Saturday, June 25, 2016

मैं, तुम और बस....


मेरे शरीर के नज़र आ सकने वाले हर हिस्से पर तुम्हारे नाम की मुहर लगा दी गई थी, मांग में, माथे पर, कलाइयों में, हथेलियों पर, पैरों में। मेरे अस्तित्व के हर कोण को तुमसे गुज़रने की अनिवार्यता समझाई जा रही थी, नाम, पता, पहचान।  जबकि मन को बस एक वो डोर चाहिए थी जो इन सब प्रतीकों के परे सीधे तुमसे जुड़ सके। पता है क्या, बहुत सारे प्रतीक दरअसल अविश्वास से जन्मते हैं, फिर वो रिश्ता हो, समाज या कि देश। और ज़्यादातर बेईमानियां भी इन्हीं प्रतीकों की आड़ में होती हैं।

और हां, साथ में सात जन्मों के बंधन का वास्ता भी तो था हमें कसकर बांधने के लिए। (यूं सात जन्मों की बात मुझे अक्सर उलझा देती है क्योंकि इस बारे में हर कोई ऐसे बात करता है मानो ये पहला ही जन्म हो, दूसरा, तीसरा या सातवां भी तो हो सकता है ना।) सोचो तो, रिश्ते की सुंदरता क्या उसकी लंबाई से नापी जा सकती है? उफ्फ, संस्कार-परंपराएं, रीति-रिवाज़, लोक-लाज, उम्मीदें-अपेक्षाओं की इतनी दुहाइयां कि सब के सब कलेजे में एक साथ जम कर भय का रूप लेने लगे थे। इतना भय कि मन की सहज, सुंदर तरंगे एक-दूसरे तक पहुंच अनछुई ही लौट आएं।

और इन सबके बाद मुझे और तुम्हें एक साथ निर्माण में जुट जाना था, गृहस्थी की इमारत के। वो इमारत जिसकी एक-एक ईंट पीढ़ियों की आज़मायी हुई थी, ठोक बजा कर रखी, दूसरों के अनुभवों के जोड़ से जुड़ी। एकदम फेवीकोल का जोड़ जहां गलतियों के आ-जा सकने के लिए दरवाज़ा ना हो, कोई गवाक्ष तक नहीं। गलतियां क्या, वहां से तो छोटी-छोटी खुशियां, छोटे-छोटे सुख-दुख भी नहीं आ जा सकते। इमारत कितनी भी भव्य हो, रहती तो निर्जीव ही है ना। उसकी नींव चाहे कितनी भी गहरी हो, धरती के सीने से अपने लिए खुद पोषण नहीं ले सकती। वो सब तो एक पेड़ कर पाता है। जीवित, स्पंदन करता पेड़, जिसके ऊपर कोई छत नहीं होती, मौसम की मार से सारे पत्ते भी झड़ जाते हैं उसके, फिर उग आने के लिए।  

सोचो कैसा विरोधाभास है, फल देने के पहले पेड़ों को सालों पानी दिया जाता है, दोस्ती का रिश्ता धीरे-धीरे पुख्ता होता है, चलाने की कोशिश कराने से पहले बच्चे के पैरों के भी मज़बूत होने का इंतज़ार होता है। केवल दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिससे पहले दिन ही रिज़ल्ट की उम्मीद की जाती है। शादी ना हुई वन टाइम इन्वेस्टमेंट हो गया, मंत्र पढ़े, फेरे लिए और शुरू हो गई मिल-जुलकर कैदखाना तैयार करने की कवायद। या जैसे ऑनलाइन मंगाया गया कोई रेडीमेड फर्नीचर हो, सारे टुकड़े साथ जोड़े, ड्रिल किया, पेंच कसे और इस्तेमाल को तैयार। यूं ही नहीं उम्मीदों के बोझ तले ज़्यादातर रिश्तों को कोंपलें मुरझा जाया करती हैं।

शुक्र है इमारत बनाने का हुनर ना तुम कभी सीख पाए ना मैं। हमें जोड़े रखने के लिए अनुभवों के फेवीकोल का स्टॉक खाली करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। देखो तो, कोई बंधन नहीं है सिवाए उनके जो हमने चुने अपने लिए। आलते, बिछुए जाने कौन से अतीत की बात हो गए, चूड़ी, बिंदी की ज़रूरत केवल ड्रेस कोड के हिसाब से होती है, शादी के गहने तरतीब से लॉकर में रख दिए गए, त्यौहारों में निकालने के लिए। सिंदूर भी याद नहीं रहता अक्सर। साथ रहने के नियम हमारे, उनमें की गलतियां हमारी, उनसे सीखे सबक भी हमारे। पतझड़ आकर भी गए तो कोमल नए पत्तों के उग आने की उम्मीद में। बाप रे, कितनी बातें अब याद भी तो नहीं रहतीं, बस तुम्हारी छाती के सफेद हो रहे बालों को गिनती हूं तो तसल्ली होती है, साथ चलते-चलते एक अरसा हो गया।

वैसे सुनो, क्या तुम्हें उस पंडित का नाम और शक्ल याद है जिसने शादी के मंत्र पढ़े थे?
मुझे भी नहीं। 

