Saturday, May 28, 2016

नानी की चिड़ैया



बचपन था, गर्मी की छुट्टियां थीं और उन छुट्टियों के कुछ दिन नानी के घर के लिए मुकर्रर थे। नानी का घर दरअसल एक तिलिस्म था जहां पहुंचते ही सब खो जाते, मांएं अपनी दुनिया में और हम बच्चे अलग अपनी दुनिया में। मां के लिए यहां बस उनकी मां थोड़े ही थीं, आलमारी के कोने में पुराने कपड़ों की तहों में सिमटा उनका बचपन भी था जो उंगलियों के पोरों के छूने भर से वापस हरकत में आ जाता था, कमरों के कोने में वो कहानियां थीं जो ज़रा सी सरगोशी से हुमक पड़तीं और जिन्हें अभी भी याद कर मां और मौसियां घंटों हंसती जा सकती थीं। रसोई में अभी तक कच्ची उम्र में की गई नाकाम कोशिशों की महक तक मौजूद थी। हमारे लिए भी तो वहां रोज़ के बोरिंग काम नहीं थे, बोरिंग सुबह और शाम भी नहीं थे।  


नानी के घर में हमारे ऊपर मां की निगाहें तो थीं लेकिन उन निगाहों से कोई डर नहीं था क्योंकि हमारी ओर देखते समय मां की नज़रें तरल हो जाया करतीं, हमें पार कर जाने कहां खो जातीं और यूं ही मुस्कुराने लगती थीं। नानी के उस घर में नानी का एक पलंग भी था, पता नहीं किस साइज़ का था, किंग या क्वीन या उसके बीच का कुछ। वो पलंग भी जादुई था क्योंकि एक समय में घर में जितने बच्चे होते सब नानी के उस पलंग में नानी के साथ समा जाया करते थे।


किस्से कहानियों में अमूमन नानी की कहानियां हुआ करती हैं। लेकिन हमारी नानी के पास बस एक कहानी होती थी। वो कहानी हमें हर उस रात को सुनने को मिलती थीं जो हम नानी के पलंग पर बिताते थे। नानी ने कभी कोई और कहानी नहीं सुनाई, हमने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि नानी को और कहानियां आती भी हैं या नहीं, क्योंकि हम उनसे कोई और कहानी सुनना ही नहीं चाहते थे। हमें इस कहानी के होने या नहीं होने से भी कहां फर्क पड़ता था, हमें बस नानी के मुंह से वो कहानी सुननी होती थी। अजब सम्मोहन था उस कहानी में, ऐसा लगता था जब तक वो कहानी नहीं सुनी जाएगी नानी के घर रात नहीं ढलेगी।

नानी वज्जिका में वो कहानी सुनाती थी, आधी कविता की शक्ल में।  इसमें पेड़ पर घोंसला बनाए एक चिड़िया थी, खुदबुदिया बाटी, (पता नहीं ये नाम किस चिड़िया का रहा होगा, क्योंकि नानी के अलावा किसी और से उसका ज़िक्र कभी नहीं सुना, शायद चुलबुली गौरेया रही होगी), जिसके अंडों से अभी-अभी चूज़े निकले थे। वो उड़ नहीं सकते थे इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए मां चिड़ी को उनके पास रहना होता था। लेकिन मां चिड़ी की ज़िम्मेदारी उन चूज़ों का पेट भरने की भी थी, इसलिए दाना ढूंढने उसे अपनी नन्हीं जानों से दूर जाना पड़ता। चिड़ी के भय का सबब था पास ही पंडित के वेश में बैठा एक सियार जिसकी नज़र हंमेशा मांस के उन मुलायम टुकड़ों पर रहती।

बूढ़ा सियार रोज़ चंदन-टीका करके बैठ जाता और चिड़ी से पूछता, मैं कैसा लग रहा हूं। चिड़ी जानती थी कुछ बुरा बोलने की परिणति उसके बच्चों की जान जाने में हो सकती है, इसलिए वो झूठमूठ तारीफों के पुल बांधती। हर बार की तारीफ़ सियार के अहम को सहलाती रहती और यूं वो चूज़ों को खाने की योजना स्थगित करता जाता। फिर एक दिन सियार के ये पूछे जाने पर कि वो कैसा लग रहा है चिड़ी ने सच बोल दिया, उस बूढ़े सियार के ढोंग की पोल खोल ही दी उसके सामने। सियार गुस्से में मारने उठा लेकिन तब तक चिड़ी के बच्चों के पंख क्षितिज नापने की मज़बूती हासिल कर चुके थे, सो सब के सब फड़फड़ा कर उड़ गए।

उन दिनों कहानी की हर पंक्ति याद होती थी लेकिन मतलब नहीं समझ आता था, आज कई पंक्तियां भूल गई हैं, पूछ पाने को नानी भी नहीं है, लेकिन कहानी के हर शब्द का मतलब याद है। जब तक बच्चे छोटे होते हैं मांओं को हर किसी की चिरौरी करनी होती है, जाने किस-किस की टेढ़ी नज़रों का सामना करना होता है, दफ्तर में बॉस की, सहकर्मियों की, दोस्तों की, रिश्तेदारों की और शायद सबसे ज़्यादा कामवालियों की। ख़ासकर तब जब मां वर्किंग हो, चिड़ी की तरह दाने जुटाने के लिए अपना घोंसला छोड़कर जाने को मजबूर। बच्चे बड़े होते जाते हैं तो मां का आत्मविश्वास लौटता जाता है।

वो सच नानी की चिड़ैया का था, नानी का भी रहा होगा, मां का भी था और मेरा भी।

अंतर बस ये कि हम माएं चिड़ी की तरह सच बोल पाने का साहस कभी नहीं जुटा पातीं, क्योंकि चिड़ी की तरह हमारे जीवन में ऐसा कोई दिन नहीं आता जब हम अपने बच्चों से पूरी तरह स्वतंत्र हो पाएं, पंख फैलाकर उनके उड़ जाने के बाद भी नहीं। हम माओं का जीवन चिड़ी के जितना सुलझा हुआ कहां हो पाता है कभी।

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