Sunday, September 22, 2019

पितृसत्ता की छाँव में 'डॉटर्स डे' की बेल




देश आज डॉटर्स डे मना रहा है.  और जो अनिश्चितता समाज में बेटियों के अधिकारों को लेकर है कुछ वैसा ही हाल इस प्रतीकात्मक दिन का भी है. दुनिया भर में वर्ल्ड डॉटर्स डे जनवरी की बारह तारीख को मनाया जाता है. भारत में इस दिन के लिए सितम्बर का चौथा इतवार निश्चित किया गया है. लेकिन ढूंढो तो कहीं-कहीं 25 सितम्बर की तारीख भी दिख जाएगी. यूं दो बरस पहले महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने अगस्त के महीने में डॉटर्स वीक मनाने का एलान भी किया था. लेकिन बाद के सालों में इसके बारे में फिर कभी नहीं सुना गया. वैसे तो हमारा सेल्फी विद डॉटर जैसा अभियान भी इतने ज़ोर-शोर से चला कि गूगल प्ले पर एप्प की शक्ल में ही जाकर रुका. बहरहाल, दिन भले ही प्रतीकात्मक  हो, उसे मनाने से परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि बड़ा बदलाव छोटी शुरुआतों से ही आता है, फिर भी जब बात डॉटर्स डे की चलती है तो मन में थोड़ी कड़वाहट तो आ ही जाती है.
दरअसल बेटियों को आगे बढ़ाने, उनकी हौसलाअफज़ाई के जितने भी तरीके, जितने भी जुमले हमने गढ़े हैं उन सबका आधार ही पितृसत्ता है. कुछ इस तरह कि आने वाले वक्त में भी उनसे छुटकारे का कोई रास्ता नज़र नहीं आता. उदार दिखने की चाह में हम केवल बेटियों पर गुमान करना चाहते हैं, उनके बेटी होने पर नहीं. इन बातों में बारीक नहीं, बहुत बड़ा फर्क है जिसे कुछ उदाहरणों के साथ समझ पाना शायद आसान होगा.
हमारी बेटी सौ बेटों के बराबर है- अपनी बेटियों की तारीफ में कहा जाने वाला ये सबसे लोकप्रिय जुमला है और उतना ही सतही और हतोत्साहित करने वाला भी. समझ में नहीं आता कि ऐसा कहने वाला इंसान बेटी की तारीफ कर रहा है या फिर खुद को सांत्वना दे रहा है. जितनी बार हम बेटियों के बेटे के बराबर होने का दंभ भरते हैं उतनी बार हम उन्हें उनके कमतर होने का एहसास भी कराते जाते हैं. मानो हम उनसे ये कहना चाहते हों कि सपने तो हमने बेटे के लिए संजोए थे लेकिन अब मजबूरी में तुम्हें उसका उत्तराधिकार सौंप रहे हैं. सफलता और समृद्धि का जो परचम लोगों के लिए उनके बेटे फहराते हैं समानता मिलने के बाद अब वो ज़िम्मेदारी भी तुम्हें ही उठानी होगी. अच्छा होना क्या बेटों की बराबरीकर लेना भर ही होता हैऔर बराबरी कोई एक लकीर पर चलते रहने से ही हो जाती हैइस तरह की बातें बोल-बोलकर तो हम बेटों और बेटियों को लेकर घिसे-पिटे मानकों से पीछा छुड़ाने के बजाए उन्हें और पुख्ता किए जा रहे हैं.
