“आप जैसी फेमिनिस्टों से कुछ कहने में भी डर लगता है,
पता नहीं किस बात को कहां ले जाकर पटकें”, कई परिचितों ने नाटकीयता के अलग-अलग लेवल पर,
अलग-अलग अंदाज़ में कह दिया है.
“लेकिन मैं तो बिल्कुल भी स्त्रीवादी नहीं. किसी
रोज़ ऐसा कोई आंदोलन भी हुआ जब सारी औरतें अपने विद्रोह के स्वर के साथ कतारबद्ध
हो जाएं, मैं उस रोज़ भी किचन में कोई नई रेसिपी ट्राई करना ज़्यादा पसंद करूंगी.
मैं तो बल्कि खालिस परिवारवादी हूं. हंसते-खेलते परिवारों का बने रहना मेरी नज़र
में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. बस पूरे परिवार के हंसने-खेलने की कीमत किसी एक की
मुस्कुराहट नहीं होनी चाहिए.” मैं ऐसे हर परेशान परिचित को अपनी ओर से आशवस्त
कर देना चाहती हूं.
फेमिनिज़्म वैसे भी चंद उन बेबस शब्दों की सूची
में शुमार है जिन्होंने पिछले कुछ समय में अपना मतलब पूरी तरह से खो दिया है. अपने
तकने का आसमान और अपने भटकने लायक ज़मीन की जद्दोजहद मेरी सांसों की तरह हैं, मेरे
होने की सबसे ज़रूरी शर्त. कोई बाहरी ऑक्सीजन मास्क इसकी भरपाई नहीं कर पाएगा.