कुछ साल पहले एक पढ़ी लिखी लड़की की कहानी सुनी
थी. प्यार और आत्मविश्वास से पली, मां-बाप ने धूम-धड़ाके से शादी की. कुछ ही
महीनों में पति ने बिना किसी वजह के छोड़ दिया. मान-मनौवल, बीच-बचाव की सारी
कोशिशें नाकाम हुईं. पड़ोस और समाज की सारी संवेदनाएं भी ‘बिचारी’ लड़की के साथ थीं जो अब मायके में रहकर
अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही थी. कुछ सालों के इंतज़ार के बाद लड़की
का धैर्य जवाब दे गया, माता-पिता की सहमति से उसने अदालत में तलाक की अर्ज़ी दे
दी. पत्नी की ओर से भेजा गया कानूनी नोटिस लड़के वालों के नाग के फन से फुंफकारते
अहम पर ठेस था. उन्होंने उसका जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझा. साल भर बात लड़की
को इसी बिना पर तलाक मिल गया. परिवार ने खुशी-खुशी उसकी पसंद के लड़के से उसका घर दोबारा
बसाने की तैयारियां शुरु कर दी.
क्या इसे सुखांत समझा जाए?
असल में पूरी तरह नहीं.