Thursday, October 18, 2018

जब मर्द ‘कुछ’ नहीं करते



लड़कियों ने साफगोई से बोला कि अकबर ने कुछ नहीं किया.
जब कुछनहीं किया तो आरोप किस बात का? सत्ता के मद ने अपनी ऊंचाई से बिना नीचे झांके प्रश्न किया. फिर अपने मान को हुई हानि से नाराज़ हो आँखें लाल कर ऐसा गुर्राए कि पूरा सिस्टम सावधान की मुद्रा में सर्कस की अगली कड़ी का इंतज़ार करने जुट गया.
क्योंकि मान की हानि के लिए तो कानून में प्रावधान है लेकिन आत्मविश्वास को छलनी करने पर जुर्माना भी नहीं लगता. मर्यादा की सीमा लांघने में कानूनी तो दूर, सामाजिक अड़चन भी नहीं होती. चूंकि पब्लिक प्लेस में हैं औरतें तो पब्लिक प्रॉपर्टी हैं आपके लिए.
आप कुछ नहीं करते हैं, बस झांक लेते हैं, खुले बटन के अंदर, कपड़ों की तीन तहों के पार, शरीर की गोलाइयों में. काम करती वो लड़की असहज हो अपने कपड़ों की साज संभाल में व्यस्त हो अपनी लापरवाही के अपराधबोध से भर जाती है. आपका क्या, झांकने का कोई सबूत थोड़े ही ना छोड़ा आपने.
आप टटोल लेते हैं, भीड़ में, अकेले में, अंधेरे में, हाथ को मौका नहीं मिला तो नज़रों से. आपका मुर्झाया अहम पोषित हो उठता है, अपने आत्मविश्वास पर पड़ी चोट से वो और सिकुड़ जाती है अपनी खोल में. आपके लिए वो शरीर है, उससे जुड़े चेहरे का आपके लिए कोई मतलब नहीं, उसके लिए आप एक चेहरा हैं दशहत का, कायरता का. वो चेहरा जो आंखें बंद करते ही उसे डराता है लेकिन सबके सामने उस चेहरे पर उंगली उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई होगी वो.
आप दबोच लेते हैं, मौका मिलते ही, बोलकर, मांगकर, गिड़गिड़ाकर, झपटकर. क्योंकि ना सुनना आपको सिखाया नहीं गया, वैसे ही जैसे औरतों को नहीं सिखाया गया बोलना. वैसे भी उसके शरीर पर आपके पंजों के निशान का कोई फोरेंसिक सबूत नहीं.
ना कपड़े नोंचे, ना मुंह पर हाथ रख चीखें रोकीं, ना बदन पर चोटों के निशान छोड़े. फिर कैसा अपराध और किस बात का अपराधबोध? आपकी बेशर्म नज़रें, आपके असभ्य ठहाके, आपके भद्दे चुटकुले, आपकी लिज़लिज़ी उंगलियां, इनमें से कुछ भी कुछ कहां है जिससे समाज के बेचैन हो जाने की नौबत आए.
क्योंकि मर्दों के कुछ करने का मतलब होता है औरतों को वैसी स्थिति में ला छोड़ना जिसके बाद वो अपना चेहरा छिपाती फिरें, ख़ुद को अपने अंधेरों में क़ैद कर लें या अगर ज़रा भी ग़ैरत हुई तो परिवार की इज़्ज़त का फंदा गले में डालकर झूल जाएं. फिर इन दर्जन दो दर्जन लड़कियों ने तो पलक भी नहीं झपकाई, बेग़ैरतों की तरह हर रोज़ काम पर आती रहीं, प्रमोशन पाती रहीं, करियर बनाती रहीं. यही नहीं, इनकी शह पर एक पूरी पीढ़ी निकल आई है अपने-अपने घरों से और फैल गई हैं चारों ओर.  टिड्डियों की तरह.  
ये ही क्यों, जितनी लड़कियां इतने सालों बाद जाने किस की शह पर चपड़-चपड़ बोले जा रही हैं उन्होंने उसी वक्त शोर क्यों नहीं मचाया? क्योंकि उस वक्त उन्हें विरोध के नहीं बचाव के तरीके सिखाए गए थे. उन्हें रास्ते सुझाए गए मुख्य सड़क छोड़ पगडंडियां नापने के. लेकिन वो तो वाकई ढीठ निकलीं, फिर भी नहीं छोड़ा उन्होंने अपना रास्ता. देर से ही सही, पहुंचने लगीं अपनी मंज़िल पर.
औरतों का शरीर आपके लिए अपनी सत्ता और रसूख से हासिल की जा सकने वाली भौतिक सुविधाओं की लंबी फेहरिस्त में एक है. आपको लगता है जब आप महंगी गाड़ियां, घड़ियां और जूते ख़रीद सकते हैं तो दर्जनभर देह क्या चीज़ है. आपको लगता है कि रसोई और बिस्तर में एक चुनना हो तो समझदार लड़की रसोई क्यों चुनेगी भला?
आपमें से ज़्यादातर के लिए शायद लड़कियों के छेड़ना उतना ही खामखा का काम है जितना राह चलते कुत्ते को पत्थर से मार देना. जिससे आपका कुछ बनता बिगड़ता नहीं बस एक सैडिस्टिक प्लेज़र मिल जाता हैअहम पर थोड़ा सा मल्हम लग जाता है. ना कुत्ता अपने पीठ पर लगे धाव की रिपोर्ट लिखाने जाता है और ना ही लड़की ना अपने चोटिल आत्मविश्वास को दिखाकर किसी से शिकायत कर पाती है.
यौन उत्पीड़न के बारे में मुखर हो पाना औरतों के लिए उतना ही बड़ा निषेध है जितना नामर्दी मर्दों के लिए है. आपको अपने लिंग के तमाम फायदे गिनाए गए, उन्हें अपने शरीर की कमज़ोरियां दिखाई गईं. क्योंकि उन्हें अपने बचाव के लिए झुंड में रहना सिखाया गया, उसी झुंड में वो बाहर आ गई हैं
यूं भी जिस देश में यौन शोषण के बाद प्रेमिकाओं की हत्या कराने वाले तथाकथित राजनीतिज्ञ प्रेमी सालों खुले सांड़ की तरह घूमते रहते हैं, उस देश में कुछ नहीं करने के बाद भी नप जाने वाले मंत्री औरतों की एक पूरी पीढ़ी के लिए आसमान में सुराख कर पाने के बराबर है.
अब आपके डरने का वक्त आ गया है, जानते हैं क्यों? क्योंकि बेग़ैरत, बेहया लड़कियों की पूरी फौज सड़कों पर निकल आई है, फैल रही हैं ट्ड्डियों की तरह हर ओर. आप डरिए, इसलिए भी कि उन्होंने आपसे डरना छोड़ दिया है. एक की आवाज़ दूसरी के लिए वो सांस बन रही है जिसके दमपर वो ढूंढ पा रही है अपने प्रतिरोध के शब्द भी.
उसने तब नहीं कहा क्योंकि उसे चुप रहना सिखाया गया, आप नहीं सुधरे क्योंकि आपको सीमा में नहीं रहना सिखाया गया. लेकिन अब जब उसने अपना पाठ बदल डाला है तो समय आ गया है कि आप भी अपना सिलेबस रिवाइज़ कर डालें. 

