Sunday, November 25, 2018

सफरकथा: शिकारगाह से पक्षी विहार बने अरण्य की सैर




सुबह की हवा में हर रोज़ बढ़ती नमी को देखते हुए सूरज देव ने अपना अलार्म क्लॉक भले ही थोड़ा आगे की ओर सरका लिया हो, भरतपुर के केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में सुबह की सुगबुगाहट अभी भी अपने समय से ही शुरु हो जाती है. पार्क के गेट और टिकट खिड़की के खुलने का समय छह बजे है और उसके पहले ही वहां कैमरा और दूरबीन टांगे सैलानियों की कतार लग चुकी होती है.
टिकट से ज़्यादा होड़ रिक्शा लेने की होती है क्योंकि पार्क के दोनों ओर के ग्यारह किलोमीटर का सफर सरकारी मान्यता वाले रिक्शे या फिर किराए पर ली गई सायकिल पर बैठकर ही पूरा किया जा सकता है. पहले दिन नाश्ता निबटाकर आठ बजे पहुँचने की ग़लती की तो अंदर जाने वाले रिक्शों के लिए इंतज़ार करते सूरज सर पर चढ़ गया था. तभी दूसरे दिन हम गेट खुलने के पहले ही पहुंच कतार में शामिल हो गए.  
ये अरण्य दो नामों की वजह से जाना जाता है. पहला, पक्षी वैज्ञानिक डॉ सालिम अली का, जिनके अथक प्रयासों से ये पार्क वो शक्ल ले पाया जिसके चलते हर साल लाखों सैलानी यहां खिंचे चले आते हैं, और दूसरा, केवलादेव यानि भगवान शिव का जिनका मंदिर पार्क के दूसरे छोर पर है. डॉ सालिम अली के नाम का टूरिस्ट इंटरप्रटेशन सेंटर पार्क के गेट से चंद मिनटों की दूरी पर है जहाँ ज़्यादातर सन्नाटा पसरा रहता है. दूसरे छोर पर बने एतिहासिक केवलादेव मंदिर तक पहुँचने वाले सैलानियों की तादाद भी ज़्यादा नहीं होती. हालाँकि पार्क के बाक़ी का हिस्सा,  सैलानियों की चहल-पहल से भरा रहता है.

 
अभ्यारण्य में अगर अनुभवी रिक्शे वाले का साथ मिल गया तो टूर गाइड लेने की कोई ज़रूरत नहीं. चूंकि रिक्शे वालों का मीटर घंटे के मुताबिक चलता है, वे बड़े तफ्सील से एक-एक स्पॉटिंग लोकेशन पर रुकते, पत्तों के झुरमुठ में छिपे पक्षियों को देखते-दिखाते चलते हैं. क़िस्मत से दूसरे दिन हमें अमर सिंह जी के रिक्शे की सवारी मिली. चालीस साल से पार्क में रिक्शा चला रहे अमर सिंह के बायोडाटा की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि उन्होंने डॉ सालिम अली के साथ भी काम किया है. वो गर्व से बताते हैं कि ऐसा कोई टूर गाइड भी नहीं जो इन पक्षियों के बारे में उनसे ज़्यादा जानता हो. एक शांत और वीरान जगह पर रिक्शा रोकते हुए हमें चुपचाप नीचे उतरने का इशारा होता हैं, ग्रे हॉर्नबिल्स का जोड़ा है वहां, डॉ अली का पसंदीदा पक्षी था ये. हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ इतने ख़ूबसूरत पक्षियों के रहते भला डॉ अली को मैदानी इलाकों में हर जगह पाए जाने वाले धनेश पक्षियों से सबसे ज़्यादा प्यार कैसे हो सकता है. लेकिन अमर सिंह के ज्ञानकोश को चुनौती देने की हमारी कूवत नहीं. वैसे भी जब डॉ अली मोर की जगह, लुप्त हो रहे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड यानि सोहन चिड़िया को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की जंग छेड़ सकते थे तो हॉर्नबिल्स को सबसे ज़्यादा प्यार भी कर सकते थे.
सर्दियों में यहाँ साढ़े तीन सौ से भी ज़्यादा प्रजाति के पक्षी देखे जा सकते हैं. लेकिन सबसे पहले नज़र आता है नींद में मग्न स्पॉटेड उल्लूओं का परिवार. वैसे तो यहाँ केवल उल्लुओं की ही सात प्रजातियाँ हैं लेकिन ये वाली शान किसी और की नहीं.


