Sunday, April 29, 2018

वधु चाहिए- है कोई नज़र में?




सात-आठ बरस का लड़का शाम को खेलकर थका-मांदा पसीने से लथपथ घर लौटता है. दौड़ने-भागने के आधिक्य से उसकी दोनों टांगें कांप रही हैं. मां बड़े प्यार से उसके कपड़े बदलवा कर हाथ-मुंह धुलाकर उसे अपने बिस्तर पर लिटा लेती है, फिर कोमल हाथों से उसके पैरों में तेल लगाने लगती है. आराम मिलते ही बच्चे की आंखें मुंदने को आती हैं कि मां प्यार से उसका माथा सहलाकर कहती है, बुढापे में तुझे भी अपनी मां की इसी तरह सेवा करनी होगी, करेगा ना राजा बेटा. आनंद के अतिरेक में लड़का हां में सिर हिलाना ही चाहता है कि पास खड़ी दादी चिहुंक उठती है, तुम्हारी कैसे, तब तक तो बीवी आ जाएगी, उसकी सेवा करेगा ना, उसी की सारी बात मानेगा. बात का इशारा भले ही मां को ओर हो लेकिन लड़का चोट अपने उपर ले बैठता है. खिलखिलाहट के बीच उसे आभास हो जाता है कि उसके लिए किसी बड़े निषिद्ध का नाम ले लिया गया है. वो नींद भूल मां से लिपट जाता है, मैं तो बस अपनी मम्मी की सेवा करूगां, बस्स मम्मी का बेटा रहूंगा और कुछ नहीं. मां का सिर मैं ना कहती थी वाले अंदाज़ में गर्वोन्नत हो उठता है.

बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया है लेकिन अब भी शर्मीला सा है. पढ़ाई-लिखाई में वो अक्सर पिता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता, अपनी बात सलीके से रखना भी नहीं सीखा उसने. फिर एक दिन पिता उसपर झल्ला उठते हैं, ऐसे डरपोक रहने से क्या होगा, क्या बड़ा होकर बीवी के पेटिकोट धोते रहना है?” बेटा सहम जाता है, उसे समझ में आ जाता है कि जीवन में कुछ नहीं कर पाने वाले को बीवी के पेटिकोट धोने होते हैं. लेकिन वो तो लड़का है, कुछ नहीं करना उसके लिए विकल्प नहीं. वो इस प्रण के साथ पढ़ाई में जुट जाता है कि चाहे कुछ भी हो जाए उसे बड़ा होकर बीवी के कपड़ों को तो हाथ भी नहीं लगाना.

मां-बाप घर पर नहीं है, लड़का पढ़ाई में व्यस्त है. घर में कुछ मेहमान आ गए हैं. लड़का उन्हें सम्मान से बिठाकर पानी और चाय का इंतज़ाम करता है. मां-बाप के लौटते ही मेहमान बेटे की तारीफ शुरु कर देते हैं. कितना सीधा लड़का है आपका, आज के ज़माने में इतना भोलापन. बिल्कुल लड़कियों सा शर्मीला और गुणी, लड़की होता तो हम आज ही इसे बहु बनाकर ले जाते. लड़का शर्म से और सिकुड़ जाता है. उसे समझ आ जाता है कि अच्छे काम की जगह उसने कुछ ऐसा कर दिया है जिसकी उससे अपेक्षा नहीं थी. उसने आगे से अपना सारा ध्यान जनाना और मर्दाना कामों का विभाजन ठीक-ठीक समझने में लगा देने का फैसला किया है.

फिर भी वो लड़का है, घी का लड्डू तो टेढ़ा हो फिर भी भला ही लगता है. पढ़ाई में थोड़ा औसत था ज़रूर लेकिन अपनी मेहनत से अच्छी जगह नौकरी पा गया है. उसपर देखने-भालने में ठीक-ठाक, शांत और सुशील भी. मां को हर पल ये आशंका खाए जाती है कि कहीं कोई लड़की उसे फंसा ना ले. हालांकि उनको पूरी उम्मीद है कि उनसे पूछे बिना बेटा पजामे का नाड़ा तक नहीं बदलेगा लेकिन फिर ज़माने का क्या भरोसा.

