Sunday, September 24, 2017

बेटियों, ख़ुद बचो, ख़ुद पढ़ो और ख़ुद के लिए लड़ो



उसने मेरे साथ छेड़खानी की.’
तुम उस वक्त वहां कर क्या रही थी?’
वो मुझे गंदी नज़रों से देख रहा था.
तो तुम्हारी नज़रें उसकी आखों की तरफ देख ही क्यों रही थी?’
वो मुझे भद्दे इशारे कर रहा था.
उसे देखने के लिए तुम वहां खड़ी क्यों थीं, सामने से हट क्यों नहीं गई?’
ये हमारी सुरक्षा का सवाल है.
हम भी उसी की बात कर रहे हैं, दुनिया के सारे ताले तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही तो बनाए गए हैं. तुम्हें उनके पीछे जाने में एतराज़ भला क्यों है?’
लड़की हो तो तुम्हारे हर बयान पर सवाल दागे ही जाएंगे, उनके जवाब देने की आदत डाल लो. तब तक,  जब तक कि सवाल खत्म ना हो जाएं, क्योंकि सवाल पूछने वाले का मकसद जवाब सुनना तो है ही नहीं, वो तो तुम्हारे चुप हो जाने का इंतज़ार कर रहा है ताकि खुद को विजेता घोषित कर सके.

Saturday, September 9, 2017

अपने दिल के दरवाज़े की खुद ही मालिक हैं गीताश्री की नायिकाएं


अमृता प्रीतम ने अपनी नायिका के दिल के दो दरवाज़े बनाए. सामने का दरवाज़ा उसकी मर्ज़ी से नहीं खुलता और पिछले दरवाज़े का खुलना वो किसी को दिखा नहीं सकती. ना ही पिछले दरवाज़े से आने वाले के लिए सामने का दरवाज़ा खोला जा सकता. पिछला दरवाज़ा खोलने के लिए भी हौलसा चाहिए होता, क्योंकि उस दरवाज़े से जो दिल एक बार चला जाता वो लौटकर कभी छाती में वापस नहीं आता. शायद इसलिए गीताश्री ने अपनी नायिकाओं के दिल में बस एक दरवाज़ा बनाया, उसकी सारी आकांक्षाएं, सारी चाहनाएं सब इस चौखट से नज़र आने दीं. अपनी हसरतों को शब्दों में ढाल कर वो अपने दिल के दरवाज़े को अपनी मनमर्ज़ी से खोलने और बंद करने का हौसला रखती है. गीताश्री की नायिकाओं का दिल हौले से धड़कता नहीं, बड़े हौल से हुलसता है, क्योंकि अपने शरीर और मन की चाहनाओं पर उसने शर्मिंदा होना नहीं सीखा. फिर वो कटोरी भर मलाई खाने की सुरीलिया (मलाई) की हसरत हो या प्रेम में भी अपना स्व बचाकर रखने की सुषमा (सी यू) की ज़िद, पाठक अपने आपको नायिकाओं के इंतिख़ाब के सामने झुकता हुआ पाता है और पन्ने पलटते-पलटते उन्हें अपनी सहमति दे बैठता है.

Tuesday, September 5, 2017

जानने और सिखा पाने के बीच का फर्क



If you can’t explain it simply, you don’t understand well enough 

साठ के दशक में ही इंटरनेट के आने की भविष्यवाणी कर ग्लोबल विलेज की बात करने वाले मशहूर दार्शनिक और संचारविद् मार्शल मैकलुहान यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में प्रोफेसर भी थे. मैंने अपने गुरु से उनके बारे में एक दिलचस्प कहानी सुनी थी. एक बार मैकलुहान को अपनी पार्किंग में उनकी एक छात्रा की गाड़ी खड़ी दिखी. उन्हें बड़ा गुस्सा आया, उन्होंने उसकी कार की विंडशील्ड पर एक पर्ची लिखकर टांग दी, ये आखिरी बार होना चाहिए जब मुझे तुम्हारी गाड़ी, अपनी पार्किंग में नजर आई है.
अगले दिन छात्रा का जवाब उनकी गाड़ी की विंडशील्ड पर था, ये पहली बार है जब आपकी कही कोई बात मेरी समझ में आई है.

Saturday, September 2, 2017

मौत तू एक....


छोटी सी थी, पांच-छह साल की. दादी के साथ सटी रहती. वो बहुत कम बोलतीं लेकिन प्यार करते करते एक सवाल बार-बार पूछतीं, "जियोगी, मरोगी या हुकुर-हुकुर करोगी." मैं सोच में पड़ जाती. मरने का सवाल तो खैर था ही नहीं, लेकिन जीने का मतलब रोज़-रोज़ स्कूल जाना, वापस आकर होमवर्क करना. बहुत सोच-विचारकर भी मैं हर बार लगभग एक ही जवाब देती, हुकुर-हुकुर करब. वो हंस पड़तीं, धुर बतहिया कहकर प्यार करने लग पड़तीं. उस उम्र तक ये नहीं पता था कि हर सुबह उठकर जीने का फैसला हमें खुद ही लेना पड़ता है वरना जब तक जिंदगी के हक में होता है वो हमें हुकुर-हुकुर करते रहने का ही विकल्प देती है.

मौत कोई नहीं चुनता इसलिए चुनने के अधिकार मौत ने अपने पास रख लिए हैं. मरण सागर के पार किसी को नज़र नहीं आता इसलिए हर कोई उस दृश्य को अपने हिसाब से गढ़ लेता है.