देखने को तो सुई-धागा और पटाखा के बीच किसी एक को चुना
जा सकता था. या फिर मंटो, स्त्री या मनमर्ज़ियां के इक्के-दुक्के बच रहे शो की दौड़
भी लगाई जा सकती थी, जो बच्चों की परीक्षाओं के बीच निकल गईं. फिर भी इतवार की शाम ‘विलेज रॉकस्टार्स’ का आकर्षण सभी बड़े
नामों को काफी पीछे छोड़ गया. इतने सारे विकल्पों के बीच भी थिएटर लगभग सारी सीटें
भरी देखना सुखद रहा.
विलेज रॉकस्टार्स दरअसल फिल्म नहीं, बेहद सरल
ज़िंदगी की वो निष्पाप और अनछुई कतरन है जिसे दूर से निहारते रहने से मन नहीं भरता
लेकिन पास जाकर छूने से मैली हो जाने का भय होता है. फिल्म का कोई भी किरदार आपके लिए
अभिनय नहीं करता. उनके पास कैमरे में आँखें डालकर बोलने के लिए भारी भरकम संवाद
नहीं है. ज़्यादातर वक्त तो वो एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर भी नहीं बोलते.
लेंस के एक ओर वो अविरल अपनी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव लांघते चले जाते हैं और दूसरी
ओर बैठे आप मंत्रमुग्ध से उनकी सुबहों और शामों खुद की डूबता-उतरता पाते हैं. उनकी
ज़िंदगी मुश्किलों भरी है जिसे उसी तरह से जीना उन्होंने सीख लिया है, उसमें बाहरी
चमक-दमक और हस्तक्षेप की कोई जगह नहीं.
पूरी फिल्म बिना किसी अतिरिक्त बैकग्राउंड साउंड
के आगे बढ़ती है. चिड़ियों की चहचहाहट, पानी के कलकल, यहां तक कि हवा की सरसराहट
में भी इतना मधुर संगीत है कि एक समय बाद आपको अपने पॉपकार्न की आवाज़ भी अशांति
पैदा करती लगेगी.
शुरुआती क्रेडिट तीन स्लाइड्स में खत्म कर फिल्म उसी
गति में आगे बढ़ती है जिसमें उसके किरदारों का जीवन चलता है. कहानी के केन्द्र में
है दस साल की धुनु और उसकी मां बसंती का खूबसूरत और सशक्त रिश्ता. मां जो पति को
खोने के बाद घर-बाहर की सारी ज़िम्मेदारियां अकेली उठाए जा रही है फिर भी अपने
बच्चों, ख़ासकर बेटी के सपनों को मरने नहीं देती बल्कि उन्हें पूरा कर पाने की हर
संभव कोशिश करती है. धुनु को केवल लड़कों का साथ पसंद है. खिलौनों के अभाव में इन
बच्चों की टोली मनोरंजन के जैसे मौलिक तरीके ढूंढ लाती है वो बचपन की मासूमियत और
स्वाभाविकता को जीवंत कर देता है.
गांव की औरतें जब धुनु को लड़कों के साथ खेलने के
लिए डांट लगाती हैं तो बसंती अपना आपा खो बैठती है. पहले मासिक चक्र के प्रतिबंधों
को पूरा करने के बाद धुनु जब वापस अपने दोस्तों के साथ उछल-कूद में मगन हो जाती है
तो मां के चेहरे पर खिंच आई स्निग्ध मुस्कान अनमोल है. सफेद साड़ी, तुड़ी-मुड़ी
ब्लाउज़ और लगभग सपाट छाती वाली ये मां फेमिनिज़्म और वुमन एमपावरमेंट का इतना
सशक्त पाठ पढ़ाती है जिन्हें हज़ारों जुमलों और सैकड़ों पन्नों को छानकर भी समझा
नहीं जा सका है.
एक दृश्य में अपनी मां से तैरना सीखते हुए धुनु
पूछती है, ‘तुम
इतना अच्छा तैरती हो फिर पिता बाढ़ के पानी में कैसे डूब गए?’
‘क्योंकि उन्होंने डरना नहीं छोड़ा’, मां पानी को
निहारते हुए कहती है.
दूसरे दृश्य में बाढ से बर्बाद हो गई फसल को
देखती धुनु अपनी मां से पूछती है, ‘जब हर साल बाढ़ सब बर्बाद कर देती है तो तुम इतनी
मेहनत से खेती क्यों करती हो’.
‘क्योंकि मेहनत के अलावा हम और कुछ नहीं कर सकते’, मां उतने ही शांत
स्वर में जवाब देती है.
मां-बेटी के बीच ऐसे सरल-सहज संवाद लंबे समय तक
संजोकर रखे जाने योग्य हैं.
कहानी बस इतनी सी है कि गांव के मेले में पर्फॉम
रहे बैंड को सुनने के बाद धुनु और उसके साथी थर्मोकोल के गिटार बनाते हैं और उसे
असल गिटार में बदलने का सपना संजोते है, ताकि वे गांव में अपना रॉक बैंड बना सकें.
बेटी के इस सपने को पूरा करने के लिए मां भी प्रतिबद्ध है. डेढ़ घंटे की अवधि में
फिल्म कहीं भी अपनी रफ्तार तेज़ नहीं करती. फिल्म का कोई भी दृश्य आपको उत्तेजित
नहीं करता, कहीं भी आंखों में आंसू नहीं आते, क्लाइमेक्स का सस्पेंस कहीं दिल की
धड़कन नहीं बढ़ाता. फिर भी थिएटर से निकलते वक्त आप अपने गले में कुछ अटका पाते
हैं, छाती भारी सी लगती है और एक अशांत सी शांति घर लौटने के बहुत बाद तक भी आपको
नहीं छोड़ती.
अड़तालीस घंटे बाद भी वो सम्मोहन वैसे ही तारी
है.
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