हमने अपनी बेटी को बेटों की तरह पाला है- अगर आप वाकई ऐसा कर रहे हैं तो याद रखिएगा कि आप अपनी बेटियों के साथ ही नहीं समाज के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. इस के पीछे कहने वालों का मन्तव्य शायद ये होता हो कि वो अपनी बेटियों को घर की जिम्मेदारी से दूर रख पढ़ाई-लिखाई के बेहतर मौके दे रहे हैं और उनकी अच्छी परवरिश कर रहे हैं. लेकिन ये कर्तव्य तो इंसान का अपनी हर संतान के प्रति होता है. बेटियों को बेटा बनाने में किसी तरह की वाहवाही नहीं. ये तो दरअसल उनकी परवरिश में कमी करना है. लड़कियों की शारीरिक और मानसिक संरचना लड़कों से अलग होती है. उन्हें पालने में ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है वैसे ही जैसे लड़कों को पालने में ज़्यादा सतर्कता और लचीलेपन की. स्वस्थ समाज को पढ़ी लिखी, आत्मविश्वास से लबरेज़ लड़कियों की उतनी ही ज़रूरत है जितनी सुलझे और उदार लड़कों की. इसलिए बेटी को बेटी की तरह पाले जाने की ज़रूरत है.
अब लड़कियां भी किसी मामले में लड़कों से कम नही- आए दिन ऐसा सुनते रहना बिल्कुल वैसा आभास देता है जैसे ये समाज घोड़े की तरह आंखों में पट्टा बांध कर चलता जा रहा है. अब ऐसी सेलेक्टिव आंखें रहने से अच्छा होता कि समाज की आंखें ही नहीं होतीं. लड़कियां किसी भी समय, किसी भी समाज में कभी भी लड़कों से कम नहीं थी. अंतर उनकी दक्षता में नहीं उनको मिले अधिकारों और मौकों में था. दरअसल बराबरी के नाम पर लड़कियों के अधिकार उन्हें कुछ इस तरह से वर्गीकृत करके दिए जाते रहे हैं कि उनके मिलने और मांगने की बीच हमेशा एक किस्म की खींचतान मची रहती है. उन्हें पता ही नहीं रहता कि ये उनका सहज हक है या समाज उनपर तरस खा रहा है. वैसे भी लड़कियों को बेहतर बनाने का मकसद लड़कों को कमतर दिखाना नहीं होता. ये बड़ी रेखा, छोटी रेखा वाली लड़ाई नहीं है. इसलिए इस किस्म की तुलना दरअसल मानसिक झोल होती है. इससे जितनी जल्दी छुटकारा पा लिया जाए उतना बेहतर.
बेटी को जन्म देना एक गर्भ को जन्म देना है- जहां तक याद है ये तर्क एक जानी-मानी फेमिनिस्ट का दिया हुआ है जिसपर लोगों ने आंखों में आसूं भर तालियां भी बजाई थीं. मतलब इतने सारे नाटक-तमाशे के बाद हम घूम-फिरकर वहीं आ पहुंचे जहां से शुरुआत की थी. अगर औरत के होने को एक योनि और गर्भ तक ही समेटना था तो फिर हो हल्ला क्यों मचाया? बेटी को जन्म देने में अगर लज्जा नहीं होनी चाहिए तो अतिरिक्त गर्व भी नहीं. लड़के या लड़की का जन्म विज्ञान की नज़रों में जैविक प्रोबाबिलिटी का मसला है, ना उससे कुछ कम ना कुछ ज़्यादा. गर्व होना ही है तो बच्चों की परवरिश के तरीके पर हो. इंसान का चरित्र उसके लड़का या लड़की होने से नहीं, परवरिश से तरीके तय होता है. समाज को देखने के उस नज़रिए से तय होता है जो उनका परिवार उनके लिए बनाता, सहेजता है.
डॉटर्स डे मनाने के साथ हमें इस दिन का इस्तेमाल इन बेतुके शब्दों और तर्कों को अपनी डिक्शनरी से डिलीट करने के लिए भी करना चाहिए. बेटियां उस दिन बराबर हो जाएंगी जिसदिन हम बेखटके कह सकेंगे कि हमने अपनी बेटी को बेटी की तरह पाला है और हमें उसके बेटी होने पर गर्व है.