कुछ
बातें निजी स्तर पर इतने गहरे जुड़ी होती हैं कि उनके बारे में कुछ भी कहना कई
पुराने ज़ख्मों को कुरेद देता है। मेरी परवरिश में दादाजी का बहुत बड़ा हाथ था, कई
मायनों में वो समय से बहुत आगे थे। शादी के बाद उन्होंने मां की पढ़ाई पूरी करवाई,
हम चारों बहनों की पढ़ाई से जुड़ी हर छोटी चीज़ को लेकर हमेशा सजग रहे। टीवी पर
मेरी एक रिपोर्ट को उतनी बार टकटकी लगाए देखते जितनी बार वो दोहराई जातीं। मेरी
नौकरी के दौरान एक बार जब वो हमारे घर आए थे, उन्हीं दिनों नानाजी ने भी हमारे यहां
आने का प्रोग्राम बनाया। दादाजी को जब ये खबर मिली तो उन्होने थोड़ी तल्खी से कहा,
“मैं अपने घर में हूं, बाकी मेहमानों का स्वागत है।” जवाब में मां ने हंसकर बस इतना कहा “मेहमान क्यों, ये उनकी बेटी का भी तो घर है।“ दादाजी तुरंत नाराज़ हो गए।
उस वक्त
बात आई-गई तो हो गई लेकिन उस छोटी सी बात ने मुझे अंदर तक हिला दिया। अगर नानाजी
हमारी घर के मेहमान हैं तो बुढ़ापे में मेरे मां-बाप का घर कौन सा होगा? क्या वो पूरी ज़िंदगी चारों बेटियों के घर मेहमान बनकर जाएंगे?
हालांकि
गुणीजनों ने मेरी मां को अपना बुढ़ापा सिक्योर करने के लिए सलाह देते रहने में कभी
कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ मिसालें,
“एक बेटी की शादी आस-पास के ही थोड़े गरीब परिवार में करवा देना तुम्हारे पास ही रह जाएगी।“
“किसी रिश्तेदार के
बेटे के नाम सबकुछ कर देना, वो बुढापे में देखभाल भी कर देगा”
“मन से जिसको बेटा
मान लोगी वही मरने के बाद मुक्ति दिला देगा।“
ये वो
समय था जब मेरे माता-पिता किसी और बात की परवाह किए बिना बस हमारी पढ़ाई और करियर पर
अपनी सारी शक्ति लगा रहे थे।
हमारे
समाज में पितृसत्ता की जड़ें इतनी ही गहरी हैं कि कि मां-बाप की मृत्यु शोक की
सीमा भी बेटियों के लिए बस तीन दिन तक निर्धारित है जबकि सास-ससुर के लिए 13 दिन
का शोक होता है।
जब से माननीय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अपने पति को उसके बूढ़े मां-बाप की सेवा जैसे पवित्र
काम से विलग करने की क्रूरता के लिए पत्नी को तलाक देना जायज़ है, ये ख्याल बार-बार
कौंच रहा है कि कानून को बेटा-बेटी से ऊपर उठकर संतानों को बस संतान की तरह देखने
की ज़रूरत कब महसूस होगी?
मीडिया
रिपोर्ट्स ने ये नहीं बताया कि ये फैसला किस परिपेक्ष्य में लिया गया। लेकिन ये ज़रूर कहा गया कि भारतीय समाज में शादी के बाद पत्नी अपने पति के परिवार का हिस्सा बन
जाती है। पत्नी ही क्यों, उसकी डिग्रियां, उसकी उपलब्धियां, उसकी तनख्वाह, सब उस
नए परिवार की मान ली जाती हैं। बस उसकी पुरानी ज़िम्मेदारियां किसी और की नहीं हो पातीं। बेटियों की कमाई का एक हिस्सा
उसके मां-बाप की देखभाल में खर्च करने की बाध्यता लेकर आने वाला कानून कब आएगा?
बदलते
क़ानून ने बेटियों को शिक्षा, सम्पत्ति, सहमति सबका अधिकार तो दे दिया, उनके मां-बाप
के प्रति उनके और उनके पतियों के कर्तव्यों की रेखाएं कब खीचीं जाएंगी? क्योंकि कानून बनना तो बस शुरुआत होती है उसके बाद भी समाज का चलन
बदलने में पीढ़ियां खप जाती हैं।
वृद्ध
माता-पिता की सेवा करना हर संतान का फर्ज़ होता है। बुढ़ापा सबको उतना ही डराता
है, वो ये नहीं देखता कि उम्र की मार झेलने वाले बेटे के मां-बाप हैैं या बेटियों
के। या फिर कानून और समाज ये उम्मीद करता है कि बेटियों को जन्म देकर, उनको पढ़ाकर, संपत्ति
का बराबर हिस्सा उनके नाम करके, उनके साथ सेल्फी खिंचवाकर पोस्ट करने के बाद उनके
मां-बाप मन से विदेह हो जाएं? उनसे किसी तरह के
प्रतिदान की उम्मीद ही नहीं करें। ताकि इस एक पीढ़ी के बाद बेटियों के करियर के लिए
अपना जीवन दांव पर लगाने वाले मां-बाप की हिम्मत ही जवाब दे जाए?
फिर ‘हम दो हमारे दो’ वाले सरकारी
इक्वेशन में अगर दोनों बेटियां हों तो मां-बाप भ्रूण परीक्षण कराकर उस इक्वेशन को
तबतक ठीक करने की कोशिश करते रहें जबतक उसमें एक लड़के की एंट्री ना हो जाए? आखिर ‘खानदान का नाम’, ‘बुढ़ापे की लाठी’ जैसे जुमले ही तो सैकड़ों सालों से बेटियों के अरमान और अक्सर उनकी ज़िंदगियों के कुचले जाने के अपराधी रहे हैं।
शुक्र
है समाज कानून के बिना भी रोज़ थोड़ा बदल रहा है। दोनों जोड़ी मां-बाप की सेवा
करने वाले परिवारों की तादाद बढ़ रही है। माता-पिता को मुखाग्नि देने वाली बेटियों
को भी बहुत करीब से देखा है। अपने मां-पापा और सास-ससुर को साथ-साथ त्यौहार मनाते
देखती हूं तो एहसान मनाती हूं उस एक वाकये का जिसने मेरी ज़िंदगी की प्राथमिकताएं
तय कर दीं।
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