Tuesday, October 2, 2018

ज़िंदगी की निष्पाप कतरन है 'विलेज रॉकस्टार्स'




देखने को तो सुई-धागा और पटाखा के बीच किसी एक को चुना जा सकता था. या फिर मंटो, स्त्री या मनमर्ज़ियां के इक्के-दुक्के बच रहे शो की दौड़ भी लगाई जा सकती थी, जो बच्चों की परीक्षाओं के बीच निकल गईं. फिर भी इतवार की शाम विलेज रॉकस्टार्स का आकर्षण सभी बड़े नामों को काफी पीछे छोड़ गया. इतने सारे विकल्पों के बीच भी थिएटर लगभग सारी सीटें भरी देखना सुखद रहा.

विलेज रॉकस्टार्स दरअसल फिल्म नहीं, बेहद सरल ज़िंदगी की वो निष्पाप और अनछुई कतरन है जिसे दूर से निहारते रहने से मन नहीं भरता लेकिन पास जाकर छूने से मैली हो जाने का भय होता है. फिल्म का कोई भी किरदार आपके लिए अभिनय नहीं करता. उनके पास कैमरे में आँखें डालकर बोलने के लिए भारी भरकम संवाद नहीं है. ज़्यादातर वक्त तो वो एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर भी नहीं बोलते. लेंस के एक ओर वो अविरल अपनी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव लांघते चले जाते हैं और दूसरी ओर बैठे आप मंत्रमुग्ध से उनकी सुबहों और शामों खुद की डूबता-उतरता पाते हैं. उनकी ज़िंदगी मुश्किलों भरी है जिसे उसी तरह से जीना उन्होंने सीख लिया है, उसमें बाहरी चमक-दमक और हस्तक्षेप की कोई जगह नहीं.