ऐसे कमाऊ, खानदानी, सर्वगुण सम्पन्न लड़के के लिए एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, स्मार्ट, सुलझी हुई, सुशील और घरेलू कन्या की तलाश है जो परिवार में पानी में शक्कर के जैसी घुल जाए. 
है कोई आपकी नज़र में?

Monday, April 16, 2018

बलात्कार और इंसाफ: कभी खत्म ना होने वाला इंतज़ार



एक बार फिर हमारी शिराओं में तनाव है, दुख और क्रोध से हमारी नसें फटी जा रही हैं, अपनी बेबसी हमारा ही दम घोंट रही है, हम असहाय हैं, अपनी बेटियों को खींचकर हम बार-बार अपनी छाती से लगा रहे हैं, क्योंकि उनके प्रति हमारा अपराधबोध फिर बढ़ गया है, हम एक बार फिर अपनी ही बेटियों को बचा पाने में नाकाम रहे हैं.
हम सड़कों पर उतर आए हैं, हमारे हाथ जलती मोमबत्तियों से दग्ध हैं. हमारे अंदर का हाहाकार, विरोध और नारों की शक्ल में धीरे-धीरे बाहर आ रहा है, हम उस दुनिया को नेस्तनाबूत कर देना चाहते हैं जो हमारी बेटियों को सुकून और हिफाज़त भरी ज़िंदगी नहीं दे पा रहा.
सत्ता की चुप्पी टूट रही है, अपना आसन डोलता देख, लेशमात्र ही सही, उनमें हलचल तो हुई. वीभत्स मुस्कुराहट वाला आरोपी सलाखों के भीतर है. बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगे के नीचे रैली निकालने वालों ने पद छोड़ दिए हैं. संयुक्त राष्ट्र ने भी संज्ञान ले लिया है. हम खुश हैं, होना भी चाहिए. आखिरकार, हमने एक लोकतांत्रिक देश के सजग नागरिक होने का अपना फर्ज अदा कर दिया है.
लेकिन अब? अब हमारी सामूहिक चेतना क्या करे? क्या हम अपने विरोध के पोस्टर समेट लें? मोमबत्तियां बुझाकर वापस अपने झोले में रख लें और एक-दूसरे को विदा देते हुए अपनी रोज़मर्रा की मुसीबतों से जूझने में व्यस्त हो जाएं?
ये सवाल मौजूं इसलिए है क्योंकि जिन बेटियों की लड़ाई में हमारे चार कदम के साथ ने समाज की एक गलीज़ परत को उघाड़कर रहनुमाओं की प्राथमिकता बदल दी वो अपनी लड़ाई में केवल निचले पायदान तक पहुंच पाई हैं. न्याय की चौखट पर उनके सामने अभी इतनी लंबी चढ़ाई बाकी है जिसे नाप पाने में शायद उनकी उम्र ही निकल जाएगी. जब तक उन्हें न्याय मिलेगा हो सकता है अपनी जिन बेटियों को आज हम चिंताग्रस्त हो स्कूल भेज रहे हैं, तब तक उनकी शादी की तैयारियों में व्यस्त हों. ये मेरे वक्ती ज़ज्बात नहीं, आकड़े कहते हैं.
1996 का सूर्यनेल्ली बलात्कार मामला याद है आपको? 16 बरस की स्कूली छात्रा को अगवा कर 40 दिनों तक 37 लोगों ने बलात्कार किया. कांग्रेस नेता पीजे कुरियन का नाम उछलने से मामले ने राजीनितक रंग भी ले लिया. नौ साल बाद 2005 में केरल हाईकोर्ट ने मुख्य आरोपी के अलावा बाकी सब को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. विरोध हुआ, सुप्रीम कोर्ट ने मामले की दोबारा सुनवाई के आदेश दिए, इस बार सात को छोड़ ज़्यादातर को सज़ा हुई लेकिन कई आरोपी अभी भी कानून की पहुंच से बाहर हैं. इधर पीड़िता की आधी उम्र निकल चुकी है. उसे ना अपने दफ्तर में सहज सम्मान मिल पाया ना समाज में. पड़ोसियों की बेरुखी से परेशान उसका परिवार कई बार घर और शहर बदल चुका है.
1996 में दिल्ली में लॉ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शनी मट्टू की उसी के साथी ने  बलात्कार कर नृशंस हत्या कर दी थी. अपराधी संतोष सिंह जम्मू कश्मीर के आईजी पुलिस का बेटा था. बेटे के खिलाफ मामला दर्ज होने के बावजूद उसके पिता को दिल्ली का पुलिस ज़्वाइंट कमिश्नर बना दिया गया. ज़ाहिर ,है जांच में पुलिस ने इतनी लापरवाही बरती कि चार साल बाद सबूतों के अभाव में निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया. लोगों के आक्रोश के बाद जब तक मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा संतोष सिंह खुद वकील बन चुका था और उसकी शादी भी हो चुकी थी जबकि प्रियदर्शनी का परिवार उसे न्याय दिलाने के लिए अदालतों के बंद दरवाज़ों को बेबसी से खटखटा रहा था. ग्यारहवें साल में हाईकोर्ट ने संतोष सिंह को मौत की सज़ा सुनाई जिसे 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद में तब्दील कर दिया. उसके बाद भी संतोष सिंह कई बार पैरोल पर बाहर आ चुका है.
