Saturday, July 16, 2016

ग़ैरत गर मिस्प्लेस्ड हो


यूं कहानी आंखों के सामने की है फिर भी नाम बताने की ज़रूरत नहीं। हर शहर के हर मुहल्ले की हर गली में मर्दानगी से लबरेज़ ऐसे नमूने ज़रूर होते हैं जिनके ज़िक्र के बिना औरतों की मुहल्ला गोष्ठी कभी पूरी नहीं होती। औरतें आंखें गोल-गोल किए, पल्लू से मुंह ढककर, फुसफुसाती आवाज़ में उस आदमी का नाम लेतीं हैं और उसकी बीवी के लिए च्च-च्च जैसी कुछ आवाज़ निकालतीं और अपनी किस्मत पर रश्क करतीं घर निकल जाती हैं। तो जनाब ऐसे ही भरे-पूरे मर्द थे जिनकी मर्दानगी का एक ना एक सबूत बीवी के शरीर पर चोट के निशान के तौर पर हमेशा मौजूद रहता। यूं मां-बाप से भी गाली-गलौज करते, फिर भी थे तो बेटे ही, सो बीवी पर हाथ उठाते वक्त मां-बाप का भी पूरा सहयोग मिला करता उन्हें। बीवी बड़े संस्कारी किस्म के परिवार से आई थी, इसलिए अर्थी के अलावा मायके लौटने के लिए कोई और सवारी मयस्सर नहीं थी उसे। मार खाती, आंसू बहाती और इकलौती बिटिया को लेकर कोने में सो रहती।

बिटिया बड़ी हो रही थी, रोज़ सहमी नज़र से मां को पिटता देखती। बच्चे की आंखों में दहशत देखती मां के अंदर हर रोज़ एक ज़्वालामुखी बन रहा होता है जो किसी को नज़र नहीं आता। इसलिए एक दिन वो क्या कर गुज़रती है किसी को भनक तक नहीं लगती। आखिर एक दिन बीवी का सब्र जवाब दे गया। नशे में धुत पति ने जब हाथ लगाने की कोशिश की तो जो हाथ में आया उठा लिया उससे जहां-जहां चोट कर सकती थी जमकर कर दी। पतिदेव को डॉक्टर के पास जाने की नौबत आई। जिसकी रोज़ रात की गाली-गलौज से मुहल्ले के संस्कारी लोग कान बंद कर लेते थे वो नुक्कड़ पर निकलकर किस मुंह से ज़ाहिर करता कि ये हाल बीवी ने किया है, सो छुपते-छुपाते अकेला गया डॉक्टर के पास।
डॉक्टर साहब उस नालायक पति की तरह तो थे नहीं, खुले विचारों वाले ग़ैरतमंद इंसान थे। चोट की गंभीरता देखकर संजीदा हो गए और वजह पूछ लिया। कहानी पता चलने पर उन्होंने भी पति तो खूब लताड़ा, कैसे मर्द हो तुम, बीवी से मार खाकर मेरे पास इलाज के लिए आए हो, उसके पहले शर्म से मर क्यों नहीं गए कहीं जाकर। 
हम्म, तो पढ़े लिखे, खुले विचारों वाले डॉक्टर साहब का मानना था कि जो बीवी से पिटकर आया है उसे जीने का अधिकार नहीं है। पत्नी से दरिंदगी करने वाला शख्स छाती तानकर जीता रह सकता है। पीठ पीछे चाहे कोई कुछ भी कहे, सामने-सामने उससे कुछ कहने की ना समाज को ज़रूरत होती है ना हिम्मत। और समाज की यही मिस्प्लेस्ड ग़ैरत जाने कितनी ज़िंदगियों की गुनहगार है।
ग़ैरत वाकई बहुत ज़रूरी इंसानी ज़ज़्बा है, लेकिन बस तभी तक जब तक वो मिस्प्लेस्ड ना हो। मिस्प्लेस्ड ग़ैरत और उसके महिमामंडन से ज़्यादा खतरनाक शायद समाज के लिए और कुछ भी नहीं।


ख़ैर हमारी कहानी का अंत थोड़ा ग़ैर फिल्मी हुआ। एक बार हिम्मत आने के बाद बीवी ने चुप बैठना कबूल नहीं किया। सबसे पहले उसने ससुराल का घर छोड़ने से इंकार किया, फिर मुहल्ले वालों का दरवाज़ा खटखटाया और सबको साथ लेकर पुलिस में शिकायत की। पड़ोसियों से शिकायत की तस्दीक के बाद पुलिस तो परिवार को डांटकर, समझा-बुझाकर चलती बनी लेकिन मुहल्ले वालों की थुक्का-फजीहत से परेशान सास-ससुर और पति ने ही शहर छोड़ दिया। कम पढ़ी-लिखी उस औरत की ग़ैरत शुक्र है सही जगह पर थी। कई साल बाद अब वो बेटी के साथ ससुराल वाले उसी घर में है और नौकरी कर शांति से घर चला रही है।   

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