पूरी फिल्म बिना किसी अतिरिक्त बैकग्राउंड साउंड के आगे बढ़ती है. चिड़ियों की चहचहाहट, पानी के कलकल, यहां तक कि हवा की सरसराहट में भी इतना मधुर संगीत है कि एक समय बाद आपको अपने पॉपकार्न की आवाज़ भी अशांति पैदा करती लगेगी.

शुरुआती क्रेडिट तीन स्लाइड्स में खत्म कर फिल्म उसी गति में आगे बढ़ती है जिसमें उसके किरदारों का जीवन चलता है. कहानी के केन्द्र में है दस साल की धुनु और उसकी मां बसंती का खूबसूरत और सशक्त रिश्ता. मां जो पति को खोने के बाद घर-बाहर की सारी ज़िम्मेदारियां अकेली उठाए जा रही है फिर भी अपने बच्चों, ख़ासकर बेटी के सपनों को मरने नहीं देती बल्कि उन्हें पूरा कर पाने की हर संभव कोशिश करती है. धुनु को केवल लड़कों का साथ पसंद है. खिलौनों के अभाव में इन बच्चों की टोली मनोरंजन के जैसे मौलिक तरीके ढूंढ लाती है वो बचपन की मासूमियत और स्वाभाविकता को जीवंत कर देता है.

गांव की औरतें जब धुनु को लड़कों के साथ खेलने के लिए डांट लगाती हैं तो बसंती अपना आपा खो बैठती है. पहले मासिक चक्र के प्रतिबंधों को पूरा करने के बाद धुनु जब वापस अपने दोस्तों के साथ उछल-कूद में मगन हो जाती है तो मां के चेहरे पर खिंच आई स्निग्ध मुस्कान अनमोल है. सफेद साड़ी, तुड़ी-मुड़ी ब्लाउज़ और लगभग सपाट छाती वाली ये मां फेमिनिज़्म और वुमन एमपावरमेंट का इतना सशक्त पाठ पढ़ाती है जिन्हें हज़ारों जुमलों और सैकड़ों पन्नों को छानकर भी समझा नहीं जा सका है.

एक दृश्य में अपनी मां से तैरना सीखते हुए धुनु पूछती है, तुम इतना अच्छा तैरती हो फिर पिता बाढ़ के पानी में कैसे डूब गए?’
क्योंकि उन्होंने डरना नहीं छोड़ा, मां पानी को निहारते हुए कहती है.

दूसरे दृश्य में बाढ से बर्बाद हो गई फसल को देखती धुनु अपनी मां से पूछती है, जब हर साल बाढ़ सब बर्बाद कर देती है तो तुम इतनी मेहनत से खेती क्यों करती हो.

क्योंकि मेहनत के अलावा हम और कुछ नहीं कर सकते, मां उतने ही शांत स्वर में जवाब देती है.

मां-बेटी के बीच ऐसे सरल-सहज संवाद लंबे समय तक संजोकर रखे जाने योग्य हैं. 

कहानी बस इतनी सी है कि गांव के मेले में पर्फॉम रहे बैंड को सुनने के बाद धुनु और उसके साथी थर्मोकोल के गिटार बनाते हैं और उसे असल गिटार में बदलने का सपना संजोते है, ताकि वे गांव में अपना रॉक बैंड बना सकें. बेटी के इस सपने को पूरा करने के लिए मां भी प्रतिबद्ध है. डेढ़ घंटे की अवधि में फिल्म कहीं भी अपनी रफ्तार तेज़ नहीं करती. फिल्म का कोई भी दृश्य आपको उत्तेजित नहीं करता, कहीं भी आंखों में आंसू नहीं आते, क्लाइमेक्स का सस्पेंस कहीं दिल की धड़कन नहीं बढ़ाता. फिर भी थिएटर से निकलते वक्त आप अपने गले में कुछ अटका पाते हैं, छाती भारी सी लगती है और एक अशांत सी शांति घर लौटने के बहुत बाद तक भी आपको नहीं छोड़ती.

अड़तालीस घंटे बाद भी वो सम्मोहन वैसे ही तारी है.