वैसे भी ये वो मामले हैं यहां अदालती फाइलों में केस अपने मुकाम तक पहुंच पाया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016 में देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे बलात्कार के 152165 नए-पुराने मामलों में केवल 25 का निपटारा किया जा सका जबकि इस एक साल में 38947 नए मामले दर्ज किए गए.
दुनियाभर में बलात्कार सबसे कम रिपोर्ट होने वाला अपराध है. शायद इसलिए भी कि दुनियाभर के कानूनों में बलात्कार सबसे मुश्किल से साबित किया जाने वाला अपराध भी है, ये तब जबकि खुद को प्रगतिशील और लोकतांत्रिक कहने वाले देश औरतों को बराबरी और सुरक्षा देना सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं. ज़्यादातर मामलों में पीड़िता पुलिस तक पहुंचने की हिम्मत जुटाने में इतना वक्त ले लेती है कि फॉरेंसिक साक्ष्य नहीं के बराबर बचते हैं. उसके बाद भी कानून की पेचीदगियां ऐसीं कि ये ज़िम्मेदारी बलात्कार पीड़िता के ऊपर होती है कि वो अपने ऊपर हुए अत्याचार को साबित करे बजाए इसके कि बलात्कारी अदालत में खुद के निर्दोष साबित करे.
यौन उत्पीड़न के खिलाफ काम कर रही अमेरिकी संस्था रेप, असॉल्ट एंड इन्सेस्ट नेशनल नेटवर्क (RAINN) ने यौन अपराधों में सज़ा से जुड़ा एक दिल दहला देने वाला आंकड़ा जारी किया है. इसके मुताबिक अमेरिका में होने वाले हर एक हज़ार यौन अपराधों में केवल 310 मामले पुलिस के सामने आते हैं जिसमें केवल 6 मामलों में अपराधी को जेल हो पाती है जबकि चोरी के हर हज़ार मामले में 20 और मार-पीट की स्थिति में 33 अपराधी सलाखों के पीछे होते हैं.
बलात्कार को नस्ल और धर्म का चोगा पहनाने से पहले संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट की बात भी करते चलें. ‘Conflict Related Sexual Violence’ नाम की इस रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई है कि आंतरिक कलह या आंतकवाद जनित युद्ध के दौरान यौन हिंसा को योजनाबद्ध तरीके से हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की प्रवृति किस तेज़ी से बढ़ी है. गृह युद्ध और आतंकवाद से जूझ रहे 19 देशों से जुटाए आंकड़े बताते हैं कि इन क्षेत्रों में बलात्कार की घटनाएं छिटपुट नहीं बल्कि सोची-समझी सामरिक रणनीति के तहत हो रही हैं. सामूहिक बलात्कार, महीनों तक चले उत्पीड़न और यौन दासता से जन्में बच्चे और बीमारियां एक नहीं कई पीढ़ियों को खत्म कर रहे हैं. इन घृणित साज़िशों के पीछे की बर्बरता को हम और आप पूरी तरह महसूस भी नहीं कर सकते.
इसलिए कहती हूं, उन्नाव और कठुआ की लड़ाई अभी शुरु ही हुई है. लड़ाई लंबी है, क्योंकि सामने वाला पैसे और बाहुबल दोनों से ताकतवर है. इसके पहले कि हमारी मोमबत्तियों की लौ ठंढी हो जाए, याद रखिएगा, जिन गिने-चुने मामलों में सज़ा होती है आम जनता आक्रोश और विरोध की वजह से ही हो पाती है. इसलिए हमारे सामने चुनौती ये है कि हम इन मामलों को अदालती तारीखों के मकड़जाल से निकालकर जल्द से जल्द अंतिम फैसले तक कैसे पहुंचाएं. मरने वाला न्याय-अन्याय से उपर जा चुका होता है. सलाखों के पीछे पहुंचा हर अपराधी भविष्य में होने वाले अपराधों की आशंका को कम करता है. इसलिए ये लड़ाई हमारी है, हमारी बेटियों की, हमारे भविष्य को, हमारे समाज को बचाने की.