Saturday, June 18, 2016

फिर पापा, मां बन जाते हैं


गलत कहता है विज्ञान। समय कभी एक गति से नहीं चलता। अगर चलता तो छोटा सा बचपन ज़िंदगी का सबसे लंबा हिस्सा कैसे लगता? सबसे ज्यादा कहानियां बचपन की, सबसे ज़्यादा यादें बचपन से। बचपन की बस एक ही चीज़ छोटी होती है, स्कूल की छुट्टियां। खासकर तब, जब छुट्टियों के उस पार बोर्डिंग वाला स्कूल इंतज़ार कर रहा हो।

बोर्डिंग से हमसे ज़्यादा चिढ़ मां को थी। हम बोर्डिंग में होते तो मां रात-रात को उठकर रोतीं, पापा से लड़तीं, अच्छी पढ़ाई के लिए बेटियों को हॉस्टल भेजने पर मां ने पापा को कभी माफ नहीं किया। हर छुट्टी के बीतते-बीतते मां, पापा से छुपकर, हज़ार-हज़ार प्रलोभन देती, एक बार बोल दो नहीं जाना है, मत जाओ, यहीं के स्कूल में पढ़ना। छोटा है तो क्या हुआ, पढ़ाई तो तुम्हारी मेहनत पर निर्भर करेगी। दिल डोल जाता, फिर हमारी ज़रूरत की चीज़ें जुटाने में स्कूटर से शहर के कई-कई चक्कर लगाते पापा का चेहरा याद आता और हम मन मार लेते। मां घर में तैयारियां करतीं और रोती रहतीं। पापा रोते नहीं, आखें नम होती हों शायद, लेकिन मां के आसुंओं की बाढ़ में उनकी नम आखों की याद हमेशा धुंधला जाती।

Saturday, June 11, 2016

स्त्री विमर्श की आड़ में...




ऐसा क्यों लगता है आपको कि अपनी देह और मन की आज़ादी की बात खुलकर बस वैसी औरतें ही कर सकती हैं जो किसी टूटे रिश्ते या रिश्तों के कछार पर खड़ी हों? ये भी तो हो सकता है कि दैहिक और वैचारिक स्वतंत्रता की पैरोकार वो स्त्री एक ऐसे समृद्ध रिश्ते की ज़मीन पर पूरे आत्मविश्वास से पैर जमाए खड़ी है जहां से, देह तुम्हारी, संस्कार तुम्हारे, मर्जी और अधिकार हमारे जैसे बेतुके कंकड़ों को बहुत पहले चुन लिया गया हो। इसलिए उनके आज़ाद ख्यालों की आड़ में उनसे फ्लर्ट करने के मौके ढूंढने का कोई फायदा नहीं। ये मान लेने में इतनी ज़ोर से क्यों हिलता है असहमति से भरा आपका सिर? पुरुषत्व के अहम् के बोझ से?

तीन समय चूल्हा जला पूरे परिवार की पसंद का खाना पकाने वाली औरत भी अपने स्वतंत्र स्पेस की प्रतिरक्षा के लिए कटिबद्ध हो सकती हैं जहां अपनी जिम्मेदारियां पूरी होते ही वो खुले मन से वापस पहुंच जाती हैं। उसकी ज़िंदगी का एक हिस्सा अपना होता है जहां अनधिकृत प्रवेश वर्जित का बोर्ड हर किसी के लिए लगा होता है, इसका ये मतलब नहीं कि अपनी ज़िंदगी के बाकी हिस्से दूसरों को खुश रखने में बिताने से गुरेज़ है उनको।  

Saturday, June 4, 2016

महाभारत जारी है....


फिर कौरवों ने पांडवों से कहा, ये बताने की ज़रूरत नहीं कि तुम्हारा ऐश्वर्य देखकर हमारे कलेजे पर सांप लोट रहे हैं, हमने लाख तुम्हें अपने से कमतर रखना चाहा लेकिन अपनी शिक्षा, कर्मठता और शौर्य के बल पर तुमने हमें पीछे छोड़ दिया। हम चाहें भी तो निष्ठा, लगन, वीरता और कर्तव्यपरायणता में तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते और हम चाहें भी तो तुम्हारे लिए हो रहे इस जय घोष को सुनने के बाद चैन की नींद नहीं सो सकते। इसलिए हमने विजय के मापदंड ही बदल दिए। हम चाहते हैं कि तुम अब द्यूत क्रीड़ा में हमें परास्त करो तब हम तुम्हें विजयी समझेंगे। पांडव जानते थे कि ये छल है, इस एक निर्णय से उनका अभी तक का सारा श्रम और पराक्रम व्यर्थ हो सकता है। फिर भी उन्हें अपने प्रभुत्व का प्रमाण देना था और इसके लिए हर चुनौती स्वीकार की जानी थी। इसलिए उन्होंने द्यूत का आमंत्रण स्वीकार किया और उसके बाद हज़ारों सालों तक दोहरायी जाने वाली कहानी का जन्म हुआ।
इतिहास में प्रासंगिकता की ये बिसात बार-बार बिछाई जाती है। इस बार इसके आर-पार दो इंसानी नस्लें हैं।  सदियों से अपने प्रभुत्व के मद में झूमते पुरुष और उसके रचे समाज में अपना होना तलाशती स्त्रियां।