सुबह के सन्नाटे को लाफिंग डव की हँसी रोशन किए जाती है. हर सौ मीटर पर रिक्शे से उतर, कबूतरों और सारसों की कई और प्रजाति के साथ बाँग्लादेश से आए ब्लू रॉबिन, सुदूर दक्षिण से आ पँहुचे किंगफिशर, स्नेक बर्ड, ट्री पाई जैसे नाम सुन, उन्हें क़ैमरे में क़ैद करते सुबह का दोपहर में बदलना भी नोटिस नहीं करते.  





झील के पानी में दो साल बाद हलचल होने को है. पिछले साल पानी कम होने के चलते यहां बोटिंग नहीं हुई तो इस बरस सरकारी कार्यवाही में हुई देर के चलते तय समय से महीने भर बाद हरी झंडी मिली है. लेकिन हमारे जाने की तारीख़ तक बोटिंग शुरू नहीं हो पाई.



आपको दो-तीन हफ्ते बाद फिर से आना चाहिए, हमारे गाइड और चालक ने घंटे भर में तीसरी बार हमसे ये बात कही है. तब तक कई सारे नए पक्षी और आ जाएँगे. लेकिन साइबेरियन हंसो का जोड़ा अब यहाँ कभी नहीं आ पाएगा. उनकी आवाज़ में ये बताते हुए अफसोस है कि कुछ बरस पहले यहाँ से वापस जाते वक्त हिमालय की तराई में उनका शिकार कर लिया गया. हालाँकि अगर हमारी किस्मत साथ दे तो भारतीय हंसों से जोड़े को हम आज भी देख सकते हैं. कई बार घूमते-घामते वो सड़क से दिखाई देने वाली दूरी तक आ जाते हैं. हमारी क़िस्मत उस दिन आधी साथ थी, दूरबीन से प्रेमरत हंस दिखाई दे गए, क़ैमरे में क़ैद नहीं हो सके.
सैलानियों की सबसे ज़्यादा भीड़ पेंटेड स्टोर्क्स की कालोनी के सामने जमा होती है. सैकड़ों रंगीन सारसों के कलरव से ये पार्क का सबसे गुलज़ार हिस्सा भी है. सारसों की ब्रीडिंग खत्म होने के चलते झील के बीचों बीच बबूल के पेड़ों की कोई डाली ऐसी नहीं बची जिसपर घोंसला ना हो और उन घोंसलो से चोंच निकाले, रूई के गोलों से सफेद चूज़े, अपने खाने के इंतज़ार में शोर ना कर रहे हों. पूरी तरह वयस्क होने पर इन सारसों की चोंच नारंगी और शरीर पर नारंगी, गुलाबी और काली धारियां नज़र आने लगती है. इस वजह से इन्हें पेंटेड स्टोर्क्स का नाम मिला है.


पार्क में आने वाले प्रवासी पक्षियों को अपना शीतकालीन आशियाना पहले से कुछ ख़ाली-खाली, उजाड़ सा दिखेगा. इस साल मई में आए भयंकर तूफान में हज़ारों की तादाद में पेड़ गिर गए थे. पार्क की मुख्य सड़क के दोनों ओर ही विशालकाय पेड़ गिरे नज़र आते हैं जिन्हें यहां के नियमों के मुताबिक उठाया नहीं गया है.

एक समय ये पार्क, राजस्थान के राज परिवारों और अंग्रेज़ हुक्मरानों का शिकारगाह था. कभी यहां दिनभर में मारे गए पक्षियों की संख्या पत्थरों में खुदवा कर रखी जाती थी. केवलादेव मंदिर के सामने बड़े-बड़े शिलालेख, यहां के शिकार के इतिहास की तस्दीक करते हैं. एक दिन में सबसे ज़्यादा पक्षियों के शिकार का रिकॉर्ड 1938 में वॉयसराय, लॉर्ड लिनलिथगो के नाम है. उस साल नवंबर की बारह तारीख को इस जंगल में 4,273 पक्षियों का शिकार हुआ था जो अभी तक विश्व रिकॉर्ड है.
उन शिलालेखों से ध्यान हटाकर हमने केवलादेव शिव मंदिर की ओर रुख किया. बोगनविला की लताओं के बीच छोटे सा मंदिर अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी आमंत्रित करता है. हालांकि बहुत कम लोग यहाँ तक आते दिखते हैं.