ये आलेख सबसे पहले क्विंट में प्रकाशित हुआ था
https://hindi.thequint.com/voices/opinion/kathua-unnao-rape-case-least-recorded-crime-delayed-justice 

Sunday, April 15, 2018

जहां गिनती खत्म हो, वहां शुरु होती है बराबरी



नाम और शक्लें मुझे कम ही याद रहती हैं. इस वजह से कई बार मुश्किल भी आई, शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी लेकिन आदतें कहां आसानी से पीछा छोड़ती हैं. फिर भी एक नाम कई महीनों से सुबह शाम याद आ ही जाता है. कैप्टन रवीना ठाकुर, बहुत कोशिश की दुनिया के बाकी नामों की तरह ये भी दिमाग से उतर जाए, लेकिन पीछा ही छोड़ रहा. नाम है कैप्टन रवीना ठाकुर. कई महीने पहले एक हवाई यात्रा में मुख्य पायलट के तौर पर अनाउंस किया गया ये नाम जाने कैसे ज़ुबा पर चढ़ गया. ये पहली बार था जब मेरे जहाज़ को किसी महिला पायलट ने उड़ाया था. तब के बाद की हवाई यात्राओं में बहुत मन्नतें मांगी कि फिर कोई लड़की चीफ पायलट बनकर आए, इतनी लड़कियां मेरे बैठे जहाज़ों को उड़ाएं कि उनके नाम याद रखने की ज़रूरत ही महसूस ना हो. लेकिन कमबख्त एयरलाइन वालों ने कभी ऐसा मौका दिया ही नहीं. बावजूद इसके कि देश के सिविल एविएशन मंत्री कुछ महीने पहले कह चुके हैं कि भारत में महिला पायलटों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है. अब जब मंत्री जी ने कहा है तो सच ही होगा, शायद मेरा बैडलक ही ख़राब है. अगर एयरलाइन पायलटों के नाम पहले साझा कर सकते तो मैं कोशिश कर उन्हीं जहाज़ों का टिकट कटाती जिनकी पायलट कोई सुश्री हो, ताकि किसी का भी नाम याद रखने की जहमत ही नहीं उठानी पड़े.

पता है क्यों ज़रूरी है नाम और गिनती भूल जाना? क्योंकि जहां गिनतियां खत्म होती हैं वहीं से बराबरी शुरु होती है. सफलताओं की लिस्ट जब छोटी होती है तो नाम याद रहते हैं, वही सफलताएं जब कई सारी हो जाती हैं तो केवल उसकी लंबाई याद रह जाती है. औरतों की गिनी-चुनी उपलब्धियां उस समाज के शोकेस में सजाई जाती हैं जो वास्तव में उनकी सफलता दर के लिहाज़ से सबसे पीछे है. बराबरी उस दिन आएगी जिस दिन आप खिलाड़ी को खिलाड़ी, लेखक को लेखक, पायलट को पायलट और साइंटिस्ट को साइंटिस्ट कहेंगे. हर अचीवमेंट के आगे महिला लगा देना उनको सांत्वना पुरूस्कार देने जैसा लगता है.

