश्किलों भरी है जिसे उसी तरह से जीना उन्होंने सीख लिया है, उसमें बाहरी चमक-दमक और हस्तक्षेप की कोई जगह नहीं.

पूरी फिल्म बिना किसी अतिरिक्त बैकग्राउंड साउंड के आगे बढ़ती है. चिड़ियों की चहचहाहट, पानी के कलकल, यहां तक कि हवा की सरसराहट में भी इतना मधुर संगीत है कि एक समय बाद आपको अपने पॉपकार्न की आवाज़ भी अशांति पैदा करती लगेगी.

शुरुआती क्रेडिट तीन स्लाइड्स में खत्म कर फिल्म उसी गति में आगे बढ़ती है जिसमें उसके किरदारों का जीवन चलता है. कहानी के केन्द्र में है दस साल की धुनु और उसकी मां बसंती का खूबसूरत और सशक्त रिश्ता. मां जो पति को खोने के बाद घर-बाहर की सारी ज़िम्मेदारियां अकेली उठाए जा रही है फिर भी अपने बच्चों, ख़ासकर बेटी के सपनों को मरने नहीं देती बल्कि उन्हें पूरा कर पाने की हर संभव कोशिश करती है. धुनु को केवल लड़कों का साथ पसंद है. खिलौनों के अभाव में इन बच्चों की टोली मनोरंजन के जैसे मौलिक तरीके ढूंढ लाती है वो बचपन की मासूमियत और स्वाभाविकता को जीवंत कर देता है.

गांव की औरतें जब धुनु को लड़कों के साथ खेलने के लिए डांट लगाती हैं तो बसंती अपना आपा खो बैठती है. पहले मासिक चक्र के प्रतिबंधों को पूरा करने के बाद धुनु जब वापस अपने दोस्तों के साथ उछल-कूद में मगन हो जाती है तो मां के चेहरे पर खिंच आई स्निग्ध मुस्कान अनमोल है. सफेद साड़ी, तुड़ी-मुड़ी ब्लाउज़ और लगभग सपाट छाती वाली ये मां फेमिनिज़्म और वुमन एमपावरमेंट का इतना सशक्त पाठ पढ़ाती है जिन्हें हज़ारों जुमलों और सैकड़ों पन्नों को छानकर भी समझा नहीं जा सका है.

एक दृश्य में अपनी मां से तैरना सीखते हुए धुनु पूछती है, तुम इतना अच्छा तैरती हो फिर पिता बाढ़ के पानी में कैसे डूब गए?’
क्योंकि उन्होंने डरना नहीं छोड़ा, मां पानी को निहारते हुए कहती है.

दूसरे दृश्य में बाढ से बर्बाद हो गई फसल को देखती धुनु अपनी मां से पूछती है, जब हर साल बाढ़ सब बर्बाद कर देती है तो तुम इतनी मेहनत से खेती क्यों करती हो.

क्योंकि मेहनत के अलावा हम और कुछ नहीं कर सकते, मां उतने ही शांत स्वर में जवाब देती है.

मां-बेटी के बीच ऐसे सरल-सहज संवाद लंबे समय तक संजोकर रखे जाने योग्य हैं. 

कहानी बस इतनी सी है कि गांव के मेले में पर्फॉम रहे बैंड को सुनने के बाद धुनु और उसके साथी थर्मोकोल के गिटार बनाते हैं और उसे असल गिटार में बदलने का सपना संजोते है, ताकि वे गांव में अपना रॉक बैंड बना सकें. बेटी के इस सपने को पूरा करने के लिए मां भी प्रतिबद्ध है. डेढ़ घंटे की अवधि में फिल्म कहीं भी अपनी रफ्तार तेज़ नहीं करती. फिल्म का कोई भी दृश्य आपको उत्तेजित नहीं करता, कहीं भी आंखों में आंसू नहीं आते, क्लाइमेक्स का सस्पेंस कहीं दिल की धड़कन नहीं बढ़ाता. फिर भी थिएटर से निकलते वक्त आप अपने गले में कुछ अटका पाते हैं, छाती भारी सी लगती है और एक अशांत सी शांति घर लौटने के बहुत बाद तक भी आपको नहीं छोड़ती.

अड़तालीस घंटे बाद भी वो सम्मोहन वैसे ही तारी है.