हमारे हाथों में बड़े प्रेम से प्रसाद रखते पंडित जी को उनसे बातचीत की हमारी उत्सुकता भली लगती है. हमें अपने हाथों के बने कढ़ी-चावल और चूरमा खिलाने के प्रस्ताव की मनाही के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ. मंदिर के इतिहास के बाद उनकी शिकायतों की बारी है, घर-परिवार छोड़ पचास सालों से यहाँ रह रहा हूं, राज परिवार के ट्रस्ट से मिली 24 हज़ार रुपए सालाना तनख्वाह पर काम चलाता हूं, मज़ाल है जो सरकार ने एक पैसा भी इस मंदिर पर ख़र्च किया हो.पार्क के गिफ्ट शॉप के अधिकारी, पुजारी जी की शिकायत पर हौले से मुस्कुराते हैं, धार्मिक आस्था का प्रश्न नहीं होता तो सरकार इस मंदिर को कब का हटवा चुकी होती. पक्षी अभ्यारण्य में भला मंदिर का क्या काम?”  इस सवाल पर लंबी बात हो सकती है लेकिन फिलहाल अपने रिक्शे वाले का शुक्रिया करने का वक्त है. दोबारा ज़रूर आना, उनका आग्रह जारी है.

बाहर निकलते समय हमने अपना कैलेंडर खोला, नबंबर के आख़िर में शायद एक और लंबा सप्ताहांत मिले.






Sunday, November 11, 2018

बाज़ार ना हों तो भावनाएँ सूख जाएं



दिवाली की जगमग रोशनी के बीच एक अधेड़ औरत मिट्टी के बने दिए और सकोरे बेचने की असफल कोशिश कर रही है. दिये ख़रीदने आया एक बच्चा अपने फोन से उसकी तस्वीर भी खींच लेता है और अगले दिन उसके सारे दिये हाथों-हाथ बिक जाते हैं. जो आँखें पटाखों पर लगी रोक से नहीं गीली हुईं वो सवा तीन मिनट के इस वीडियो को देखते ही अविरल बहने लग पड़ीं. मेरे फोन पर अलग-अलग स्रोतों से पहुंचे इस वीडिओ को इतनी बार देखा गया कि आख़िर में नज़रों ने ये भी पकड़ लिया कि पोस्टरों पर लगी तस्वीर दरअसल वो नहीं है जो बच्चे ने अपने कैमरे से ली थी. हालांकि पहली बार में आँखें इतनी भर आईं थीं कि उस प्रिंटर कंपनी का नाम ही नज़रों से रह गया जिसके प्रचार के लिए भावनाओं का इतना सुंदर ताना-बाना बुना गया था. फिर भावुक दिल ने दुनियादार दिमाग को फटकार लगाई, विज्ञापन ना होता तो इतने सुंदर वीडियो को बनाने के लिए वक्त और पैसा कहां से आता मूर्ख. अब वजह जो हो, दिये लकदक दुकानों के बाहर लगी पटरी से ही लिए गए और पटाखे जलाने से बचा वक्त उनमें प्यार से तेल भरकर जलाने में ख़र्च किया गया.

इस दिवाली वायरल हुए इस वीडिओ ने लोकप्रियता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए. अकेले यू ट्यूब पर इसे एक करोड़ बार देखा जा चुका है जबकि फेसबुक पर 87 हज़ार से ज़्यादा बार शेयर किए जाने के बाद इसे 48 लाख दर्शक मिले. ट्विटर पर तू जश्न बन के हैशटैग के साथ ये विज्ञापन तीन दिन तक ट्रेंड करता रहा. लब्बोलुआब ये कि तीन मिनट की इस फिल्म ने सफलता के वो सारे मकाम हासिल कर लिए जिसे विज्ञापन की भाषा में टचिंग द राइट कॉर्ड कहा जाता है.

कभी-कभी लगता है कि अगर बाज़ार ना हो तो हम सब संवेदनाशून्य हो जाएंगे. बाज़ार ही है जो हमें ख़रीद फरोख्त के साथ भावानाएं भी पिरोकर थमाता जा रहा है. कैडबरी सेलिब्रेशन हो या एमेजॉन, बिग बाज़ार हो या रिलायंस, बाज़ार रिश्ते बनाने के लक्ष्य भी निर्धारित करता है और उन्हें हासिल करने का ज़रिया भी बताता जाता है.

