Saturday, April 29, 2017

सशर्त इज्ज़त के विरोध में....



हम उम्र के उस दौर से गुज़र रहे थे जिसे टीनएज कहा जाता है. किसी भी बात पर टोका-टाकी तीर की तरह लगती, और मां थी कि चलने, उठने, खाने, रहने, पढ़ने हर चीज़ का एक रूल बुक लेकर हमारे पीछे पड़ी रहती. आए दिन किसी ना किसी बात पर डांट पड़ती और हम कई-कई रोज़ मुंह सुजाए घूमते रहते. इसी बीच मां को अनदेखा कर पापा के आगे-पीछे करने की आदत पड़ी. जब भी मां से डांट पड़ती हम उनसे मुंह फुला लेते और खूब तत्परता से पापा को खुश करने में लग जाते.


Sunday, April 23, 2017

चालीस की उम्र


इस शीर्षक का एक लेख ग्रेजुएशन में कम्पल्सरी हिंदी के सिलेबस में था. अठ्ठारह बीस की उम्र में जब चालीस का मतलब बुढ़ापा होता है, वो लेख हमें पढ़ाने का क्या मतलब था, समझ में नहीं आया. पढ़ाते वक्त हमारी प्रोफेसर भी बार-बार याद दिलाती रही कि क्योंकि पूरे कमरे में चालीस के पार केवल वही हैं इसलिए उस लेख का गूढ़ मतलब भी केवल वही जान सकतीं हैं. सुनकर ये विश्वास और पुख्ता हो गया कि ये वानप्रस्थ की बाते हैं, हमारे लिए बेज़रूरत.

Saturday, April 15, 2017

फुलटाइम फेमिनिज्म के पहले..


अब बस, बहुत हो गया, अब मैं फेमिनिस्ट हो जाना चाहती हूं, फुलटाइम. नारीवाद से पुरूषत्व की बू आती है, फेमिनिज़्म खांटी जनाना शब्द लगता है. एकदम कूल और वोग, बिल्कुल मेरे शब्दों के चयन की तरह.
हर सुबह जब मैं आटे और मसाले सने हाथों को जल्दी-जल्दी साफ कर, एक हाथ में कंघी और दूसरे में ब्रेकफास्ट का डब्बा लिए भागती हुई गाड़ी में बैठकर ऑफिस के लिए निकलती हूं तो मेरा मन विद्रोह कर उठता है. क्या फायदा कमाकर खाने वाले स्वाभिमान से, इससे तो फेमिनिस्ट ही हो जाते.