दिवाली की जगमग रोशनी के बीच एक अधेड़ औरत मिट्टी
के बने दिए और सकोरे बेचने की असफल कोशिश कर रही है. दिये ख़रीदने आया एक बच्चा अपने
फोन से उसकी तस्वीर भी खींच लेता है और अगले दिन उसके सारे दिये हाथों-हाथ बिक
जाते हैं. जो आँखें पटाखों पर लगी रोक से नहीं गीली हुईं वो सवा तीन मिनट के इस
वीडियो को देखते ही अविरल बहने लग पड़ीं. मेरे फोन पर अलग-अलग स्रोतों से पहुंचे
इस वीडिओ को इतनी बार देखा गया कि आख़िर में नज़रों ने ये भी पकड़ लिया कि
पोस्टरों पर लगी तस्वीर दरअसल वो नहीं है जो बच्चे ने अपने कैमरे से ली थी. हालांकि
पहली बार में आँखें इतनी भर आईं थीं कि उस प्रिंटर कंपनी का नाम ही नज़रों से रह
गया जिसके प्रचार के लिए भावनाओं का इतना सुंदर ताना-बाना बुना गया था. फिर भावुक दिल ने दुनियादार दिमाग को फटकार लगाई, विज्ञापन ना होता तो इतने सुंदर वीडियो को बनाने के
लिए वक्त और पैसा कहां से आता मूर्ख. अब वजह जो हो, दिये लकदक दुकानों के बाहर लगी
पटरी से ही लिए गए और पटाखे जलाने से बचा वक्त उनमें प्यार से तेल भरकर जलाने में
ख़र्च किया गया.
इस दिवाली वायरल हुए इस वीडिओ ने लोकप्रियता के
सारे कीर्तिमान तोड़ दिए. अकेले यू ट्यूब पर इसे एक करोड़ बार देखा जा चुका है
जबकि फेसबुक पर 87 हज़ार से ज़्यादा बार शेयर किए जाने के बाद इसे 48 लाख दर्शक
मिले. ट्विटर पर ‘तू जश्न
बन’ के
हैशटैग के साथ ये विज्ञापन तीन दिन तक ट्रेंड करता रहा. लब्बोलुआब ये कि तीन मिनट
की इस फिल्म ने सफलता के वो सारे मकाम हासिल कर लिए जिसे विज्ञापन की भाषा में ‘टचिंग द राइट कॉर्ड’ कहा जाता है.
कभी-कभी लगता है कि अगर बाज़ार ना हो तो हम सब
संवेदनाशून्य हो जाएंगे. बाज़ार ही है जो हमें ख़रीद फरोख्त के साथ भावानाएं भी
पिरोकर थमाता जा रहा है. कैडबरी सेलिब्रेशन हो या एमेजॉन, बिग बाज़ार हो या
रिलायंस, बाज़ार रिश्ते बनाने के लक्ष्य भी निर्धारित करता है और उन्हें हासिल
करने का ज़रिया भी बताता जाता है.
दिवाली पर फॉर्वर्ड हुए सैकड़ों संदेशों ने
इनबॉक्स भर दिया. फेसबुक पर ‘फॉर यू’ वाले संदेश हासिल करने का सौभाग्य भी मिला.
लेकिन इनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने नाम से याद किया, चेहरा याद कर मिस किया.
नाम वाले पर्सनलाइज़्ड संदेश आए भी तो फोन के मैसेज बाक्स में. कांपती उंगलियों और
धड़कते दिल से “यू हैव
बिन मिस्ड ए लॉट इन लास्ट सेवरल मंथ्स”, वाले जिस संदेश को पढ़ा गया उसे भेजने वाले का
नाम ‘फुटस्टेप्स
डिज़ायनर फुटवियर’ था
जहां अभी तक केवल दो बार जाना हुआ. लेकिन उनका दिल इतना उदार कि आज भी ना नाम भूले
ना मिलने की तारीख़. त्यौहार वाले दिन खाना बनाते-बनाते हमारे चेहरे का नूर ख़त्म
हो जाएगा इसकी चिंता केवल ‘बिरयानी बाई किलोज़’ को हुई जिसने केवल 90 मिनट में गर्मागर्म
बिरयानी हमारे दरवाज़े तक पहुंचाने की पेशकश की. जन्मदिन वाले दिन, बिना नागा, ‘वी केयर फॉर यू’ कहता जो पहला बधाई
संदेश मिलता है उसे वो बैंक भेजता है जिसमें हर महीने (तारीख़ नहीं बता सकती) तनख्वाह जमा होती
है.
बाज़ार हमें हमारे होने का एहसास भी कराता है और
हमें अपने आप पर इतराने की वजह भी देता है. लो जी, पड़ोसियों को हमारा नाम नहीं
मालूम तो क्या, मॉल में कितने हैं जिन्हें हमारे नाम के साथ हमारी जन्म कुंडली भी
पता है.
भारत एक भावना प्रधान देश है और विज्ञापन उन भावनाओं
का अविरल बहने वाला सोता, जो बाज़ार की गंगोत्री से निकलकर चहुं ओर बहता-बहता, वापस
उसी स्रोत में समाकर उसे और विस्तार देता जाता है. अब किया जाए भी तो क्या, भावनाएं
पिरोना है ही महंगा शौक. दिल चाहे जितना बड़ा हो, छोटा बटुआ तो इस शौक को अंजाम तक
पहुंचाने से रहा. ऐसे में संवेदनाओं के एक-एक मोती को चुन-चुनकर उसे पूंजी के साथ निकालने
का एक ही मकसद होता है, उसका इस्तेमाल उस चुंबक की तरह करना, जो और बड़ी पूंजी की
उंगलियां थामे वापस घर पहुंचे.
बाज़ार कर्म और भावना प्रधान होने के साथ पूरी
तरह से धर्म और पंथ निरपेक्ष भी है. अब देखो ना, अपने कठिन श्रम से वैलेंटाइन डे
और मदर्स डे का वट वृक्ष तैयार करने के साथ उसने मातृ-पितृ दिवस के नवांकुर भी खिला
दिए. बाज़ार खुशी चाहता है, जितनी खुशियां उतना बेहतर. वो जानता है कि हम कार ख़रीदने
जाएं या कपड़े, हमें उसके साथ ख़ुशियां भी गिफ्ट रैप करके देनी हैं.
दिवाली मना, भले ही हमारी थकान अभी तक शिराओं में
हावी हो, मज़ाल है जो बाज़ार एक मिनट को भी सुस्ताने गया हो. दिवाली की लड़ियां
उतरीं नहीं कि क्रिसमस की बत्तियां टिमटिमाने का वक्त आ गया. जब तलक हम रज़ाइयों
और गद्दों को धूप दिखाएंगे, रंग-बिरंगे गिफ्ट रैप में लिपटी ख़ुशियां, दस्ताने
पहन, फिर से दरवाज़े पर दस्तक देती मिलेंगी. जितनी मर्ज़ी हो समेट लो.
क्या कहा, बटुआ कराह रहा है? अमां उस पर भी ऑफर
है, नया ख़रीद लो.
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