दिवाली पर फॉर्वर्ड हुए सैकड़ों संदेशों ने इनबॉक्स भर दिया. फेसबुक पर फॉर यू वाले संदेश हासिल करने का सौभाग्य भी मिला. लेकिन इनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने नाम से याद किया, चेहरा याद कर मिस किया. नाम वाले पर्सनलाइज़्ड संदेश आए भी तो फोन के मैसेज बाक्स में. कांपती उंगलियों और धड़कते दिल से यू हैव बिन मिस्ड ए लॉट इन लास्ट सेवरल मंथ्स, वाले जिस संदेश को पढ़ा गया उसे भेजने वाले का नाम फुटस्टेप्स डिज़ायनर फुटवियर था जहां अभी तक केवल दो बार जाना हुआ. लेकिन उनका दिल इतना उदार कि आज भी ना नाम भूले ना मिलने की तारीख़. त्यौहार वाले दिन खाना बनाते-बनाते हमारे चेहरे का नूर ख़त्म हो जाएगा इसकी चिंता केवल बिरयानी बाई किलोज़ को हुई जिसने केवल 90 मिनट में गर्मागर्म बिरयानी हमारे दरवाज़े तक पहुंचाने की पेशकश की. जन्मदिन वाले दिन, बिना नागा, वी केयर फॉर यू कहता जो पहला बधाई संदेश मिलता है उसे वो बैंक भेजता है जिसमें हर महीने (तारीख़ नहीं बता सकती) तनख्वाह जमा होती है.

बाज़ार हमें हमारे होने का एहसास भी कराता है और हमें अपने आप पर इतराने की वजह भी देता है. लो जी, पड़ोसियों को हमारा नाम नहीं मालूम तो क्या, मॉल में कितने हैं जिन्हें हमारे नाम के साथ हमारी जन्म कुंडली भी पता है.

भारत एक भावना प्रधान देश है और विज्ञापन उन भावनाओं का अविरल बहने वाला सोता, जो बाज़ार की गंगोत्री से निकलकर चहुं ओर बहता-बहता, वापस उसी स्रोत में समाकर उसे और विस्तार देता जाता है. अब किया जाए भी तो क्या, भावनाएं पिरोना है ही महंगा शौक. दिल चाहे जितना बड़ा हो, छोटा बटुआ तो इस शौक को अंजाम तक पहुंचाने से रहा. ऐसे में संवेदनाओं के एक-एक मोती को चुन-चुनकर उसे पूंजी के साथ निकालने का एक ही मकसद होता है, उसका इस्तेमाल उस चुंबक की तरह करना, जो और बड़ी पूंजी की उंगलियां थामे वापस घर पहुंचे.

बाज़ार कर्म और भावना प्रधान होने के साथ पूरी तरह से धर्म और पंथ निरपेक्ष भी है. अब देखो ना, अपने कठिन श्रम से वैलेंटाइन डे और मदर्स डे का वट वृक्ष तैयार करने के साथ उसने मातृ-पितृ दिवस के नवांकुर भी खिला दिए. बाज़ार खुशी चाहता है, जितनी खुशियां उतना बेहतर. वो जानता है कि हम कार ख़रीदने जाएं या कपड़े, हमें उसके साथ ख़ुशियां भी गिफ्ट रैप करके देनी हैं.   

दिवाली मना, भले ही हमारी थकान अभी तक शिराओं में हावी हो, मज़ाल है जो बाज़ार एक मिनट को भी सुस्ताने गया हो. दिवाली की लड़ियां उतरीं नहीं कि क्रिसमस की बत्तियां टिमटिमाने का वक्त आ गया. जब तलक हम रज़ाइयों और गद्दों को धूप दिखाएंगे, रंग-बिरंगे गिफ्ट रैप में लिपटी ख़ुशियां, दस्ताने पहन, फिर से दरवाज़े पर दस्तक देती मिलेंगी. जितनी मर्ज़ी हो समेट लो.

क्या कहा, बटुआ कराह रहा है? अमां उस पर भी ऑफर है, नया ख़रीद लो.

