सौतेली माँ ने नए-नवेले दामाद से शिकायत की कि
उसकी पत्नी खुले तालाब में छाती मल-मलकर नहाती है, दामाद बाबू को ग़ुस्सा आ गया और
उन्होंने ससुराल में ही पत्नी की पिटाई कर दी. कुछ साल बाद एक बार पत्नी को लेकर
पंजाब भाग गए. वहां एक बार उससे कहा, इतने बांके-सजीले सरदार घूमते हैं यहां,
तुम्हें क्या कोई पसंद नहीं आता. पत्नी से सिर पकड़ लिया, किस सिरफिरे के पल्ले
बंध गई, कभी झूठी शिकायत पर हाथ उठाता है तो कभी बीवी को लड़के पसंद करने को कहता
है. जाने कैसे कटेगी इसके साथ ज़िंदगी मेरी. आगे की ज़िंदगी काट पाना सचमुच दुरूह
था, फक्कड़ पति भटकता रहा अपनी अनगिनत यात्राओं पर, पत्नी नाममात्र की ज़मीन के
सहारे अकेले छह बच्चों को पालने का संघर्ष करती रही. उनकी पढ़ाई-लिखाई के साथ उनके
मुंडन, उपनयन, शादी के भी सरंजाम जुटातीं. पति को ख़बर जाती तो समय पर उपस्थित भर
हो पाते.
कहानी बाबा नागार्जुन की है, सुनी थी उन बैठकों
को दौरान जिनका उनके जीवन के आख़िरी सालों में सौभाग्य मिला. उन दिनों जितनी बार उनसे मिलना होता, हौले से
हंसते हुए थोड़ी लटपटाई हो चली ज़बान में कई कहानियां सुनाते रहते. एक बार राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत की
यात्रा पर थे, एक स्थान पर पहुंच राहुल जी ने उनसे लौट जाने का आग्रह किया और कहा
कि रास्ते में उनके परिवार से मिलते, उनकी सलामती का संदेश पहुंचाते जाएं. मिलने
पर राहुल जी की पत्नी रो पड़ीं, कहा, “उनसे पूछना मेरी क्या ग़लती जिसकी ये सज़ा मिली
मुझे”. राहुल
जी की मां ने बहु को रोका, “किसके सामने रो रही हो, ये भी तो किसी को ऐसे ही
छोड़ आया है.” ये बात
सुन बाबा उस बार घर लौट आए, लेकिन वो लौट आना भी फिर किसी नई यात्रा को निकल जाने
का अल्पविराम ही था.
दरभंगा में बिताए उनके जीवन के आख़िरी सालों को
करीब से देखा. बड़े सुपुत्र शोभाकांत जी का परिवार उनकी परिचर्या करता. अपनी बड़ी बहु
की हिम्मत की बाबा बड़ी प्रशंसा करते. उन्हीं बड़ी बहु ने एक बार मुझसे कहा था, “मैं इन्हें अपना
श्वसुर नहीं मानती, वो होते तो मेरे बच्चों को श्लोक सिखाते, मेरे दालान पर बैठ घर
के बड़े होने का कर्तव्य निभाते, लेकिन इन्होंने इसमें से कुछ भी नहीं किया. इनकी
सेवा इसलिए करती हूं क्योंकि ये मेरे गुरु है और देश की इतनी बड़ी विभूति हमारे
पास धरोहर है.”
बाबा की पत्नी अपराजिता देवी से कभी मिलना नहीं
हो पाया. आख़िरी सांस तक भी उन्होंने अपना गांव, अपनी डीह नहीं छोड़ी. उनकी मत्यु
बाबा से बरस दो बरस पहले हुई थी. चूंकि ख़बर नहीं बनी तो पता नहीं चल पाया. एक बार
मंदिर में उनकी बड़ी बहु से मिलना हुआ, बाबा की सेहत को पूछा तो हाथ पकड़कर रो
पड़ीं, “वो तो
ठीक हैं लेकिन मेरी मां चली गईं.” परिवार के अंदर उनकी लौह इच्छाशक्ति और दृढ़
संकल्प का इतना ही मान था.
आज बाबा की 20वीं पुण्यतिथि है. उनके बारे में,
उनके लिखे के बारे में बात करने का दिन. शायद इन बातों को याद करने का सही दिन
नहीं. आज का लिखना लेकिन तो भी रुक नहीं पाया. अंतर्मन को ये बात हमेशा मथती रहती
है कि अमृता प्रीतम को याद की जाने वाली हर तारीख़ पर उनकी लेखनी से ज़्यादा उनके
और इमरोज़ के रिश्ते और उस रिश्ते में इमरोज़ के त्याग और समर्पण को याद किया जाता
है.
लेखन कठिन विधा है, जीवसाथी का त्याग और सहयोग जिसमें
बहुत अपेक्षित है. बाबा के जीवन को बहुत क़रीब से देखने का सौभाग्य मिला. पति से
अपमानित, तिरस्कृत होकर भी उनके लिखे को संवारने वाली वीएस नायपॉल की जीवनी के
कई हिस्से भी पढ़े. बावजूद इसके पति के
लेखन के पीछे पत्नियों के त्याग की ऐसी जाने कितनी कहानियां होंगी जिन्हें कोई
नहीं दुहराता, जो शायद किन्हीं पन्नों में दर्ज नहीं हुईं या गर हुई भी हों तो उन्हें
पलटने की ज़रूरत अब किसी को नहीं होती.
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