खासकर जब आप खेलों में मिली सफलता को बेटियों ने नाम ऊंचा कियाजैसी हेडलाइन से नवाज़ते हैं तो मन सचमुच खट्टा हो जाता है. बिल्कुल वैसा ही एहसास होता है जैसे एक बेहद ख़राब बाथरूम सिंगर ने नलका चलाते ही फिर से अपना इकलौता, बेसुरा आलाप छेड़ दिया है. आपकी बेटियों का मुकाबला वहां मंगल ग्रह के एलियन्स से नहीं था, किसी ना किसी की बेटी से ही था. रही बात अंतरराष्ट्रीय खेलों की तो वहां तो आपके बेटों के प्रदर्शन भी हमेशा खराब ही रहा. अच्छा होता भी तो कैसे, उनके प्रोफेशनल जूतों और अच्छी खुराक के फंड से तो आपका सरकारी हुक्मरान अपने परिवार को विदेश यात्रा पर ले जाते हैं.

इतना प्रवचन इसलिए कि इन कॉमनवेल्थ खेलों की मेडलतालिका ने दिल दिमाग को आज ठंढक पहुंचा दी है. महिला पदक विजेताओं के नाम की लिस्ट पढ़ना शुरु कीजिए, आप बीच में ही गिनती भूल जाएंगे. ऊपर स्क्रोल करके दोबारा शुरु कीजिए, थोड़ी देर में आप थक जाएंगे, ऊब जाएंगे. फिर आप खुद से कहेंगे, अच्छा 66 मेडल हैं, 26 गोल्ड मिले हैं, सामान्य ज्ञान के लिए इतना ही काफी है.

मैं खुश हूं कि इस कॉमनवेल्थ खेलों ने लड़कियों के नामों की गिनतियां गिनने से निजात दिला दी है. मैं चाहती हूं इसी तरह हम लड़कियों की सफलता से जुड़ी तमाम गिनतियां भूल जाएं, फायटर पायलटों की, वैज्ञानिकों की, कंपनी प्रमुखों की, टैक्सी ड्राइवरों की....और आखिर में बस एक लिस्ट बचे जो इतनी छोटी, इतनी दुर्लभ हो कि उनके नाम प्रेत छाया की तरह समाज का पीछा ही ना छोड़ें, लड़कियों के ऊपर हो रहे शारीरिक अत्याचारों की.

Sunday, April 8, 2018

सफरकथा: संवेदनशून्यता का हासिल




साल 2001 का मार्च महीना था, आजतक के शुरुआती महीने थे. पहले बजट की कवरेज की मारामारी थोड़ी धीमी हुई थी कि नानी की गंभीर हालत की खबर मिली. हड़बड़ी में होली से एक शाम पहले स्लीपर में टिकट कटवा मैं निकल भागी. रात तक ट्रेन जिन भी स्टेशनों से गुजरी, बंद शीशे पर गोबर, मिट्टी, जाने क्या-क्या फेंका जाता रहा. सुबह होते ही बाहर अपेक्षाकृत शांति हुई और बोगी करीब-करीब खाली. मेरे हाथ में एक दोस्त से मांगी अंग्रेज़ी की एक किताब थी जिसे और फटने से बचाने के लिए अखबार का कवर चढ़ाया गया था. सामने बैठे अधेड़ सज्जन ने कनखियों से देखते रहने के बाद कई बार बात शुरु करने की पहल की. उनकी उत्सुकतता मेरी पढ़ाई और नौकरी से शुरु होकर, मेरे अकेले होने की वजह और मेरी किताब का कवर हटाकर झांकने तक पहुंच चली तो एक तरह से डपट देना पड़ा.