Monday, November 5, 2018

कोउ ना जाननहार



सौतेली माँ ने नए-नवेले दामाद से शिकायत की कि उसकी पत्नी खुले तालाब में छाती मल-मलकर नहाती है, दामाद बाबू को ग़ुस्सा आ गया और उन्होंने ससुराल में ही पत्नी की पिटाई कर दी. कुछ साल बाद एक बार पत्नी को लेकर पंजाब भाग गए. वहां एक बार उससे कहा, इतने बांके-सजीले सरदार घूमते हैं यहां, तुम्हें क्या कोई पसंद नहीं आता. पत्नी से सिर पकड़ लिया, किस सिरफिरे के पल्ले बंध गई, कभी झूठी शिकायत पर हाथ उठाता है तो कभी बीवी को लड़के पसंद करने को कहता है. जाने कैसे कटेगी इसके साथ ज़िंदगी मेरी. आगे की ज़िंदगी काट पाना सचमुच दुरूह था, फक्कड़ पति भटकता रहा अपनी अनगिनत यात्राओं पर, पत्नी नाममात्र की ज़मीन के सहारे अकेले छह बच्चों को पालने का संघर्ष करती रही. उनकी पढ़ाई-लिखाई के साथ उनके मुंडन, उपनयन, शादी के भी सरंजाम जुटातीं. पति को ख़बर जाती तो समय पर उपस्थित भर हो पाते.
कहानी बाबा नागार्जुन की है, सुनी थी उन बैठकों को दौरान जिनका उनके जीवन के आख़िरी सालों में सौभाग्य मिला.  उन दिनों जितनी बार उनसे मिलना होता, हौले से हंसते हुए थोड़ी लटपटाई हो चली ज़बान में कई कहानियां सुनाते रहते.  एक बार राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत की यात्रा पर थे, एक स्थान पर पहुंच राहुल जी ने उनसे लौट जाने का आग्रह किया और कहा कि रास्ते में उनके परिवार से मिलते, उनकी सलामती का संदेश पहुंचाते जाएं. मिलने पर राहुल जी की पत्नी रो पड़ीं, कहा, उनसे पूछना मेरी क्या ग़लती जिसकी ये सज़ा मिली मुझे. राहुल जी की मां ने बहु को रोका, किसके सामने रो रही हो, ये भी तो किसी को ऐसे ही छोड़ आया है. ये बात सुन बाबा उस बार घर लौट आए, लेकिन वो लौट आना भी फिर किसी नई यात्रा को निकल जाने का अल्पविराम ही था.
दरभंगा में बिताए उनके जीवन के आख़िरी सालों को करीब से देखा. बड़े सुपुत्र शोभाकांत जी का परिवार उनकी परिचर्या करता. अपनी बड़ी बहु की हिम्मत की बाबा बड़ी प्रशंसा करते. उन्हीं बड़ी बहु ने एक बार मुझसे कहा था, मैं इन्हें अपना श्वसुर नहीं मानती, वो होते तो मेरे बच्चों को श्लोक सिखाते, मेरे दालान पर बैठ घर के बड़े होने का कर्तव्य निभाते, लेकिन इन्होंने इसमें से कुछ भी नहीं किया. इनकी सेवा इसलिए करती हूं क्योंकि ये मेरे गुरु है और देश की इतनी बड़ी विभूति हमारे पास धरोहर है.
बाबा की पत्नी अपराजिता देवी से कभी मिलना नहीं हो पाया. आख़िरी सांस तक भी उन्होंने अपना गांव, अपनी डीह नहीं छोड़ी. उनकी मत्यु बाबा से बरस दो बरस पहले हुई थी. चूंकि ख़बर नहीं बनी तो पता नहीं चल पाया. एक बार मंदिर में उनकी बड़ी बहु से मिलना हुआ, बाबा की सेहत को पूछा तो हाथ पकड़कर रो पड़ीं, वो तो ठीक हैं लेकिन मेरी मां चली गईं.” परिवार के अंदर उनकी लौह इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प का इतना ही मान था.
आज बाबा की 20वीं पुण्यतिथि है. उनके बारे में, उनके लिखे के बारे में बात करने का दिन. शायद इन बातों को याद करने का सही दिन नहीं. आज का लिखना लेकिन तो भी रुक नहीं पाया. अंतर्मन को ये बात हमेशा मथती रहती है कि अमृता प्रीतम को याद की जाने वाली हर तारीख़ पर उनकी लेखनी से ज़्यादा उनके और इमरोज़ के रिश्ते और उस रिश्ते में इमरोज़ के त्याग और समर्पण को याद किया जाता है.
लेखन कठिन विधा है, जीवसाथी का त्याग और सहयोग जिसमें बहुत अपेक्षित है. बाबा के जीवन को बहुत क़रीब से देखने का सौभाग्य मिला. पति से अपमानित, तिरस्कृत होकर भी उनके लिखे को संवारने वाली वीएस नायपॉल की जीवनी के कई  हिस्से भी पढ़े. बावजूद इसके पति के लेखन के पीछे पत्नियों के त्याग की ऐसी जाने कितनी कहानियां होंगी जिन्हें कोई नहीं दुहराता, जो शायद किन्हीं पन्नों में दर्ज नहीं हुईं या गर हुई भी हों तो उन्हें पलटने की ज़रूरत अब किसी को नहीं होती.