Sunday, August 19, 2018

आवाहनं ना जानामि




बचपन में पढ़ा था, जिनके भगवान जितने सूक्ष्म होते हैं वो उसमें उतना ही उलझकर मरते हैं. जिनके भगवान स्थूल रहते हैं वो सुगमता से अपनी मुक्ति का मार्ग निकालते जाते हैं. मेरी बुद्धि का शैथिल्य कहो या उस पढ़े गए का प्रतिफल, मेरे भगवान स्थूल ही बने रह गए. उतना ही पगडंडीनुमा रिश्ता भी रह गया हमारा, बिना किसी नियम-क़ायदे के लेकिन नंगे पैर भी चल सकने लायक.
दादाजी को सुबह का नाश्ता फ्रेश होने के तुंरत बाद चाहिए होता था और लंच होता नहाकर निकलने के बाद. जबतक खाने के लिए अंदर से पुकार होती आरामकुर्सी पर बैठ आंखें बंद कर कुछ बुदबुदा लिया करते. ये कैसी पूजा हुई भला, ना दिया, ना अगरबत्ती, ना घंटी, ना फूल. इसको भगवान के दरबार में हाजरी लगाना कहते हैं, उनको याद दिलाना होता है कि हमसे किसी का कोई बुरा ना हो जाए इसका ख्याल रखें.
मेरे आलसी मन को ये विधि जम गई, हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा. ना विधि की चिंता, ना विधान की, एक सरल सी डोर बन जाए एक सहज रिश्ते को बांधे रहने का सबब.
अक्सर कई-कई दिन मंदिर की ओर जाना नहीं हो पाता, मिलने पर उलाहना दे बैठती हूं, कितने सारे कामों में लगा छोड़ा है, इंसान दो मिनट आसन बिछा बैठ भी नहीं सकता तुम्हारे सामने. नियम पालन में बड़ी वाली ग़लती के बाद क्रोध और दंड जैसे शब्द तारे दिखाने लगते हैं तो पूछना पड़ता है, क्यों जी, इतने इंसानी हो तुम, मन के विपरीत हो तो तुरंत बदला लोगे? कुछ समय बाद समझ आ जाता है कि बात दिल को लग गई, उस ओर से फॉर्गेट एंड मूव ऑन का फैसला ले लिया गया है
यूं उम्र के साथ मन का झुकाव कृष्ण से शिव की ओर बढ़ा है, लेकिन छोटे से मंदिर में देव मूर्तियों का घनत्व देश की जनसंख्या जितना ही है. जो तीर्थ के लिए जाता है प्रसाद के साथ वहां के अराध्य की एक मूरत लाकर साधिकार मंदिर में स्थापित कर देता है. देसी देवताओं के बीच बैंकाक से लाए बुद्ध महाशय भी ठाठ से बैठे हैं. मैने कई बार पूछा, जब तुमको साथ रहने में कोई दिक्कत नहीं होती तो बाहर वालों को समझाते क्यों नहीं. इस सवाल पर मेरी तरह वो भी निरुत्तर रह जाते हैं.
बाल्कनी के गमलों में खिले फूल अक्सर कम पड़ जाते हैं, तोड़कर मंदिर के बीचों-बीच रख देती हूं, मिल बांटकर ग्रहण कर लो. या फिर जिन देवता की विशेष पूजा का दिन होता है एक फूल उनके सामने डाल बाकी साझा खाते में, वैसे ही जैसे बर्थडे वाले दिन मां से एक मिठाई ज़्यादा मिला करती थी. कभी आसन पर बैठने के बाद याद आता है, फूल तोड़ना तो भूल गए. उनको कह देती हूं, छोड़ो ना पेड़ में लगे हैं तो कौन सा तुमसे अलग हैं, समझो वहीं से अर्पित हो गए तुमको, वो उतना भी मान जाते हैं. कामवाली मुस्लिम है, पूजा के बर्तन चमकाकर रख जाती है, ना उन्होंने इसपर कोई एतराज़ जताया ना मैंने
कभी चोट खाया मन जाकर गुहार लगाता है, किसी ने धोखा दिया है मुझे. वो कहते हैं देखने की जगह बदलकर देखो, वो तुमको नहीं अपने आपको धोखा दे रहे हैं. मैं मान जाती हूं, मन हल्का हो जाता है. व्रत के मामले में हमारा बहीखाता एकदम पक्का है, मैं कहती हूं बीएमआई सुधारने के लिए करती हूं, वो कहते हैं कुछ कर लो, वो कभी ठीक नहीं होगा. ना वो मेरा मन बदल पाते हैं ना मैं अपना शरीर. तीर्थयात्रा पर जाने का मकसद धुमक्कड़ी ही रही, मंदिरों से निकलने की सबसे ज़्यादा हड़बड़ी भी मुझे ही रहती है. मैं कहती हूं इन बंद दीवारों की धक्कापेल से ज़्यादा तुम तो बाहर नज़र आते हो. वो खामोशी से स्वीकारते हैं इसे
बहुत बरस हुए, मेरे मन को मंदिरों की दानपेटी से दूर कर दिया है. ब्राह्मणों (नाम के ही सही) के लिए तो तीन समय खाना वैसे ही पकाना पड़ता है इसलिए अलग से कुछ कर सकने की ज़रूरत नहीं बची. लेकिन मन को अभी भी भीरू ही रख छोड़ा है इसलिए मन्नतों के धागे बांधने होते हैं जब-तब. उनकी पूर्णाहूति हमेशा किसी संस्था से जुड़ने, किसी बच्चे की पढ़ाई का भार अपने उपर लेने, किसी आश्रम के लिए किताबें भिजवाने में होती है. हर ऐसे काम के बाद मैं उलाहना दे आती हूं, इसी वजह से ही डर भरा था ना मेरे अंदर? जानबूझकर काम अटकाते हो मेरे और खर्चा बढ़वाते हो. वो शरारत से मुस्कुराते हैं.
जन्म मरण जैसे गूढ़ विषय हमारे संवाद में स्थान नहीं पाते कभी. जीवन बना रहा तो भगवान ने बचा लिया और जीवन चला गया तो भगवान ने बुला लिया का फलसफा मेरी समझ के परे ही रहा. मैं पूछती हूं तुम बचाने में अधिक उदार हो या बुलाने में?  वो चुप लगा जाते हैं.
हमारी डील पक्की है, मैं कहती हूं ज़्यादा समझकर क्या होगा तुम अपने सरलतम रूप में मिलो ना मुझे, मैं अपने कोशिका भर ज्ञान से तुमको पाकर तृप्त हूं. उनके अंदर की मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर खिंच आती है. तभी रातों को सुकून भरी नींद आती है.