साइड वाली बर्थों पर दिल्ली से ही चढ़ा एक खोमचेवाले का परिवार था. मियां-बीवी और चारेक साल का एक बच्चा. वो पढ़े लिखों वाली बात से दूर अपने आप में मगन रहे. थोड़े समय बाद अंकल जी उन्हें हिकारत से देखते हुए उतर लिए. मुझे दोपहर बाद पहुंचना था. ट्रेन हस्बेमामूल लेट हो गई. खाना तो दूर पानी तक देने वाला कोई नहीं. धूप से बचने के लिए साथ वाला परिवार पीछे के कम्पार्टमेंट में चला गया. दूर से कुछ लड़कों के हंसने-गाने की आवाज़ आ रही थी. इसके अलावा पूरी ट्रेन में किसी की आहट नहीं. मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. डर से वॉशरूम तक जाने की हिम्मत नहीं हुई. घबराहट में मैंने आंखें बंद कर लीं. कई मिनट बाद किसी के स्पर्श से खोली, वो बच्चा खड़ा था, फुआ, मम्मी पूछी, आपकौ कुछो चाही. मुझे राहत और खुशी के मारे रो दोना चाहिए था, मैं बस इंकार में सिर हिला सकी. वो टुनमुनाता हुआ चला गया. दसेक मिनट बाद फिर आया, एक ठेकुआ और आधी बोतल पानी के साथ. मैंने चुपचाप ले लिया. झुटपुटा सा हुआ तो मां ने बच्चे को फिर फुआ का हालचाल लेने भेजा. उसके कुछ मिनटों बाद हम सबका स्टेशन आ गया था.

इतने साल बीतने और इस बीच जीवन की इतनी सारी ठेलम-ठेल निकल जाने के बीच उस छोटी सी घटना को याद रखने का कोई ख़ास प्रयोजन नहीं था. मैं नहीं ही याद कर पाती अगर कुछ हफ्ते पहले मां-पापा को ट्रेन में विदा नहीं किया होता तो. इस बार टिकट एसी टू में था, कन्फर्म. बस दोनों सीटें उपर की मिली थीं. मैंने चिंता ज़ाहिर की तो मां हंस पड़ीं, कौन सा वेटिंग का टिकट है जो परेशानी होगी, इस देश में बूढ़ों की इतनी फिक्र अभी भी है सभीको.

सामान पैक करते वक्त हमने उस सफर की यादें भी ताज़ा कर लीं जब मेरी नौकरी के शुरुआती दिनों में वो दिल्ली में मुझे छोड़ आरएसी टिकट पर वापस जा रही थी और उन्हें सीऑफ करते वक्त मैंने रोते-रोते साथ बैठे लड़के से उनका ख्याल रखने को कहा था. बाद में मां ने बताया था कि कैसे पूरी रात वो मां के पैरों के पास बैठा रहा था, उन्हें कोई तकलीफ नहीं होने दी. मुझे हर ओर से निश्चिंत कर मां-पापा चले गए.

कम्पार्टमेंट के तीनों लोअर बर्थ दो टीनएज बच्चों के साथ सफर कर रहे एक परिवार के थे. मां-पापा ने रात के खाने के बाद उस परिवार से सीट बदलने की चर्चा की. उन्होंने सीधा इंकार कर दिया. अगल-बगल के कम्पार्टमेंट में भी कोई नहीं मिला. पापा तो किसी तरह उपर चढ़ गए, मां के आर्थराइटिस ने बहुत कोशिश के बाद भी उन्हें उपर के बर्थ तक पहुंचने नहीं दिया. पापा लाचारी से नीचे देखते रहे, इतनी कोशिश से मां का दर्द बढ़ गया. सहयात्री परिवार इन सब बातों से इम्यून, तय समय पर बत्ती बुझाकर सो गया. मां आधी रात के बाद तक उनकी किशोरी बेटी के पैरों के पास बैठी रही. रात के दो बजे टीटी उन्हें दूसरी बोगी में एक सीट दिलवा पाने में कामयाब हुआ. अगली सुबह मां लगभग बीमार होकर अपने घर उतरीं.  

कोई विमर्श नहीं, कोई प्रवचन नहीं. बहुत सारी पढ़ाई और तरक्की के बाद हाथ में फोन, लैपटॉप, हाई स्पीड इंटरनेट और क्रेडिट कार्ड लेकर बैठी मैं, बेचैन सोच में पड़ी हूं. आधी ज़िंदगी गुज़र गई, ना मैं अपनी बेटी को निश्चिंत होकर सड़क पार की बिल्डिंग में भेज पाने के काबिल बन पाई हूं, ना अपने माता-पिता को सहूलियत से एक ठौर से दूसरे भेज पाने के.