Sunday, December 9, 2018

जाते साल के फुटनोट्स




आँखें, अलार्म बजने के कुछ मिनट पहले स्वत: खुल जाती हैं. फिर तय समय की ओर एक-एक बढ़ता सेकेंड रक्तचाप पर दवाब बढ़ाता जाता है. अलसाई ऊँगलियों से अलार्म बंद कर चादर में वापस मुँह छिपाने की मचलन जाने किन तहों में समा गईं है. सख़्त उँगलियाँ तय समय से कुछ सेकेंड पहले मोबाइल हाथ में उठा अलार्म को ठिकाने लगा कटाक्ष में मुस्कुराती हैं, जैसे किसी नादान बच्चे का मासूम सरप्राइज़ स्पॉइल करने की परपीड़ा का लुत्फ़ उठा रही हों. 

अब उठना होगा, समय से बंधकर रहना अच्छी गृहस्थियों के गुण हैं. वैसी औरतों के जो उदाहरण बन जाएँ सबके लिए. इस बात का कोई ज़िक्र कहीं भूले से भी ना हो कि बेचैनियों का सबब कुछ ऐसा कि जिस दिन घड़ी के साथ जितना सधा क़दमताल किया, वो तारीख़ अंदर से उतना ही खोखला कर गई. किसी दिन रसोई में तरतीब से लगे डिब्बे निहारते-निहारते उन्हें उठाकर सिंक में फेंक देने का मन हो आए तो उँगलियों तो चाय के कप के इर्द-गिर्द भींच बाल्कनी में निकल लेना चाहिए. पिछली सालगिरह पर तोहफे की शक्ल में मिले एक पत्ती बराबर मनी प्लांट की लतड़ियां सहारा देते डंडे को चारों ओर से अलोड़तीं, रेलिंग से उसपार उचकने लगी हैं. मन चाहे कितना भी विषाक्त हो प्रिटोनिया, अरहुल और गेंदे की खिली शक्लें देख उन्हें नोच फेंकने जैसे ख़्याल तो नहीं आएँगे.
ऊंगलियाँ ठुमककर आती ठंढ में ठिठुरने को बेताब हैं ताकि भारी पलकों को अपने पोरों से सहलाकर थोड़ी राहत दे पाएँ. दिसम्बर यूं भी साल का सबसे बोझिल महीना होता है. जाने कितनी टूटी ख्वाहिशों, अधूरी कोशिशों और टीसते सपनों का हिसाब करता कोई दुष्ट साहूकार हो जैसे. इससे नज़रें मिलाने का मन ही नहीं करता. इसके पीठ पीछे खड़ा तारीखों का वो जमघट भी है जो नए साल की शक्ल में जल्द इसके कंधे पकड़ पीछे छोड़ देगा. पूरे के पूरे पहाड़ सा खड़ा आने वाला नया साल. जी में आता है आते ही उसके सारे मौसमों को नोंच-उखाड़कर यहां वहां चिपका दूं. एक बार ये बरस और उसके महीने भी तो देखें कि सिलसिलेवार नहीं जी पाना भी एक किस्म की नेमत है. कि बेतरतीब मन की चौखट तक सपने ज़्यादा सुगमता से दस्तक दे पाते हैं. कि सपने हकीकत से पलायन नहीं जी पाने की वजह और ताकत दोनों होते हैं.
बेचैन मन को वक्त का ठहरना भी पहरेदारी लगती है और उसका चलते जाना भी. आँखें बंद कर उस अधेड़ चेहरे को याद करने की कोशिश करती हूँ जिसकी ट्राली में बैठ स्विट्ज़रलैंट में ज़रमैट से मैटरहॉर्न की यात्रा की थी. हम हिमआच्छादित पहाड़ों की विहंगम स्निग्धता को बड़े-बड़े घूंट भर पीए जाते थे कि उसकी याचना भरी आवाज़ आई, तुम्हारे देश में तो ख़ूब बड़े शहर होते होंगे.
हाँ, और धूल-धुआँ और शोर भी.
जो भी हो, मैं सब देखना चाहता हूँ, शहर, धूप, धूल, समुद्र सब चलेगा मुझे, बस अब इन पहाड़ों को एक दिन के भी नहीं झेल सकता.
उस रोज़ हम अविश्वास में हँसे थे, आज उसकी बेचैनी जानी-पहचानी लगती है.
ज़िंदगी दरअसल इर्द-गिर्द बिछी ढेर सारी चूहेदानियों का मकडजाल है, जितनी ताक़त एक से बचकर दूसरी के किनारे से निकलने में झोंक कर वक्त बिता देने में लगती है उतनी ही किसी एक में फँसकर उम्र गुज़ारने में भी. उम्र बहुत गुज़र जाए तो पता चलता है कि बच बचकर निकल जाना भी उतनी ही बड़ी सज़ा है जितनी किसी एक में फंसकर रह जाना.
सारी उम्र ग़लतियों से पर्दा किया, इस डर से कि जाने कब कौन सी ग़लती ज़िंदगी पर ही भारी पड़ जाए. इस डर से कोई ग़लती ना हो पाई, ग़लती से भी नहीं. अब ये डर सोने नहीं देता कि कहीं ये समझदारी ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती ना बन जाए. 

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